क्या स्त्री को बाहर निकलकर कमाना जरुरी है? || Is it necessary for a woman to go out and earn?

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मैं : तो क्या ऐसा नहीं हो सकता की पुरुष बाहर से कमाकर आता है, और स्त्री घर का काम करती है उसमे बराबरी का दोनों और से कंट्रीब्यूट हो गया.. क्या स्त्री को बाहर निकलकर कमाना जरुरी है?


प्रियंवदा : यदि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है तो ज्यादा से ज्यादा वर्कफोर्स होनी जरुरी है। और आपको उतनी ही समस्या है तो समीकरण उलट देते है, स्त्रियां बाहर जाकर कमाएं, पुरुष घर संभाले..!


मैं : स्त्रियां घर से भी तो काम करके अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकती है। और वैसे भी स्त्रियों को जब भी पावर मिली है, अनर्थ ही हुआ है। प्रधानमंत्री पद पर भी देख लीजिये। 


प्रियंवदा : और नहीं तो क्या अब पाकिस्तान दो टुकड़ो में बंट गया, अनर्थ ही तो हुआ।


मैं : तो क्या स्त्रियां वे काम कर सकती है जो पुरुष कर सकते है। exact equality होती नहीं कभी भी। 


प्रियंवदा : फिजिकल वर्क छोड़कर बताइए कौन से काम है जो स्त्री नहीं कर सकती?


मैं : वो अनर्थ के अनुसन्धान में अनर्थ हुआ तो था, भले ही दुश्मन के साथ हुआ हो, और अपने यहाँ भी तो हुआ था, जेल में डालने से लेकर जनसँख्या नियंत्रण के नाम हुए अत्याचार और बहुत कुछ.. स्त्री के हाथ में सत्ता बड़ा गड़बड़ काम है। और वही तो मुख्य तर्क है, फिज़िकल वर्क भी तो नहीं कर सकती स्त्रियां..!


प्रियंवदा : अच्छा ! मतलब बाकी सरकारों में भारत काफी फला-फुला था, खूब आगे गया, हैं न?


मैं : स्त्रियों को सलाहकार से विशेष पद पर नहीं होना चाहिए। वैसे सलाह तो मंथरा ने भी दी थी।


प्रियंवदा : अब आप प्राचीन पौराणिक पात्र ले आएँगे, तो मेरे पास भी काली, सीता, दुर्गा रूपी तर्क है। 


मैं : देखो, माता काली की ही बात ले लो, भगवन शिव को अपनी छाती देनी पड़ी थी, मतलब स्त्री शक्ति स्वरूपा है, पर अनियंत्रित। 'है भद्रकाली माफ़ करना।'


प्रियंवदा : तो फिर तो यदि शक्ति नियंत्रण की बात है तो शिव को नियंत्रण में लाने के लिए विष्णु को चक्र चलाना पड़ा था सति के शरीर पर उसका क्या? 


मैं : वो तो पुरुष है, बात हो रही थी, स्त्री की शक्ति तथा क्षमता की। वैसे स्त्रियों को घर से बाहर काम करने पर आप क्या बता रहे थे?


प्रियंवदा : नहीं, बात नियंत्रण शक्ति की हो रही थी, फिर तो पुरुषो में भी वो नहीं है।


मैं : वैसे वो शिव-सती की तो अनहद प्रेम की बात थी, बात हो रही थी माता काली के शक्ति नियंत्रण पर। सर्वनाश हो जाता। वो भूतपूर्व स्त्री प्रधानमंत्री ने भी सर्वनाश ही किया था ना, भले ही दुश्मनो का ही क्यों न हो। 


प्रियंवदा : फिर सर्वनाश की देवी को आप पूजते क्यों है? और आजकल बाहरी कामो में है क्या, शिक्षक, डॉक्टर, या इंजीनियर, प्रोफेसर, या तो आर्किटेक्ट। और क्या क्या है, इन कामो में स्त्रियां क्या अपना योगदान नहीं दे सकती?


मैं : फिर घर कैसे चलेगा?


