'बड़े सपने अक्सर समझौते मांग लेते है।' एक पॉडकास्ट सुन रहा था उसमे यह लाइन थी। प्रियंवदा, आजकल लिखने को कुछ सूझ नहीं रहा, समय हर समय एक जैसा नहीं रहता। यह दो लाइने लिखी उसमे समय भी आया, पॉडकास्ट भी..! कुछ याद आया? अरे अभी ताज़ी ताज़ी ही कॉन्ट्रोवर्सी हुई है..! मतलब आप कितना घिनौना सोच सकते हो, वो जमाना बीत चूका है, अब तो आप ऑन केमेरा कितनी गंध फैला सकते हो, उसका जमाना है। समय का शो INDIA'S GOT LATENT मैंने भी खूब देखा..! क्योंकि कुछ अच्छे कंटेस्टेंट आए थे, दो सूरदास (जिनकी आँखे नहीं होती।) काबिल-ए-दाद थे। एक बात मैंने नोटिस की है। मैं इन स्टेन्डप कॉमेडियंस के वीडिओज़ खूब देखता-सुनता हूँ, लेकिन हँसी नहीं आती मुझे..! हाँ, एक वो इंदर सहानी ठीक लगा, एक जाकिर खान..! क्योंकि यह लोग गाली-गलौच कम करते है। कोई एकाध आ जाए तो बात अलग है। बाकी इनके जोक्स अच्छे होते है। समय के विषय में तो मैं पहले भी एक बार लिख चूका हूँ कि उसका एक जोक था, जो बड़ा ही गंदा था, कि उसने किसी भिखारी बच्चे को दो हजार का नॉट दिया, और दूसरे बच्चे लड़ने लगे, और एक बच्चा ट्रेन के निचे आ गया, और यह तमाशा देखते हुए सोच रहा सोचता कि उसके दो हजार वसूल हुए..! किसी की मृत्यु पर मजाक बनाना, जोक थोड़े हुआ? आसुरी प्रवृत्ति हुई यह तो..! सीताहरण के समय रावण जैसा असुर हँस सकता है, और एक यह लोग है जो मृत्यु का जोक बनाते है। मतलब सारी सीमाएं लांघ दी गई..! मातापिता के विषय में बात करके..! वैसे भी यह कॉमेडियन के जोक्स आत्म-आलोचना से भरे हुए होते है। मैंने यह किया, मैंने वो किया। हास्य या व्यंग्य वो होता है, जिसमे अपमान घुला हुआ न हो..!
वैसे आज पॉडकास्ट सुन रहा था, शुभंकर मिश्रा और सान्या मल्होत्रा। वही जिक्र आ गया उसमे भी मिसिज़ मूवी का। हालाँकि, सान्या खुद भी कई मामलो में निरुत्तर रही, वैवाहिक प्रथा के प्रश्नो में। क्योंकि, कुछ बाते होती है, जिनके उत्तर नहीं होते। या देने लायक नहीं होते। वैसे यह शुभंकर मिश्रा भी कभी कभी कड़क सवाल करता है, बख्शता नहीं। पहले विवाह के लिए कोई प्रश्न ही न था, बस एक स्त्री होनी चाहिए, एक पुरुष। लेकिन अब पुरुषो के पास तीन ऑप्शन है। एक तो ऐसी लड़की, जो सिर्फ घर संभाले, दूसरी ऐसी लड़की जो सिर्फ जॉब या अपनी मन-मर्जी करना चाहती है। और तीसरी वो लड़की, जो घर तो संभालेगी, और साथ ही साथ नौकरी भी करेगी। वैसे समाज चल भी रहा है इन तीनो के साथ..! लेकिन मुझे लगता है, आगे से रिश्ते बनते समय यह चीज भी जरूर से डिसकस होंगी। वैसे अपन ठहरे ओवरथिंकर, तो तुरंत ख्याल आया कि कैसा होगा, जब दो समधी बैठकर डिसकस करेंगे कि हमारी लड़की तो शादी के बाद काम करेंगी, तो दहेज़ थोड़ा कम देंगे.. और लड़के का बाप कहेगा, हमारे घर में तो लड़कियां काम नहीं करती, और दूल्हा शादी के मंडप में से खड़ा हो जाएगा.. नहीं नहीं अब तो लड़की की माँ मना कर देती है, हमारी लड़की तो काम करके पैसा कमा