जब रविवार ने ऑफिस के कपड़े पहन लिए
दिलायरी तो लिखना ही भूल गया था कल। क्योंकि थोड़ी जिम्मेदारी का बोझ बढ़ा है। यही जीवन है, धूप-छांया समान.. कभी काम बढ़ जाता है, कभी आराम, कभी खुशियों की लहर होती है तो कभी उदासी की परछाई..! कभी किसी को खुश रखना पड़ता है अपनी परिस्थिति छिपाकर। तो कभी किसी पर अकारण क्रोधित होना पड़ता है। सुबह लगभग दस बजे ऑफिस पहुँचा, रविवार था तो पता था कि तीन या चार तो यहीं बज जाएंगे। और सही भी हुआ, गजा छुट्टी पर था तो कुछ रिपोर्ट्स बनाने पडे, और लगभग तीन बजे तक यही सब चला..
बेवजह सा बाज़ार और बिना बात की उदासी
अब तीन-साढ़े तीन को भूख भी तो नही होती.. घर पहुंचकर कुछ चाय नाश्ता ही हो सकता है। और फिर पता नही बड़े दिनों बाद दोपहर को नींद आ गयी मुझे। दोपहर को तबियत ठीक न हो तो ही नींद आती है मुझे। क्योंकि मैं जागता ही सुबह साढ़े सात - आठ को हूँ, तो दोपहर को नींद आना विचित्र ही लगे। पांच बजे फिर मार्किट चला गया, थोड़ा कुछ सामान खरीदना था। और घर लौटा तब आठ बजे गए थे। और खापीकर उठे तब साढ़े दस बज गए थे।
ठीक है अब, यही था रविवार.. बेफिजूल सा..!
(२३/०२/२०२५)
प्रिय पाठक,
कभी-कभी सबसे शांत दिन भी
मन के भीतर शोर कर जाते हैं।
अगर आपकी ज़िन्दगी में भी कभी छुट्टी एक जिम्मेदारी बन जाए —
तो उसे दर्ज करना न भूलिए।
और इस दिलायरी को उन अपनों संग साझा कीजिए, जो आपके सच्चे थकान-सहयोगी हैं।
कभी-कभी सबसे शांत दिन भी
मन के भीतर शोर कर जाते हैं।
अगर आपकी ज़िन्दगी में भी कभी छुट्टी एक जिम्मेदारी बन जाए —
तो उसे दर्ज करना न भूलिए।
और इस दिलायरी को उन अपनों संग साझा कीजिए, जो आपके सच्चे थकान-सहयोगी हैं।
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