प्रियंवदा : जैसे अभी चल रहा है। 


मैं : नहीं मेरा अर्थ था, स्त्री को प्राथमिकता किसे देनी चाहिए? अपने पुरुष को या अपने अन्य शौख इच्छाओ को? क्योंकि काम करने की उसे जरुरत नहीं है, शौख या इच्छा है।


प्रियंवदा : मेरे लिए तो मेरी इच्छाएं सर्वोच्च है।


मैं : चलो फिर काल्पनिक दृष्टिकोण देता हूँ, सारी स्त्रियां अपनी इच्छानुसार चलेंगी तो सृष्टि कैसे चलेगी?


प्रियंवदा : सबका मानना है कि कोई ना कोई कला हर व्यक्ति के भीतर होती है। अब स्त्रियों के भीतर जो कला है, यदि वह घर के भीतर काम नहीं आ रही तो वह कला का व्यर्थ जाना नहीं हुआ? और वैसे भी ना तो सारी स्त्रियां अपनी इच्छानुसार चलती है, ना ही सारे पुरुष। सबको कुछ न कुछ त्याग करना पड़ता है, लेकिन हर बार व्यक्तिगत त्याग की अपेक्षा स्त्री से रखा जाना मुझे अन्याय लगता है।


मैं : बिलकुल वह कला व्यर्थ जाएगी। लेकिन सोचिए, जिस समय पुरुष को घर के किसी काम से स्त्री की आवश्यकता है। उसी समय स्त्री को अपनी इच्छानुसार कोई काम करना है, तो क्या वह संबंध लंबा टिक पाएगा? और स्त्रियां त्याग करती है एक सम्बन्ध में तो क्या पुरुष कुछ त्यागते नहीं? यह तो एक बनी-बनाई सोच है कि स्त्री अर्थात त्याग की मूर्ति.. पुरुष क्या अपेक्षाओं का पुतला है?


प्रियंवदा : तो इस हिसाब से स्त्रियों की शिक्षा पर निवेश किया जा रहा सरकारी पैसा व्यर्थ ही माना जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षा लेकर क्या करेगा व्यक्ति अगर उस शिक्षा का कहीं उपयोग न हो पाए तो।


मैं : स्त्रियों की शिक्षा इस लिए आवश्यक है कि वह अपने संतान में गुणों का सिंचन कर सके। और नीरक्षीर की विवेकबुद्धि आए। 


प्रियंवदा : वैसे पुरुष भी बहुत त्याग करते है, सम्माननीय है। लेकिन समाज में उनकी कम से कम कोई स्वतंत्र पहचान तो होती है। घर के कामो को इतना सम्मान देना शुरू कर दीजिये, जितना बाहर के कामो को दी जाती है, तो कोई स्त्री घर से बाहर जाना नहीं चाहेंगी। समस्या यहाँ है ना कि घर के कामों को निचा समजा जाता है। एक तरफ घर आकर पुरुष कहते है कि 'तुम करती क्या हो?' और दूसरी तरफ कहते है 'तुम नहीं होगी तो घर कौन चलाएगा?'


मैं : हाँ ! यह तर्क बढ़िया था, बिलकुल सच है की पुरुष अपनी स्थिति अनुसार जरूर कहता है कि 'तुम करती क्या हो?' और फिर यह भी कहता है कि 'तुम नहीं होगी तो घर कौन चलाएगा?'.. इस मामले में पुरुषो में सुधार की आवश्यकता है। लेकिन एक बात और, वे आलसी पुरुष होते है न, वही स्त्री को कहते है कि तुम्हारे बिना घर कैसे चलेगा? क्योंकि सामर्थ्यवान पुरुष तो अपने दम पर दुनिया चला लेता है।


प्रियंवदा : मुझे तो सुधार की कोई गुंजाईश नजर नहीं आती।  


मैं : देखो वैसे शिक्षित स्त्री अच्छी समझ का निर्माण करती है। और वह स्त्री का दायित्व है, अच्छे समाज का निर्माण करना। 


प्रियंवदा : अरे वाह, दायित्व ! मुझे हँसी तो यही आती है। काहे का दायित्व? और दायित्व खाली एक पक्ष का है? पुरुषो का भी तो दायित्व होता है, पुरुष और भी तो बहुत कुछ करते है। फिर यह कैसा दायित्व है, कि स्त्री स्वयं के लिए कुछ निर्माण करे अगर.. मतलब उसका स्वयं के प्रति कोई दायित्व का हक़ नहीं है क्या?