लेंगी, आप के घर भेजने की हमे कोई जरूरत नहीं। क्या ड्रामा होगा.. हैना..! वैसे यह मुद्दा भी सोचने लायक है, कि लड़की की माँ विवाह के बाद लड़के वालो के घर में भी इंटरफेयरेंस करती है। लेकिन खुद की बहु का इतना ख्याल नहीं रखती..! अपनी पुत्री को तो कहेगी कि काम मत कर, लेकिन बहु को किचन से बाहर नहीं आने देती.. तभी तो आज भी अखबारों में विवाहिता के अग्निस्नान की खबरे पढ़ने में आती है। ताली सदा से दो हाथ से ही बजती आयी है, और बजती रहेगी। वैसे आजकल विवाह के मामले में सोच-विचार भी बहुत ज्यादा होता है। पुरुष और स्त्री दोनों ही कुछ अधिक ही समय ले रहे है। लगभग तिस की उम्र के बाद सोचना शुरू करते है। क्योंकि अब सबको कॅरियर ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। या फिर वो डर है कि गलत पार्टनर मिल गया तो क्या होगा? जब तिस-पेंतीस पर विवाह करेंगे, और उनके बच्चे हुए तो जब बच्चे कॉलेज में जाएंगे तब यह कपल पचास की उम्र का होगा..! न ही अपने बच्चो से अच्छे से घुल मिल पाएंगे, न ही उनके साथ कोई शारीरिक एक्टिविटी में शामिल हो पाएंगे.! मुझे लगता है, निर्णयशक्ति, या इच्छाशक्ति कम है। क्योंकि वैवाहिक मामले में भी रिस्क लेना नहीं चाहते। कितने कम्फर्ट प्रेमी हो चुके है हम। लगता है सामाजिक संरचना में बड़ा बदलाव आने वाला है प्रियंवदा..!
एक और मुद्दा ध्यान आया था, पर भूल गया मैं प्रियम्वदा ! क्या करूँ, आजकल रील देखने में एक मिनिट में दो बार विरोधाभाषी भाव पनप जाते है मन में.. यह हिंदी भाषा में मेरी कभी वर्तनी भूल सुधरेंगी या नहीं? एक स्नेही द्वारा कई बार टोके जाने के बावजूद कागज़ को कागझ ही लिख देता हूँ। क्या करूँ, हिंदी प्रथम भाषा है नहीं मेरी, न ही उतना हिंदी साहित्य पढ़ा है। होगा, वैसे भी मुक्तछंद के जमाने में अक्षर-मात्राएँ कौन गिन रहा है अब..! चलो और तो कोई मुद्दा याद नहीं आया तो उसी वैवाहिक दांपत्य जीवन वाले मुद्दे को घसीटते है आज... प्रेम अब घिसा-पिटा मुद्दा रह गया है, शादियों की सीज़न है ना.. विवाह पर बात ठीक रहेगी..! देखो एक बात तो निश्चित है। एक लड़का है, उसे हंमेशा से एक परिवार चाहिए होता है। परिवार में कमसे कम उसके माता पिता, उसकी पत्नी और यदि संतान है तो। आज के ज़माने में परिवार इतना ही रह गया है। लेकिन अब वो भी बिखरने लगा है क्योंकि आनेवाली स्त्री अपने सास-ससुर से भी अलग होना चाहती है। तो परिवार का और संधि-विच्छेद होगा, बूढ़ा-बूढी गाँव में, और यह नव-विवाहित जोड़ा अलग.. किसी जगह। एक बात मैंने हर जगह देखि है, विवाह प्रस्ताव में अक्सर लड़के की लड़की से मांग या चाह इतनी ही होती है की मेरे परिवार और माता-पिता को संभाल ले। लड़की को तो लड़का संभाल लेगा। लेकिन होता क्या है, लड़की पर थोड़ा सा प्रेशर पड़ेगा इस नए घर का कि तुरंत अपनी माँ को फोन कर के पल पल की खबरे देगी, उधर से भी कभी-कभार मंथरा जैसी सलाहें आती है, कि तू तो बस अपना सोच..!
