प्रियंवदा ! प्रेम हो या राजनीती, फूंक फूंक कर कदम भरने चाहिए.. दोनों में ही बड़ा खतरा है। इज्जत से लेकर जान का खतरा..! क्योंकि दोनों में ही लोग एक पक्ष चुनते है। प्रेम के भी कई स्तर होते है, एक्सट्रीम से लेकर वन साइडेड तक.. राजनीती के भी स्तर है, लेकिन इस स्तर ने हर प्रत्येक व्यक्ति को बाँध लिया है। यह है सेंटर, लेफ्ट टु सेंटर, फार लेफ्ट या एक्सट्रीम लेफ्ट तथा राइट टु सेंटर, फार राइट या एक्सट्रीम राइट में बंधा हुआ प्रत्येक भारतीय।
प्रियंवदा, अपने प्रिय देश में अभी एक ही मुद्दा जोरो से छाया हुआ है, वक़्फ़ संशोधन बिल.. इस एक नियम के चलते देश ने वह देखा जो कभी 'डाइरेक्ट एक्शन डे' के नाम पर हमने सुना था। एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म को टारगेट किया गया। सीधा ही कह देता हूँ, मुस्लिमो द्वारा हिन्दुओ को टारगेट किया गया। वक़्फ़ संशोधन में मुख्यतः कुछ मुद्दे है, एक तो प्रबंधन और नियंत्रण पर संशोधन है, दूसरा कोई अपनी संपत्ति वक़्फ़ को देता है तो उस संपत्ति में तलाकशुदा स्त्री या यतीम बच्चो का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, और वक्फ में संपत्ति देने वाला व्यक्ति कम से कम पांच साल से इस्लाम का पालन करने वाला होना चाहिए। इनके अलावा वक़्फ़ को जिला कलेक्टर से अनुमति चाहिए होगी, अर्थात कलेक्टर का हस्तक्षेप रहेगा वक़्फ़ संपत्ति में। वगैरह वगैरह संशोधन है। लेकिन हुआ क्या? मुर्शिदाबाद... बंगाल की बाई जी क्या कर रही है अपने क्षेत्र में? अपने देश का एक नाम हिंदुस्तान भी है, और यहां हिन्दुओ का ही उत्पीड़न हो, यह तो कैसे चलेगा? मंदिरो से बाहर लाकर मूर्तियों को नष्ट करने वाली मानसिकता आज भी भारत में जीवित है। कंगलादेश का अनुकरण हो रहा है, होना ही है, वह पूर्वी बंगाल था यह पश्चिमी बंगाल.. है तो बंगाल ही। लेकिन बाई जी भी कर कर के क्या करेगी, 'हंबा हंबा रंबा रंबा कंबा कंबा, धुंबा धुंबा बुंबा बुंबा बंबा बंबा..' केंद्र सरकार श्री मेहनत कर रही है बाहर के देशो से प्रताड़ित हिन्दुओ को भारत में शरण दी जाए, और भारत के ही भीतर हिन्दू पर होते हमलों का क्या? छप्पन की छाती में पंचर पड़ गया है अब। 'पंचर'।
महान्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया.. एक दिन इन्होने राम के अस्तित्व पर ही साक्ष्य मांग लिए थे। अब इन वक़्फ़ अधिनियमों पर फैंसले देने वाले है। चचाजान ! बात की गेहराइओ को समझिये। किसी दिन इस महान्यायपालिका की भूमि पर ही वक़्फ़ अपना दावा कर देगा तब जगियेगा क्या? संसद से लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय भी वक़्फ़ भूमि विवादों में आ चुके है। समानता का अधिकार पूर्णतः पालन कौन करवाएगा? यदि आपश्री हज की यात्रा के लिए पैसे देते है तो अयोध्या, सोमनाथ, केदार, रामेश्वर