मैं : उसका स्वयं का दायित्व है, अपने पुरुष और परिवार को संकलित रखना, खुशहाल रखना। पुरुष का दायित्व है उसकी स्त्री तथा परिवार की तमाम जरूरतें पूरी करना... इसी में सब कुछ समा जाता है। लेकिन तब भी, स्त्री की यदि अवहेलना हो रही है, तो उसे बाहर जाकर उसे साबित करने की जरुरत नहीं है। वह चाहे तो घर में ही साबित कर सकती है।


प्रियंवदा : कैसे? जिस तरह पाला, लोपामुद्रा या घोषा ने साबित किया था? वेदो को लिखने में अपना योगदान देकर। घर के अंदर तो नहीं रही थे वे, जाहिर सी बात है वे घर में तो नहीं रही थी, शिक्षा ग्रहण की होगी, शास्त्रार्थ किया है, उसके बाद उन्होंने भी अपना योगदान दिया है, उस समय समस्या नहीं थी तो यह समस्या आज क्यों उत्पन्न हो रही है? 


मैं : यह समस्या तब उत्पन्न होती है जब स्त्री के पास शक्तियां आ जाए। फिर शंकराचार्य को भी झुका देती है, और उनसे भी नेति नेति कहलवा देती है। समस्या यह भी एक है कि पुरुषों के पास पिछले कुछ शतकों में शक्तियां सामर्थ्य रहा है तो स्त्रियों को उस पद पर देखना भी ईर्ष्या से भर देता है। वैसे यह तर्क मैंने आपके पक्ष में दे दिया। 


प्रियंवदा : अरे हम तो इस व्यवस्था से पूर्णतः खुश है। सारा दिन बाहर धुप में तपना नहीं है। घर की छाँव में ज्यादा ठीक है। लेकिन जो काम घर में किए जा रहे है, उसकी उतनी मान्यता भी तो नहीं है, उससे कोई सम्मान तो नहीं मिल रहा है। सम्मान तो हर व्यक्ति को चाहिए, सम्मान देना शुरू कीजिए, हम तो खुश है घर पर, कोई दिक्कत नहीं है। वैसे वो आपने हमारे पक्ष में जो तर्क दिया वो मुझे पहले से पता है, लेकिन यह तर्क प्रस्तुत करने से पुरे समाज का पुरुष वर्ग ऑफेंड हो जाता है, और फिर चरित्र पर उतर आता है। इस लिए यह तर्क नहीं लगाया था मैंने।


मैं : वैसे द्रौपदी ने महाभारत करवाया था, यह भी तो कहा जाता है। और एक बात, यह तो आपने अनुमान लगाया है कि घर के काम करने से स्त्री को मूल्याङ्कन नहीं मिलता। हकीकत में समाज में यह भी कहा है अक्सर कि 'वो तो उसके घर की स्त्री लक्ष्मी है जो उसने संभाल लिया, वरना वह आदमी तो कचरे से भी बदतर है।'


प्रियंवदा : गए बीते जमाने की बात है यह तो। कोई नहीं कहता यह। हूँह। मजाल है कोई एक स्त्री के कामो को जरा भी सराह दे, हो ही नहीं सकता। बिलकुल नहीं। और मैंने देखा भी है यह, सारा दिन स्त्री पूरा घर का काम में  घिसती रहती है। बीमार है तो भी घर का काम कर रही है। मतलब बीमारियों में तो कम से यह बात समझना चाहिए न.. अब मान लीजिए आजकल तो छोटी फेमिली होती जा रही है, जॉइंट फेमिली का तो कल्चर ही ख़त्म होता जा रहा है। अब फेमिली में एक ही स्त्री है, और उसकी तबियत ख़राब हो गई, तो उसदिन कौन बनाएगा खाना? फिर भी स्त्री ही बनाती है। अब क्या कहा जाए? और दूसरी बात, महाभारत द्रौपदी ने करवाया था या राज्यमोह ने? एक बार पुनः सोच लीजिये। 


मैं : अंधे का पुत्र अंध, और सूतपुत्र वाले शब्द प्रयोजन का सबसे अधिक योगदान रहा महाभारत होने में। राज्य मोह तो बहुत बाद में आया। 


प्रियंवदा : यह तो पूर्णतः निर्भर करता है कि किस दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। हर किसी का अपना दृष्टिकोण है। किसी को महाभारत होने के कारणों में स्त्री दिखाई पड़ती है, किसी को राजयमोह, किसी को पुत्रमोह। बाकी जो हुआ वह तो माधव से बेहतर कौन जानता है?


