आज बड़ा ही बेकार रविवार रहा || दिलायरी : २०/०४/२०२५ ||

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आज से गर्मी का नया रूप शुरू हो चुका है

ऋतु..! प्रियंवदा, आज से गर्मी का नया रूप शुरू हो चुका है। इतने दिन तो लू भरे पवन चल रहे थे, भरपूर अग्निज्वाला से युक्त। जैसे रोम रोम जलाने को तत्पर हो। लेकिन आज जब दोपहर को घर आ रहा था तो गर्मी से ज्यादा आर्द्रता थी.. भेजयुक्त गर्मी कहते होंगे हिंदी में? पता नही, लेकिन वो वाली गर्मी जिसमे आपको जरा भी आराम नही मिल सकता, समन्दर नजदीक के क्षेत्रों में बहुत अनुभव होती है। साहित्यिक वर्णन करूँ तो वर्षा के लिए समंदर अपना कपाट खोल चुका है। सुबह नौ बजे ऑफिस था, पड़ोसी का पेंडिंग चल रहा काम निपटाना अब जरूरी हो चुका है। जैसे जैसे अप्रैल खत्म होने आएगा, पड़ोसी के काम का प्रेशर मुझ पर बढ़ने वाला है। तो लगभग साढ़े ग्यारह तक मे मैनुअली पाँचसौ से ज्यादा एंट्रीज चढ़ानी थी, समयसर काम निपट गया।



गजे का फोन आया, 'अपनी ऑफिस पर भी पधारो सा..' अपने यहां तो फिक्स था, तीन बजने तय थे, बज गए बगैर रोकटोक के। हाँ थोड़ा हो-हल्ला जरूर हुआ था, लेकिन कंट्रोल्ड था। दुनिया मे कोई भी काम दो तरीके से होते है, या तो लालच से या तो धाक-धमकी से। आज भी। काम करवाने का यही तरीका है। फिर भी कुछ लोग होते है, अपनी मर्जी से काम करने वाले, लेकिन वे अपना एटीट्यूड लेकर चलते है वे लंबी दूरी तय नही कर पाते। एटीट्यूड दिखाने का एक तरीका, एक समय होता है। समय पर चोट मारी जाए वही लोहे को मजबूती देती है। लोहा और चोट दोनो ही रूपक है। लगभग साढ़े तीन को घर पहुंचा था। पिछले एक सप्ताह से रोड का काम शुरू है तो घर जाने के लिए आगे घूमकर आना-जाना करना पड़ता है। 


आज बड़ा ही बेकार रविवार रहा, 

न ही मोटरसायकल की धुलाई हुई, न ही नाई का अमोलख ज्ञान पाने का अवसर प्रदान हुआ। कुँवरुभा को कुछ देर बगीचे ले गया था, वहां झूले वगेरह होते है तो उनका खेलना कूदना हो जाए, लेकिन वे साहबज़ादे भी अलग एटीट्यूड में चलते है। वहां बगीचे में दो श्यामवर्णी रूपललनाएं रील बना रही थी। अपने श्यामवर्ण से मद्भग्न होकर मुख को गौर करने के उनके भरचक प्रयासों की फरियाद करता सफेद पावडर श्याम मुखारविंद पर स्पष्ट चमक रहा था। क्या जरूरत है भला गोरा होने की? पुरुष को रिझाने के लिए रंग कभी भी महत्वपूर्ण नही रहा है। और मुझे तो यह रील बनाने वाले कभी समझ न आये, वे लिपसिंकर..! काव्यपाठ हो गया, कोई ज्ञानवर्धक बात हो गयी, या कोई हंसी ठिठोली की बात अलग है, लेकिन यह फिल्मी गानों पर लिपसिंक करके बनाई गई रील का उद्देश्य क्या है? न तो यह किसी के काम आती है, न ही इससे कोई मनोरंजन होता है। लेकिन नही, छपरी लड़कियां पहली बार रूबरू देखी थी मैंने। ऑफशोल्डर ब्लेक टीशर्ट, वाइट पेंट वो भी एकदम टाइट.. चमड़ी न हिल पाए पैरों की। पेंट की पिछली जेब मे रखा हुआ आधा बाहर को झांक रहा एंड्राइड.. पक्का ओप्पो-वीवो की कास्ट का रहा होगा। दूसरी कन्या तो और पक्के रंग की, और ज्यादा चमकता श्वेत पावडर, फोन को जमीन पर रखकर लिपसिंक को प्रयासरत थी वे दोनों..! कुँवरुभा भी बोल पड़े 'ढगला नो ढ..'


रूठी रानी से पत्ते का फोन आया था...

शाम को घर की छत पर बैठे दिलायरी शुरू करने की सोची ही थी लेकिन नही लिख पाया। क्योंकि रूठी रानी से पत्ते का फोन आया था, उठाते ही बोला, 'दोपहर को फोन किया था मैंने, उठाया नही कोई बात नही, कालबैक भी नही किया? अगर तुम अपने आप को बड़ा काम करने वाला मानते हो और दोस्त के लिए समय न हो तो हम भी कोई फ्री नही बैठे है तुम्हे फोन करने के लिए।' और उसने काट दिया.. जब मेरा जवाब सुनना ही नही था तो भाई व्हाट्सप्प पर ऑडियो नोट भेज देता। अपनी अपनी सुनाकर फोन काट देना, यह तो रूठी रानी वाला ताल है। खेर, मैं उसकी आदत समझता हूँ। मासिक में आई स्त्री जैसा स्वभाव हो जाता है उसका, काटने को दौड़ पड़े। बस छेड़ो मत उसे, अपने आप दो दिन बाद गाड़ी पटरी पर आ जाती है। पुराने मित्रों की सारी आदते याद हो जाती है। अभी ग्राउंड में लिखने बैठा था तो वह आया, कुछ देर चुपचाप बैठा, कोई बात किये बिना बैठा, फोन चलाया और चल दिया.. मैने भी बुलाया नही। बुलाता तो डस लेता..! 


ठीक है, आज इतना ही हुआ था बताने लायक प्रियंवदा। बाकी कल की कल देखेंगे, अभी तो शुभरात्रि।

(२०/०४/२०२५)


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