के यात्रिको को भी पैसे दीजिए, समानता का अधिकार तो यहाँ भी होना चाहिए। कि नहीं? भाई पलड़ा बराबर रहना चाहिए। यही आपको सुनिश्चित करना है। यदि बंगाल से हिन्दू पलायन कर रहे है तो वहां न्यायपालिका सामने से हस्तक्षेप क्यों नहीं कर रही? क्या वहां समानता का अधिकार नहीं है? अरे यह सब छोड़िये, मुझे तो यह समझाइये कि मंदिर में बैठी एक मूर्ति ने किसी का क्या बिगाड़ा था? उसे मंदिर से बाहर निकालकर क्यों तोडा गया? यह तो वो वाला मामला है प्रियंवदा कि बात निकली है तो बड़ी दूर तलक जाएगी.. प्रियंवदा, प्रेम भी बड़ा भारी होता है, वजनी होता है। अक्सर लोग प्रेम के भार तले दबे जाते है, कुचले जाते है। लेकिन प्रेम की ताकत के नाम पर चुपचाप सह लेते है। क्योंकि उन्हें प्रेम दिखाई पड़ता है इस भार में भी.. फिर चाहे व्यक्तिगत प्रेम हो, धर्म के प्रति प्रेम हो, या फिर मेरी तरह आकर्षण हो प्रत्येक सुंदरता का।
ऐसा ही भार शिक्षा में अनुभव होता है। कुँवरुभा प्लेस्कूल जाते है, आजकल LKG - UKG कहते है, हमारे समय में शिशुमंदिर कहा जाता था। अभी से १०० पेजेस की आठ पुस्तके दिलवाई है, इतने छोटे बच्चो से चड्डी की चेन नहीं खुलती और इनके कंधो पर अभी से शिक्षा का इतना वजनी भार डाल दिया जाता है। जैसे जैसे बड़े होते है, किताबो के पन्ने १०० से बढ़कर २०० तक हो जाते है, फिर उससे आगे तो मोटे ४०० पेज के भारी थोथे का स्वरुप धारण कर लेती है यह किताबे..! चलो यहां तक तो ठीक है, लेकिन फिर यह लगभग नौ-दस किताबों की किम्मत परीक्षा के बाद शेरमार्केट से भी ज्यादा तेजी से टूटती है, डेढ़सौ-दोसो से सीधा चार रूपये किलो.. यह क्या रिवाज हुआ भला..? सालभर जिन्हे कंधो पर ढोया है, परीक्षा ख़त्म होते ही उनका कोई मूल्य नहीं? ज्ञान की बात नहीं कर रहा हूँ मैं, कहीं कोई इसमें ज्ञान का हवाला देते कह दे कि, 'किताबो से ज्ञान अर्जित करना होता है, जैसे चिप्स खाकर उसके पैकेट को नहीं खाना होता, फेंकना ही पड़ता है..' तो क्या अब इन किताबों को उन खाली पैकेट्स की तरह तोलना चाहिए? कुँवरुभा को प्लेस्कूल में दाखिला करवाया तो फीस के बाद मुझसे सातसौ-आठसौ और मांग लिए इन किताबो के नाम पर..! आज वह किताब किताब स्वरुप में रही ही नहीं है, चिंथङा हो चूका है। वैसा ही हाल था जब हम स्कूल में थे तो कभी किसी वर्ष पूरा ही सिलेबस बदल दिया जाता और फिर पुरानी बुक्स रद्दी के भाव जाती..! लेकिन इसका इलाज मुझे कोई मालुम नहीं है। क्योंकि मैं असमंजस में हूँ, उपयोग के पश्चात बचता शेष कभी किसी के काम नहीं आता..! हाँ, बस वे ठेले वाले चटपटी-चना-ममरा जरूर दे सकते है। तात्पर्य था कि उस किम्मत का क्या हुआ? क्यों वह दोसो रूपये प्रति नंग से सीधे चार रूपये प्रति किलोग्राम पर गिरी.. हालाँकि हम भारतीय है, किताबो को भी सेकंड हेंड बनाकर कुछ तो कीमत उपजा ही लेते है। लेकिन यह एक नाकारा तर्क मात्र है।
