शांतिपूर्ण आंदोलन वास्तव में शांतिपूर्ण बहुत कम ही रहा है || दिलायरी : १९/०४/२०२५ || Dilaayari : 19/04/2025

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प्रियंवदा ! फिर से एक और बगैर काम का शनिवार.. 

सुबह से मैंने बस एक ही काम किया है, गूगल मैप्स पर घूमता रहा, एक गांव से दूसरे गांव.. एक इमारत से दूसरी इमारत। पता नही पिछले कुछ दिनों में ऐसे स्थापत्यो में खूब दस हुआ है, डिजाइनिंग बड़ी पसंद आती है। वाव (बावड़ी) की बनावट कितनी सुंदर होती है.. बे बूढ़े हो चुके गढ़ किले, अपनी भव्यता पर वातावरण के धब्बे लिए बैठे वे पुराने दरबारगढ़.. जो है तो अमूल्य, लेकिन खंडहर का मूल्य कौन चुकाए? समय बीतने के बाद अक्सर कीमत सबसे पहली गिरती है। दिनभर बस मैप्स चलाता ऑफिस में बैठा रहा था। 

Dilawarsinh ! Writes a Dilaayari..

कोई भी शांतिपूर्ण आंदोलन वास्तव में शांतिपूर्ण बहुत कम ही रहा है

दोपहर भी गई, शाम भी गयी..! न कुछ विचारविमर्श हुआ, न कुछ नया पढा, न कुछ नया जाना.. हाँ कुछेक बाते दिमाग मे बैठी है जिनका निराकरण करना था लेकिन हो नही पाया। घर आकर ग्राउंड में इसी लिए गया था कि एक गढ़ है उसकी विस्तृत माहिती खोज पाऊं, लेकिन नही, पत्ते ने बस फालतू की बातें करवाई है। खेर, एक दो मुद्दे जो टीवी न्यूज में चल रहे थे और थोड़ी बहुत मेरी नजर गयी थी उसे ही आज समाविष्ट कर लेता हूँ। हम लोग जब भी विरोध प्रदर्शन करते है तो वह उग्र तथा विनाशकारी ही हो जाते। शांतिपूर्ण या वो गांधी कहे मार्ग पर हमने कभी विरोध प्रदर्शन किया ही नही। अक्सर आंदोलन छोटी बातों पर भी उग्र हो जाते है। जैसे वो राणा सांगा पर निवेदन के बाद, या फिर मुर्शिदाबाद वाला भी.. हालांकि मुर्शिदाबाद में तो बांग्लादेश एंगल भी जुड़ता है, लेकिन तब भी कोई भी शांतिपूर्ण आंदोलन वास्तव में शांतिपूर्ण बहुत कम ही रहा है। वो किसान आंदोलन में भी तो लाल किले तक हल्ला हो गया था।

औरंगज़ेब समझकर बहादुरशाह झफर की तस्वीर पर कालिख पोत दी

कहीं पर कुछ विरोध कर रहे लोगो ने औरंगज़ेब समझकर बहादुरशाह झफर की तस्वीर पर कालिख पोत दी। हाँ, वैसे मुगल शासक एक से ही दिखते है, इस कारण से गलती तो हो सकती है, लेकिन जब उनसे पूछ गया कि बहादुरशाह ज़फ़र को जानते हो तब उन्हें नही पता था, बहादुरशाह का क्या योगदान रहा था। 1857 में जब पहली क्रांति हुई थी वह सैनिकों ने की थी। सैनिक बागी बनकर निकल पड़े थे। वे लड़ने को तो तैयार थे पर उनके पास कोई नेता नही था। वगैर नेतृत्व के दिशानिर्देशन के आभाव में वह क्रांति तुरंत ही कुचल दी जाती। तब उन सैनिकों ने बहादुरशाह ज़फ़र को अपना नेता चुना। बहादुरशाह शुरू में तो मना करता रहा लेकिन जब वह मैदान में उतरा था तो फिर उसने पांव पीछे भी नही किये थे। हार न हुई तब तक डटकर लड़ा था। इस लिए बहादुरशाह ज़फ़र को याद रखा जाना चाहिए। मुग़ल था, लेकिन अपनी राज्यसत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिए संघर्ष में उतरा था, कम से कम उसके संघर्ष को तो सम्मान देना चाहिए। 

बाकी आज की दिलायरी यहीं समाप्त करते है, और कुछ बाते आ नही रही मनमे।

शुभरात्रि।
(१९/०४/२०२५)

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