सालो में एक बार आता है रुगा..
समय हो रहा है रात्रि के बारह बजकर दो मिनिट, और अभी दिलायरी लिखने बैठा हूँ, मतलब सोया हूँ, अरे मतलब की लेटे लेटे लिख रहा हूँ। अभी तक पुराने मित्रों के साथ दुकान पर बैठे ठहाके लगा रहे थे.. अभी शायद कल-परसो की दिलायरी में ही गजे और पत्ते को याद किया था.. आज गजा, पत्ता, रुगा भी आ गया..
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Taang khinchai ke maje lete Dilawarsinh.. |
मौसम ने कल जबरजस्त करवट ली
शुरू से शुरुआत करता हूं। सुबह ऑफिस पहुंचते ही याद आया, सरदार तो छुट्टी पर गया है। काम मे बस एक गाड़ी खड़ी थी जो कि शाम तक फाइनल होनी थी। तो सुबह कुछ देर हिसाब किताब में समय गया, लगभग दसेक बजे के बाद बुधे का भी फोन आया कि उसकी तबियत खराब है वो नही आएगा। चलो ठीक है, वैसे भी आज उतना काम था नही। फिलहाल अभिलेख भी नही पढ़ रहा, बस रिल्स और शॉर्ट्स देखने मे समय व्यतीत हो जाता है।
और आजकल तो रिल्स भी वो शेरो-शायरी या कविताएं वाली आती नही। या तो फनी होती है या तो वल्गर..! शॉर्ट्स में ज्यादातर मूवी-सारांश आते है, तो वो ज्यादा देखता हूँ। दिनभर इसमें कब निकल जाता है याद नही रहता। वैसे मौसम ने कल जबरजस्त करवट ली.. सुबह चार-पांच बजे तो रजाई ओढ़नी पड़े ऐसी ठंड लगने लगी थी। और आज दिनभर मौसम भी ठंडा रहा, दोपहर को भी।
दोपहर को मुझे मार्किट में थोड़ा काम था, अकेला तो मैं जाता नही हूँ। गजे को भी साथ उठाया.. वैसे आजकल दोपहर को भूख नही लगती है। पहले गया एटीम, पहला काम यही था कि थोड़ा रोकड़ा निकालना था। वो तो तुरंत हो गया। फिर गया मेडिकल पर, कुछ रनिंग टेबलेट्स लेनी थी, घाव सूखने की, पेनकिलर्स, झुकाम, मूव स्प्रे, बैंडेज.. मिल पर खास जरूरत पड़ती है इन टेबलेट्स की। लेबर हररोज कुछ न कुछ चोट लगवा लेती है। तो यह सब फर्स्ट एड हम रखते ही है। उसके बाद गया स्टेशनरी। कवर चाहिए थे मुझे, शगुन डालने वाले.. वो ले लिए। फिर सोचा अब कुछ नाश्ता किया जाए, लेकिन मेरा और गजे का सूर से सूर मिलता है बड़ा, हम दोनों को ही भूख न थी।
तो वहां से डेरी (Dairy), घर के लिए घी चाहिए था.. भाईसाहब महंगाई अनुभव होती है.. कुछ दिनों पहले छःसो का किलो था, आज सीधा साढ़े सातसौ..! लेकिन यह तो जरूरी चीज है, इसका कोई ऑप्शन है नही, ना ही हो सकता है हमारे जीवन मे। यह तो वास्तव में अब शहरी जीवन मे उतनी शारीरिक मेहनत का काम होता नही है, वरना गांवों में तो घी पीने की शर्तें लगती है आज भी। यह सब घर देने भी तो जाना था, रास्ते मे गन्ने का रस वाला खड़ा रहता है।
गन्ने का ज्यूस नही कहा जाता, मैंने कुछ लोगो को गन्ने का जूस बोलते सुना है, गन्ने का रस होता है, रस ही सूट करता है। वहां मैं और गजा दोनो ही तैयार हो गए। रस वाले से कहा, 'बिना बर्फ के दो ग्लास भर दे..' अगले ने पहले ही मिला रखा था, बोला, 'बर्फ डाली नही है लेकिन नॉर्मल ठंडा है, चलेगा?' एक एक ग्लास गटक गए, काफी ठंडा था। एक-एक और ग्लास पचा लिए। और फिर मेरे घर की ओर निकल पड़े। घर सारा सामान पकड़ाया और फिर से ऑफिस की ओर।
किसी न किसी की टांग इतनी खींची जाती है
दोपहर बाद बस टाइमपास ही किया है। और क्या करता, काम ही तो न था कुछ। अब नींद आने लगी है, साढ़े बारह बज गए, बाकी कल सुबह ऑफिस जाकर लिखूंगा। हांजी तो ऑफिस पहुंच गया हूँ। कंटीन्यू करते है। दोपहर बाद नींद आने लगी.. झुकाम जैसा अनुभव होने लगा.. सर थोड़ा भारी होने लगा.. और शाम होते होते तो लगा कि झुकाम हो ही जाएगा.. लेकिन घर पहुंचा, आज खाना बाहर खाने का था, एक पड़ोसी के यहां प्रसंग था तो वहां भोजन करना था..! वहां पार्टी में पहुंचा तो रूगा दिखा.. सालो में एक बार आता है रुगा..!