मैं : आजके समय में स्त्री में सहनशक्ति की भी तो कमी है, छोटी सी बात पर भी मायके चली जाती है। और इस चर्चा में तो स्त्री के कारण महाभारत हुई वह वाजिब भी है।


प्रियंवदा : सहनशक्ति.. हम्म्म ! आप सारा दिन ऑफिस में काम करते है, और आपके बॉस आपके काम का सारा क्रेडिट दूसरे एम्प्लोयी को दे तो आपको कैसा फील होगा?


मैं : लो फिर, उसमे थोड़ा और जोड़ लीजिये, ऑफिस में फुल प्रेशर में काम किया हो, और घर पर यदि स्त्री अतिरिक्त प्रेशर दे तो क्या होगा? कूकर इसी कारण से फटता है। 


प्रियंवदा : यही बात स्त्रीओ के साथ होता है, एक तो वे पूरा दिन काम करती है, उनका मन नहीं है, उनकी तबियत खराब है, या जो भी सर्कम्स्टैन्सिस है, फिर भी उन्हें काम करना पड़ता है। और उसके बाद भी यह कहा जाए की तुम क्या करती हो, यह तुम्हारा घर नहीं है, ससुराल है। और ससुराल मतलब आप नौकरानी है इस घर में, यह फील कराया जाता है। दायित्व की बात अलग है, अपने घर में काम करना इस वैरी गुड, कोई दिक्कत नहीं है, अपना घर है, सब काम करेंगे, पर यह फील कराया जाता है कि यह आपका ससुराल है, और ससुराल में आपको काम करना है तो ढंग से करना है। कोई गलती नहीं करनी है। और उस ताने अलगसे पड़ते है तब कूकर यहाँ भी फट जाता है। देखिये वैसे इस चर्चा का कोई निष्कर्ष - तोड़ नहीं निकलने वाला है। क्योंकि आपके पास अपने तर्क है, मेरे पास तर्क है बचाव में। क्योंकि दोनों तर्कों के कोई काट नहीं है। इसका सीधा सा निवारण यही है की दोनों पक्ष एक दूसरे की समस्याओं को समझे, और उसको एडमिट करे, बजाएं उसके कि नहीं मेरा काम बड़ा है, वो कहे नहीं मेरा काम बड़ा है। अगर दोनों ही ऐसा कहे की आप ज्यादा मेहनत करते है.. वो कहे आप ज्यादा काम करते है। समस्या ही नहीं आए फिर। 


मैं : यह बात तो स्वीकार्य है कि कईं घरो में सासु बड़ी क्रूर होती है। लेकिन बहु भी उस सासु के समकक्ष आ जाए फिर? दो स्त्री के अहं में पुरुष ख़ामख्वा पीस जाता है। और बात या मुद्दा यह था कि स्त्री के पास इतना समय कैसे बच रहा है कि घर के काम के बाद नौकरी या और कुछ काम करना चाहती है..!


प्रियंवदा : हाँ उस स्थिति में तो पुरुष पीसता है। लेकिन हम स्त्रियों को अगर किसी फिल्ड की शिक्षा ग्रहण करने का मन हो तो? उदहारण के लिए डॉक्टर। 


मैं : फिर वही बात सिद्ध हुई कि स्त्री शक्ति है। और पुरुष सहनशक्ति।


प्रियंवदा : विक्टिम कार्ड खेलिए आप तो। 


मैं : अरे स्त्री को अब डॉक्टर क्यों बनना है भला? घर में ऑपरेशंस करेंगी? देखिए कार्ड सारे है मेरे पास, समय समय पर उतारे जाएंगे मैदान में।


प्रियंवदा : आप अपनी स्त्री के लिए फीमेल गायनेक कहाँ से लाएंगे फिर ?


मैं : हाँ ! यह तर्क स्वीकार्य है। लेकिन फिर वो डॉक्टर घर संभालेगी? या फिर नौकरानी रखनी पड़ेगी। 


प्रियंवदा : क्यों नहीं ? और नौकरानी रखने में क्या समस्या है? कहीं उसपर दिल न आ जाए इस बात का डर है?


