प्रियंवदा.. क्या बताऊं तुम्हे अब..! अभी कुछ देर पहले ही दिलायरी में लिखा था कि आजकल लिखने को कुछ भी न सूझ रहा है। और अभी अभी स्नेही ने कहा लिखो.. लिखो उनपर जो दो मुंही बात करते है। वैसे सब लोग ही दोमुंहे है। जब से सोसयल मीडिया से जुड़े है। हर कोई व्यक्तिगत तौर पर अलग और सोसयल मीडिया पर अलग छवि बनाए बैठा है। मैं खुद पता नही कौनसी ग्लानि में अपना चेहरा छिपाए बैठा हूँ, सोसयल मीडिया पर कभीकभार अपनी खुद की फ़ोटो डाल दी तो भले.. वो भी बड़े दार्शनिक अंदाज में। कैमरे से दूर किसी और दिशा में देखते हुए पोज़ लेते है, नीचे दो टूक पंक्तियो में कुछ भारी-भरखम ज्ञान या शायरी डालते है.. और झूठी तारीफों का तो दीवाना बन चुका हूं मैं। अब तो कभी कभार स्नेही-मित्रो से कह भी देता हूँ कि थोड़ी सी तारीफ तो कर दो मेरी..! हम दोनों चीज़ का उपयोग करते है, आवश्यकतानुसार, सच और झूठ दोनो। और दोनो को अपनी समझ और स्थिति-परिस्थिति अनुसार उचित भी ठहराते है।
उदाहरण के तौर पर, आज की लड़कियां/स्त्रियां सोचती है, घूंघट तो बोझ है। अत्याचार है। स्त्रियों पर की गई प्रताड़ना और बंधन का प्रतीक है। लाज और मर्यादा के नाम पर स्त्री को सीमित रख दिया गया। आज के युग मे यह सब नही चलता, घूंघट क्यों रखना है? क्यों पुरुष घूंघट नही लगाता? वह भी तो अपनी नजरें ठीक करे.. स्त्री को ही पर्दे में क्यों डाला गया? वैसे आजकल लड़कियां घर से बाहर निकलते ही मुंह पर डाकू बूलनदेवी जैसा कपड़ा लपेटकर क्यों निकलती है फिर? वह भी तो एक दृष्टिकोण से घूंघट का अद्यतन स्वरूप नही हुआ? वास्तव में स्त्री को घूंघट से दिक्कत नही है, अब वह फैशन से मैच नही करता। कैसे करेगा? जीन्स टॉप में घूंघट का पल्लू होता ही नही। और टॉप के नाम पर तो आजकल कंधे पर बस एक डोरी वाला ही तो टॉप होता है। मुझे तो नाम भी नही आते, ज्यादातर लड़को को नाम नही पता होते स्त्रियों के ड्रेस के। स्लीवलेस? जिसमे बाजू नही होती, कंधे से ही.. होता होगा..! मुद्दा यह है कि यूँ तो लड़कीं स्कूटी चलाते हुए मुंह, बाल और गले से नीचे तक कपड़ा लपेट लेती है। पर घर मे अगर कह दिया कि सर पर पल्लू डाल लो तो अत्याचार हो गया भाई..! नही हर जगह नही होता है यह। कुछ लोग परंपरा बनाए बैठे है, निभा भी रहे है। यह तो उनकी बात हो रही है जो कुछ देर के लिए ग्रेटा थंबर्ग और कुछ देर में सावित्री बनने वाली स्त्रिओं की बात हो रही है।
अभी कुछ दिन पूर्व ही तो वेलेंटाइन हफ्ता गया है। गुल से लेकर गुलछर्रे तक उड़ाए गए है। गमले भी उड़े है कहीं तो। और वे दंडधारी के भी नखरे अलग थे। (आज यह गलत जगह लिखने बैठ गया हूँ, मच्छरों ने कहर ढा रखा है।) अब सोचिए (वैसे मैं भी स्नेही के कहने पर ही सोच रहा हूँ) 'मुंह को कपड़े से लपेटकर अपने प्रेमी संग घूमने वाली कुछ लड़कियों का शादी के बाद घूंघट का विरोध करना सही है या गलत?' अब सिरे से मुद्दे का उठापटक करते