फिर भोजनादि से निवृत होकर दूकान चले गए.. काफी दिनों बाद पुराने यार दोस्तों में बैठने का मजा अलग है। किसी न किसी की टांग इतनी खींची जाती है जब तक वह खड़ा न हो जाए.. आज यह खींची जाने वाली टांग पत्ते की थी। मैं और रूगे ने खाना खाकर दूकान पर पहुंचे, और वहां बैठे, कुछ देर में गजा भी आ गया.. काफी सारी बाते हुई, खेती, नमक, यही सब विषय में..! फिर पत्ता भी आया। पत्ते ने अपनी शादी में इन्विटेशन के कार्ड के अलावा विडिओ बनवाया था। उसने कुछ मित्रो को कार्ड के बदले विडिओ भेज दिए थे, रूगा उनमे से एक था। हालाँकि समस्या यह हुई की रुगे ने विडिओ में गणपति देखकर पूरा विडिओ देखा ही नहीं। और सोच लिया की कोई भक्ति विडिओ है, गुड-मॉर्निंग टाइप का। जबकि वह शादी का इन्विटेशन कार्ड था। तो रूगा आया नहीं था।
रुगे की खुद की शादी में हम यार दोस्त तीन दिन पहले से पहुँच गए थे। अब पत्ता जब भी मिलता है, उसका उन यारो को चिढ़ाने का मुख्य मुद्दा यही होता है कि, 'देख लिया सालो, मैं तुम्हारे वहां तीन दिन से था, और तुम मेरे यहां एक दिन भी न आ सके।' लगभग आधे घंटे तक यही सब टांग खिंचाई चलती रही। और फिर मेने पक्ष-पलटा किया। और रुगे को बताया कि 'पत्ता अब हररोज मदिरापान करता है। जो एक समय पर गजे की हालत थी आज वो पत्ते की है।' बस फिर क्या था, पत्ते की बारी आ गयी.. शुरुआत यही से हुई कि, 'देख लियो सफरजन, ज्यादा पीकर घर मत जइयो, ड्रम तो तेरे घर में होगा ही, और सीमेंट भी तुम्हारे बाजू में मकान का काम चालू है तो वहीं से मिल जाएगी..' और फिर तो पत्ता क्या चिढ़ा है।
रणक्षेत्र में सरकारी तंत्र उतना ध्यान भी नहीं देता
फिर उसकी टांग-खिंचाई कुछ ज्यादा ही होगयी तो मैंने फिर पक्ष-पलटा किया। अब सारा मामला डाला गया गजे पर। 'यह स्टिकर वाला सफरजन है, घर से बाहर निकलने में परमिशन लेनी पड़ती है इसे।' और फिर आधे घंटे गजे पर ठहाके लिए गए। अब बचा सिर्फ मैं ही था.. मेरी बात आए उससे पहले मैंने बात बदल दी। थोड़ा गंभीर होकर कहा, 'वो आपके उधर नमक का अगर शुरू हुआ था उसका क्या हुआ?' बात ऐसी है, रुगे का गाँव कच्छ के बड़े रण के किनारे लगता है।
नमक उत्पादन हो सकता है वहां, लेकिन बात वहीं अटकी पड़ी है की नमक उत्पादन में पर्मिशन्स बहुत लगती है। क्योंकि रन क्षेत्र तो सरकारी जमीन हुई। सरकारी जमीन में बगैर अनुमति कुछ कर भी नहीं सकते। लेकिन तब भी रन के किनारे बसे बहुत से गाँव नमक पकाते है। जमीन में बोरवेल करवाते है। लगभग तीनसौ फिट निचे बोरवेल होता है तब पानी निकलता है। उस पानी के बड़े बड़े क्यारे कर दिए जाते है। और वह पानी सूख कर नमक बन जाता है। हालात अब तो ऐसे है की पानी तीनसौ फिट निचे चला गया है।
आशंका है कि किसी दिन पूरा रन निचे बैठ जाएगा.. बोर ही बोर बन गए है। हर किसी ने पानी खोजकर बोर बनवाये है। सरकारी तंत्र जब जागता है तो कार्यवाही करता है। लेकिन इस रणक्षेत्र में सरकारी तंत्र उतना ध्यान भी नहीं देता है। यहाँ आजीविका का साधन या तो बरसाती खेती है, या फिर यह नमक.. इसलिए सरकार सब जानते हुए भी आँखे बंद रखती है।
लगभग बारह बज गए यही सब बातचीतों में..! फिर हम लोग उठे, और अपने अपने घर के लिए चल दिए।
शुभरात्रि।
(२८/०३/२०२५)
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प्रिय पाठक,
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शुक्रिया,
आपका — दिलावरसिंह
समाज में लगभग तो सफरजन ही घूम रहे हैं 😂
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