एक लड़के को विवाह के लिए कभी भी सुन्दर लड़की नहीं चाहिए होती है, बस घर सँभालने वाली चाहिए। सुंदरता तो सोने पर सुहागा भर का है। लेकिन लड़की, जो अपने मायके में नाजो से पली है, वो यहाँ के वातावरण में अपना शत-प्रतिशत नहीं घुलती-मिलती। यहीं से पंगे शुरू.. मायके में अपनी माँ की इज्जत नहीं की होगी, तो यहाँ ससुराल में करेंगी? अपने पति से 'आपकी माँ' कहकर बात करती है। लगभग पुरुष विवाह से पूर्व अपनी स्त्री से कह ही देता है, कि कुछ भी हो जाए, माता-पिता का ख्याल रखना ही रखना है। लेकिन होता उलट है। पुरुष पीसने लगता है, एक तरफ ऑफिस में काम का प्रेशर, दूसरी और आज घर पर सास-बहुमें कुछ पंगा न हो जाए वह टेंशन..! लड़की चाहती है कि उसका पति उसपर ज्यादा ध्यान दे, लेकिन लड़का चाहता है पुरे परिवार पर वह समान ध्यान दे पाए। स्त्री चाहती है अपने पति के साथ कहीं घूमने जाना, लेकिन पुरुष चाहता है कि अपने माता-पिता ने कुछ देखा नहीं तो उन्हें भी घुमा लिया जाए। स्त्री चाहती है कुछ फैशन की जाए, लेकिन पुरुष चाहता है ससुर के सामने बहु मर्यादा में रहे। यह सब बाते ज्यादातर सगाई और विवाह के मध्यकाल में डिसकस हो चुकी होती है। लेकिन तब भी विवाह के बाद यही समस्याएं विकराल रूप लेती है। कारण, लड़की, स्त्री, नवविवाहिता.. और सहनशक्ति की कमी, और मायके का जोर.. क्योंकि बाप कहता है, बेटी मैं बैठा हूँ। वो सब पहले हुआ करता था कि ससुराल में बहु मर जाए उतना सह लेती, आज तुरंत विडिओ-कॉल होते है। क्यों? क्योंकि सहनशक्ति नहीं है। अब आप कहेंगे, की मैं सिर्फ स्त्री पर दोषारोपण कर रहा हूँ। गलत तो दो पक्षों में से एक हंमेशा रहता है। या तो सास बुरी होगी, या बहु, या तो पुरुष गलत होगा, या तो स्त्री.. लेकिन सबसे गंभीर और बड़ी दिक्कत यह है की अब कोई जरा सा भी दुःख या ताने सहना नहीं चाहता..! जरा सी भी आफत देखते ही होंसले डगमगा जाते है। चाहे पुरुष हो या स्त्री..!
पुरुष आज भी परिवार चाहता है, और स्त्री सिर्फ उसका पुरुष.. यह देखी हुई वास्तविकता है, इस लिए लिखा है। समाज में अक्सर यही उदहारण दीखते है। पुरुष को सब चाहिए, स्त्री को बस वो एक..! दोनों पलड़े समान नहीं है, ना ही शायद हो पाएंगे.. राम-सीता के प्रकरण में भी नहीं थे, तो हमारे कहाँ होंगे..?
ठीक है, आज इतना काफी है।