है। इसमें तीन बातें मुख्य है, दोहरा अभिप्राय, चरित्र और घूंघट। घूंघट क्या है वैसे? मेरे दृष्टिकोण से लाज, मर्यादा, संस्कार, और उच्च-चरित्र का प्रतीक। वैसे घूंघट का प्रचलन मुझे लगता है कुछ सौ वर्ष पहले ही आया होगा। क्योंकि अपने यहां की स्त्रियां स्वयंवर करती थी वे जाहिर सी बात है घूंघट में नही रही होगी..! फिर बीच के समयखण्ड में जब विदेशी आक्रांताओं का सामना करना पड़ा होगा, जिनमे नैतिकता न बराबर थी, बस उनसे बचने के लिए इसकी आवश्यकता खड़ी हुई होगी, और अक्सर आवश्यकता रिवाज या परंपरा में तब्दील होती है। फिर धीरे धीरे सारे समाजोने इसे अपना लिया। स्त्रियां अपने यहां अपना मुख नही ढकती थी क्योंकि ज्ञान और शक्ति से भरपूर थी। लेकिन म्लेच्छों के आक्रमण ने अपने यहां की सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त कर दी, और हमारी जीवनचर्या पर भी असर हुई।
चरित्र.. वैसे स्त्री चरित्र के विषय मे एक बात निःसंकोच कही जा सकती है कि एक स्त्री प्रसन्न हो तो पृथ्वी पर ही स्वर्ग दिखाए, और रुष्ट हो जाए तो यहीं नरक भी है। स्त्री ब्रह्मा है, वह निर्माण करती है, एक अच्छे घर का, अच्छे समाज का, अच्छे देश का। लेकिन वहीं स्त्री सीता है तो शूर्पणखा भी है। स्त्री उर्मिला है तो स्त्री मंथरा भी है। स्त्री अहल्या है तो शबरी भी है। स्त्री का जैसा चरित्र होगा, वैसी ही वो उत्पत्ति करेगी। वो चाहे तो प्रताप पैदा करे, वो चाहे तो दुर्योधन..! चरित्र का निर्माण स्त्री करती है, लेकिन कभी कभी स्वार्थवश या किसी और कारणवश चरित्र और नैतिकता की तमाम हदे स्त्री पार कर सकती है, जैसे समय के उस शो में अपूर्वा ने की थी..! स्त्री चाहे तो समाज से सारी कुरुतियाँ हटा दे। लेकिन उसमें भी एक बड़ा अवगुण है, ईर्ष्या का। एक स्त्री दूसरी स्त्री की बहुत ईर्ष्या करती है। वह स्त्री स्वयं विवाद में नही उतरती। पुरुषों के कान भरती है। पुरुष को कठपुतलियों की तरह लड़वा देती है। संयुक्त परिवार के कई टुकड़े कर देती है। कड़वी वास्तविकता है ना.. पुरुष मूर्ख है। स्त्री को अपनी स्वतंत्र बुद्धि सौंप देता है।
अब तीसरी बात है दोहरा अभिप्राय.. वैसे शुरुआत में ही कह दिया था कि लोग अपनी आवश्यकतानुसार नीति आचरण करते है। स्त्री भी.. खासकर वे फेमिनिस्ट.. उन्हें लगता है स्त्रियों पर बस प्रताड़ना ही हुई है, या हो रही है। वे उन प्रत्येक परम्पराओ पर प्रश्न खड़े करती है जो स्त्री से जुड़ी हुई है। अरे कोई किसी मुद्दे पर यदि बात रखता है तो उसे उस मुद्दे से जुड़े तमाम उन पर्यायवाचीओं का भी समावेश करना होगा। अगर घूंघट पर प्रश्नार्थचिन्ह है तो फिर हिजाब पर भी होना चाहिए.. लेकिन लोग पल्ला जाड़ लेते है ये यह कहकर कि वो मेरी परंपरा में नही आता है।