तर्क से याद आया प्रियंवदा, आज सुबह जब स्नेही से चर्चा हुई तो एक मुद्दे पर विचारणीय तर्क चले.. व्यक्ति को कुछ हांसिल करने के लिए व्यक्तित्व में भारी बदलाव करने पड़ते है। जैसे कि अगर कोई कट्टरवादी है, तो उसे प्रशासन व्यवस्था में जाना है तो कट्टरवादिता छोड़नी पड़ेगी। कोई आईएएस आईपीएस के पद पर बैठा व्यक्ति एकपक्षी नहीं रह सकता। जैसे कि कल उस सुप्रीम कोर्ट में चली बहस के दौरान एक वकील ने जजों की बेंच को कह दिया की आपमें से भी एक जज मुसलमान होना चाहिए। तब जज साहब ने फटकार लगाते हुए कहा था कि इस कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति अपने धर्म को एक बाजू पर रखकर बैठता है। धर्मनिरपेक्ष होना जरुरी भी है उसके लिए। अन्यथा वह मुर्शिदाबाद पर कोई एक्शन कैसे लेगा? हालाँकि कोई एक्शन तो अब भी नहीं लिया गया है। बस शांति स्थापित हो पायी है, न्याय कहाँ हुआ? वो तो होगा तक़रीबन पचासेक सालो बाद..! जब आरोपीत इस संसार को भोग चूका होगा..! वो कहते है न, 'जल्दबाजी का काम शैतान का होता है', न्यायपालिका अक्षरसः पालन करती है इस बात का। दोपहर हो चुकी है प्रियंवदा, काम आज कुछ भी नहीं है, इसी लिए यह लम्बी लम्बी हाँके जा रहा हूँ मैं भी। जब आदमी के पास काम न हो तब वह ऐसी ही पंचायती करता है।
प्रियंवदा, चार बज गए है और चाय पि रहा हूँ, सारी दुनिया, दुनियादारी एक तरफ, और हमारे टोपी बहादुर की चाय एक तरफ। गर्मियों की इस गर्म दोपहरी में भी इसकी चाय अमृततुल्य है.. शाताप्रदत्त तथा बड़ी बड़ी समस्याओं के समाधान इस चाय के बगैर अधूरे है। चाय ठेले-टपरी से लेकर राष्ट्रपति आवास तक सुबह शाम अपना वर्चस्व जमाए बैठी है। देखो इसे कहते है समय सरकना, इस एक अनुच्छेद में ही तीन अलग अलग समय है, क्योंकि अब बज चुके है शाम के सात..! कुछ दोपहर से पूर्व लिखा था, कुछ चार बजे, और अभी सात बजे इसका समापन करने की भूमिका सोच रहा हूँ। मैं बस कहता रहता हूँ कि कुछ काम है नहीं, या था नहीं। तो दोपहर तक समय था तो यह दिलायरी में ही इतनी सारी पंचायती तो कर दी, लेकिन दोपहर बाद कुछ काम का बोझ आ पड़ा.. कई जगह फोन मिलाने पड़ गए। लंच समय तो आया और सरक गया पता ही न चला.. क्योंकि एक पुराने मित्र को आज फोन मिलाया.. मुझे वैसे बाते करनी आती नहीं, क्योंकि मैं जब भी बाते करने लगता हूँ, बहुत जल्दी मेरे पास बात ख़त्म हो जाती है और मैं कुछ नया ढूंढने लगता हूँ। बहुत कम लोगो से लम्बी बात कर पाता हूँ। इनसे मेरी मित्रता हुई थी तो सोसियल मिडिया से ही, क्योंकि यह भी इतिहास रसिक थे।