मैं : अच्छा, फिर बच्चे नौकरानी बड़े करेंगी? और नौकरानी पर दिल ? टेस्ट नाम का भी कउनो चीज़ होता है भई !


प्रियंवदा : पुरुषो के टेस्ट को आजतक कौन समझ पाया है। देखिये डिबेट तो शुरू हुई थी इस बात पर की पुरुषो को भी घर के कामो में सहयोग करना चाहिए, पर यहाँ तो खैर डिबेट इसी बात पर छिड़ी हुई है की स्त्रियों को घर के कामो के अलावा भी कोई काम करना ही क्यों चाहिए?


मैं : अरे यह तो आप पुरुषो के प्रति कैरेक्टर सर्टिफिकेट कार्ड फेंक रही है। देखिये स्त्री के लिए होममैनेजमेंट से बड़ा काम क्या हो सकता है? घर में ही वह चाहे तो उसे पलभर की फुर्सद न मिले, उत्तर गुजरात में बनासकांठा डिस्ट्रिक्ट में स्त्रियां महीने दो लाख से ज्यादा कमाती है। और रही बात पुरुष की तो पुरुष घर में क्या काम कर सकता है?


प्रियंवदा : ऐसा क्या काम करती है वे स्त्रियां? और पुरुष घर से दूर रहकर जो काम करते है वे ही घर पर करें। 


मैं : पशुपालन। भैंस रखती है पन्द्र-बिस। और वे महीना हुआ, पैसे हाथ में आए, तुरंत सुनार के पास। गले के बड़े बड़े हार बनवाती है। अगर पुरुष आर्थिक रूप से कमजोर हुआ तो आर्थिक योगदान और समर्थन कर सकती है। वो भी घर में ही रहकर।


प्रियंवदा : फिर तो मैं भी भैंस ही पाल लूँ। वैसे जिन स्त्रियों को गले के हार से ज्यादा नाम की चाहत हो उनका क्या?


मैं : तो क्या घर बैठे नामना नही होती? आज कई सारे मीडिया इंटरव्यूर उन पशुपालक स्त्रियों का इंटरव्यू लेते है, तो क्या वह भी एक नामना नही हुई?


प्रियंवदा : उनमे से कितनो के नाम पता है आपको?


मैं : देखो एक बात तय है, पुरुष स्त्री के सारे काम कर सकता है, स्त्री नही। यदि पुरुष स्त्री के भी सारे काम करने लगेगा फिर स्त्री का अस्तित्व और उपयोगिता दोनो ही खतरे में आ जाएंगे।


प्रियंवदा : हमे कोई चिंता नही, आप करिए सारे ही काम।


मैं : अरे लेकिन हमें (पुरुषों को) स्त्री चाहिए। बस हमारे नियंत्रण में होनी चाहिए। फिर हम भी शिव की तरह छाती पर चरण सहने को तैयार है। बस वह स्त्री कालिका की तरह रुकनी चाहिए। क्योंकि आजकल स्त्री एक जगह रुकती नही, किसी नही क्षेत्र में।


प्रियंवदा : यह आखरी लाइन ताने जैसी क्यों लग रही है?


मैं : अब ताना समजिये या तर्क.. सत्य है कि नही आप वो बताइये।


प्रियंवदा : अर्धसत्य ! और हम स्त्रियों को भी कौन सा स्त्री चाहिए हमें भी तो पुरुष चाहिए हम भी तो अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हैं फिर । और हम तो वैसे भी स्त्री हैं एक मतलब एक उसके बाद दूसरा नहीं।


मैं : नही होता है वो भी आजकल। क्योंकि स्त्री थोड़ी ज्यादा ही शिक्षित है। एक पर ही निर्भर नही रह सकती। रात में बनी भिंडी के कारण पति ने कुछ कह दिया तो सुबह मायके के लिए पेकिंग हो जाती है।


प्रियंवदा : खाली भिंडी के लिए कभी पैकिंग नहीं होती, बहुत सारी चीजें होती हैं जो पुरुष कभी जान ही नहीं पाते।


मैं : अरे यह भी अच्छा मुद्दा याद दिलाया, स्त्रियां अक्सर यह कह के भी रूठ जाती है कि आप नही समझेंगे.. कसम से पुरुष खुद के बाल नोंच लेता है इस प्रसंग पर तो।