प्रियंवदा ! लड़कीं खुद चाहे तो घूंघट रखे, खुद चाहे तो न रखे, मुझे कोई मतलब नही है। किंतु मैं सिगरेट पीते हुए सिगरेट से होते केंसर की चर्चा करूं तो मुझसे बड़ा मूर्ख है ही कौन? या फिर शांति बनाए रखें कहते ही जिस तरह शांति भंग हो जाती है, उसी तरह जो खुद ही कपड़ा लपेटकर प्रेमी के साथ भरेबाज़ार घूमी हो, और विवाह के बाद वही लड़कीं को कह दिया जाए कि सर पर पल्लू रख लो तो चंडिका बन जाए ऐसी दोहरे अभिप्राय वालियों से तो ईश्वर बचाए बस..! वैसे उसे पल्लू करने में दिक्कत नही थी, उसे पल्लू करने को कहा गया इस बात से ज्यादा दिक्कत होती है। शायद सबको ही कोई आदेशात्मक या रिवाज़ के नाम सौंपा गया ज्यादा रास नही आता। क्योंकि यह मॉडर्न जमाना है, अब स्त्रियां अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी है, आज़ादी है भाई.. स्वतंत्रता स्वच्छन्दता से बदल दी गयी है। समझ की कमी है और कुछ नही। घूंघट कहीं आड़े नही आता यदि दृढ़निश्चयता है तो। कल-परसो ही शुभंकर मिश्रा का एक पॉडकास्ट सुन रहा था जिसमे एक स्त्री आयी हुई थी, राजस्थान से। सीधी मारवाड़ी नामसे यूट्यूब चैनल है। और अब तो करोड़ो की कंपनी खड़ी कर चुकी है। लेकिन घूंघट रखती है, सर पर पल्लू रखती है। जहां चाह होती है ना वहां यह सब पल्लू-वल्लू, घूंघट-वुंघट मायने नही रखता। घूंघट को मना करने का कारण बस इतना भर है कि मुझ पर आदेश देने वाले यह लोग है कौन? नही है, कोई अधिकार नही है स्त्री को घूंघट का विरोध करने का.. यदि यह घमंड आड़े आता है तो। घूंघट का मुद्दा आया है तो मैं उन्हें भी कहना चाहूंगा जो घूंघट के नाम पर जालीदार पल्लू से मुंह ढकती फिरती है.. घूंघट से तातपर्य था अपना चेहरा न दिखाना। लेकिन उन जालीदार फैशन वाले पल्लू से किया हुआ घूंघट छलनी से पानी भरने समान है। चेहरा ही दिखाना है तो घूंघट क्यों करना? जैसे हमारे यहां रिवाज है कि स्त्रियां जेठ और सुसर की लाज रखती है, लाज अर्थात मर्यादा। उनके सामने ही नही आती। आज छोटे परिवारों में यह रिवाज परेशानी समान है। क्योंकि घरों की संरचना बदल चुकी है, 3bhk में हॉल में से स्त्री को गुजरना हो तो कैसे जाएगी? तो यहां रिवाज बदला जा सकता है। घसीटना जरूरी नही है।
मैं यह जरूर मानता हूं कि घर मे घूंघट की जरूरत नही है अब। लेकिन परंपरा है तो बनी रहनी चाहिए। और बाहर भी अब मलेच्छो के आक्रमण नही होते है तो वहां यदि पुरुषों में भी संस्कार निर्माण हो जाए तो स्त्री को बाहर निकलते समय मुंह पर कपड़ा लपेटने की भी आवश्यकता नही है। खेर, वैसे इस मॉडर्न युग मे स्त्री को ज्यादा कुछ कह नही सकते। सबके अपने मौलिक अधिकार है, अपना निजी मंतव्य है, अपनी इच्छा है, अपना आचरण है। कोई चाहे तो प्रेमी संग भाग जाए, कोई चाहे तो विवाह के पश्चात परपुरुष से प्रेमप्रसंग रचाए। हम कह सकते है कि गलत है, लेकिन कहने भर से भी क्या पता कोई कह दे कि तुम होते कौन हो यह कहने वाले.. तो..?
तो कुछ नही, मैं दिलावरसिंह हूँ, और मेरा मन हुआ तो मैंने कह दिया। सही है या ग़लत वो तुम बताओ प्रियंवदा..!