लेकिन इन भाईसाहब की हिम्मत को दाद देनी चाहिए। प्रियंवदा, एक पुरुष हिम्मत कभी नहीं हारता..! चाहे कितना ही असहाय हो फिर भी, अगर हिम्मत रखता है तो बहुत प्रगति करता है। राजपूत है, तो प्रान्तिक इतिहास के कारण एक दिन उनका मुझ पर फोन आया था। यह मित्र की आर्थिक स्थिति जरा भी ठीक नहीं थी, ऊपर से उनकी पुत्री की बिमारी अलग, हिम्मत बनाए रखी। नौकरी क्या, मजदूरी जैसा काम तक किया है। तब भी घर का पूरा नहीं हो पाता था, समय की क्रूरता को अच्छे से अनुभव किया था। इतिहास में रस था, इस कारण उन्होंने एक पुस्तक का संकलन किया, दिनभर मेहनत का काम करने के पश्चात रात को घर आकर अपने एक पुस्तक का संकलन करते रहे। जिस विषय पर संकलन कर रहे थे, उस विषय के अन्य रसिको ने सहयोग किया, बुक पब्लिश हुई, और दो संस्करण हो गए। भाईश्री की मेहनत थी, जरा भी आसान नहीं है एक पुरुष के लिए, कि दिनभर मेहनत वाला काम करे, परिवार को राजी रखे और फिर यह पुस्तक के लिए भी समय निकाले। भाई का मुझ पर अपार स्नेह है, उन्हें अपनी पहली पुस्तक के लिए कुछ फोटोज चाहिए थे जो मैंने एडिट कर दिए थे, तथा उस पुस्तक संकलन में जहाँ जहाँ मदद चाहिए थी मैने अपनी और से सहयोग किया था। फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति उन्नत नहीं हुई थी। एक दिन जहाँ काम करते थे वहां से छुट्टी दे दी गयी। तब भी इन्होने दूसरी जगह चौकीदारी का काम किया। घर तो चलाना ही था। एक और पुस्तक लिखी, गुजरात टूरिज़्म ने भी इसमें रस लिया था। लेकिन आज भाई बहुत अच्छी जगह पर पहुंचे है, भागीदारी में एक बिज़नेस किया है, और अच्छा चल पड़ा है। जो समय क्रूरता पर उतारू था वही आज उनके कदम से कदम मिलाने लगा है। वैसे उस मित्र का महीने में एकाध बार फोन आ ही जाता, लेकिन इस बार कई महीने हो गए और फोन नहीं आया तो मैंने ही मिला लिया, फिर तो आधे-पौने घंटे तक बात चली। वर्षा ऋतु में घूमने जाने का प्लान तक बना लिया गया। हालाँकि मैं जानता हूँ, मेरे प्लान्स कितने एक्यूरेट होते है।
शाम होते होते फिर से एक काम में उलझ गया था की अब फ्री हुआ..! वैसे आज की दिलायरी कह लूँ प्रियंवदा या कुछ और, मैंने शायद च्युइंग गम की तरह खींचा है इसे..! जो भी हो प्रियंवदा, कलम मित्र ने कमाल ही करवा दिया आज बहुत दिनों के पश्चात.. उन्हें भी लाख लाख धन्यवाद.. दिनभर आज तीन चीजे चली है, कंप्यूटर पर दिलायरी, फोन में गेम्स, और थोड़ी बहुत नौकरी.. देखो प्रियंवदा, मैं तुम्हे कितना मानता हूँ, नौकरी करते हुए भी तुम्हारा स्मरण अचूक ही करता हूँ। हाँ, प्रेम नहीं छलक रहा होगा, क्योंकि उभर नहीं पड़ा है मुझ में। सूखे कूप है, शायद तुम भर दो..! लेकिन कहाँ? यह तो दिवास्वप्न है। तुम भी एक स्वप्न ही हो.. अधूरा स्वप्न.. जो पूरा नहीं हो सकता, जीवनभर..! नियति में तुम होती तो बात अलग होती, लेकिन नहीं हो..! प्रत्येक प्रकार की दूरियां हमारे मध्य है, अमिट दूरियां..
शुभरात्रि।
(१७/०४/२०२५)
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