प्रियंवदा : जैसे Mrs वाली मूवी में पति को तो लग रहा होगा कि शिकंजी बनाने पर विवाद हुआ, पर असल में तो कितनी सारी बातें थीं। पुरुष सच में नहीं समझते।


मैं : अरे लेकिन पुरुष कोई अंतर्यामी थोड़े है कि वह मन की बात जान लेगा। बिना बताए तो माँ भी खाना नही देती।


प्रियंवदा : नहीं, स्त्रियों को पेट की बात भी पता चल जाती है।


मैं : जैसे पुरुष पसीना बहाते है, संकट सहते है, वैसे ही स्त्री को रिश्तों में, परिवार के सब सहना है, लेकिन स्त्री रोती है।


प्रियंवदा : और पुरुष केवल अपने पैसे कमाने का धाक दिखाते हैं, रोते नही !


मैं : जो भी कहिए, लेकिन पुरुष का धर्म है अर्थ को पोषित करना। स्त्री का धर्म है रिश्तों को पोषित रखना।


प्रियंवदा : बेकार तर्क, नहीं, बेकार नही बकवास तर्क।


मैं : कैसे? तो क्या आप मानती है कि सीता को लवकुश का पालनपोषण नही करना चाहिए था, और राम से प्रतिशोध लेना चाहिए था।


प्रियंवदा : अरे कहाँ की बात कहाँ पहुचा दी? सीताजी ने अच्छे से लालनपालन किया है अपने पुत्रों का। लेकिन वे वशिष्ठ आश्रम में और भी लोग थे, सीताजी सबकी सेवाएं करती थी, जंगल से लकड़ियां भी लाती थी, और सारे काम भी तो करती थी, मात्र पालनपोषण तक सीमित न रही थी। गुरुमाता सेवादि प्रवृतियों में भी कार्यरत थी।


मैं : उद्देश्य तो बालक के पालन पोषण का ही था न? वो निर्वहन के लिए लकड़ियां वगेरह काटना होता था। नौकरी नही की उन्होंने।


प्रियंवदा : उनके परिवार से केवल वे ही थी तब, उनके अलावा और कौन करता? यहाँ बात तब की हो रही है जब दोनों स्त्री और पुरुष घर में मौजूद हो।


मैं : स्त्री नौकरी करें तो स्वच्छन्द हो जाएगी, ऐसी भी तो संभावना रही है।


प्रियंवदा : तो स्त्रियों की स्वच्छन्दता क्यो नही स्वीकार्य है समाज को?


मैं : इसका जवाब कैसे दूँ भला? देखो स्त्रियां जब भी स्वच्छन्द हुई होगी तब कुछ न कुछ अनचाहा हुआ होगा शायद।


प्रियंवदा : तो पुरुषों के स्वच्छन्द होने से भी क्या ही भला हुआ है समाज का? आज भी तो पुरुषसत्ता ही तो है समाज मे।


मैं : भला तो पुरुषों के राज में ही होता है, स्त्रियों के राज में आपातकाल हो जाता है।


प्रियंवदा : सिंधु घाटी सभ्यता भी तो मातृ सत्तात्मक मानी जाती है, वहां तो कोई युद्धों के साक्ष नही मिलते।


मैं : मातृसत्तात्मक बहुत सा भूभाग भारत मे भी रहा ही है। लेकिन वह ज्यादा चल नही पाया। और वह सिंधु घाटी सभ्यता केंद्र नही थी, युद्ध के साक्ष्य केंद्र में मिलते है। भूगर्भ में समा गया थी पूरी सभ्यता शायद। स्त्रियां राज्य नही कर सकती वैसे उनके राज्य में कोई समस्या नही है क्योंकि घर मैनेज कर सकती हो वो देश भी कर ले.. लेकिन पुरुष अपनी महानता दिखाना चाहता है।


प्रियंवदा : हाँ तो ऐसा कहिए ना.. मान लिया ना आपने भी।


मैं : अरे मतलब मैं स्वीकार नही कर रहा, बस चर्चा की लपटों में फूंक मार रहा हूँ।


प्रियंवदा : बुझाने के लिए?


मैं : हां शायद... क्योंकि अब आपके तर्क मंद हो चुके है, मेरे भी.. क्योंकि काफी खींच चुका है विषय, और विषय से संबंधित बाते भी।


|| अस्तु ||


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