क्या कहकर आपको संबोधित करूँ समझ नहीं आ रहा है, इसी कारणवश असमंजस का आरंभ यही से हो रहा है।
कुछ ज्यादा ही परेशानी पूर्ण स्थिति हो चुकी है मेरी, कारण एकमात्र आप है। कभी भी, कहीं पर भी आप मुझे संबोधित करके उस कलमुंही सी कलम चलाने लगते है। हाँ, पता है, डिजिटली लिख रहे है आप, लेकिन अक्षर तो काले ही है। होंगे ही न, प्रेम की समस्त परिभाषाओं से दूर भागते है आप। वैसे दूर कहाँ? हरकते तो सारी हृदयभग्नों वाली है आपकी.. मेरा क्या कसूर? मुझे क्यों बार बार स्मरण करते है आप? कहीं राजनीती पर लिखते हुए, कहीं अपराधों पर लिखते हुए, कहीं क्रूरता पर लिखते हुए कहीं इतिहास को कुरेदते हुए.. कौन सी जगह, कौन सा विषय आपने ऐसा छोड़ा है जहाँ मेरा नाम न आया हो बीचमे कहीं। यह आजकल वो नया चालू किया है, क्या नाम रखा है उसका.. हाँ दिलायरी ! वो आपकी दैनिक दिनचर्या के लिए शुरू की थी ना आपने? फिर वहां मेरा क्या काम? और वो क्या लगा रखा है आपने, 'हमारे मध्य की दूरियां?' अरे काहे की दूरियां? दिनभर में पचासो बार बकबक करते है कि, 'प्रियंवदा आज तो ऐसा हुआ, प्रियंवदा आज तो वैसा हुआ..' जब मुझे ही बताने लग रहे है आप फिर अंतिम पूर्णाहुति पर लिख देते हैं कि, 'काश तुम साथ होती..' क्या मतलब है.. साथ आने के लिए पहले दूर तो कीजिये कम से कम..!
आज तो सारी बाते हो ही जाए..! यह जो पुरुष की हिम्मत, पुरुष का पक्ष लेना, यह सब अपनी फालतू बाते मुझ से तो कीजिये मत आप.. इतना ही पुरुषत्व फूट रहा है तो किसी पुरुष को ही संबोधित किया कीजिये। अरे गजा और पत्ते की बाते बताते हुए भी आप मुझे बिच में ले आते है। जिस तरह की बाते आप मुझे उद्देशित करते हुए लिखते है, ऊपर से दोहराते भी है कि यह प्रेम नहीं आकर्षण है.. वह सतत विरोधाभाष है। किसी एक जगह स्थिर रहकर तो आप कोई बात लिखते ही नहीं। अभी कल ही आपने क्या कहा? प्रेम हो या राजनीती वहां फूंक फूंक कर कदम भरने चाहिए? कदम भरने के लिए सबसे पहले कदम उठाना भी पड़ता है। वह तो आप से हुआ नहीं, और अब अफ़सोस जताते रहते है, काश साथ होती, पास होती..!
सबसे पहले तो आप यह बताइये कि आप साबित क्या करने चाहते है? क्यों बार बार मेरा नाम बिच बिच में लिखते रहते है? क्या आप ऐसा दिखाना चाहते है कि, 'मैं हर समय आपके दिलोदिमाग में ही छायी रहती हूँ?' क्योंकि भला इतनी बार तो कोई भी किसी का जिक्र नहीं करता है। या फिर आप अपनी लेखनी को मेरी प्रतिभा से जोड़ते है.. आपके विचार भला मुझ से क्यों जोड़ते है? आपने कभी यह नहीं सोचा मुझे कैसा फील होगा हर जगह, हर बात में मुझे उद्देशित बताई बातो को पढ़कर..! लोग क्या सोचेंगे, मैंने आपसे अनिच्छ व्यवहार किया होगा..! फिर स्वयं से शंका भी उपजती है कि कहीं मैं आपकी लेखनी में एक नाम मात्र ही रह गयी हूँ। जिसे सम्बोधित करके आप बस बेतुकी बातें करते है। जिसे पता होता है, प्रत्युत्तर कुछ आना नहीं है वह अधिक भावना बहाता है। जब शंकाशील स्वाभाव हो ही जाता है तब तो यह विचार भी आता है कि कोई और भी प्रियंवदा तो नहीं है? क्योंकि बाते तो आप बहुत सारी बना लेते है। फिर ऐसा भी विचार आता है कि जो आपको पढता है वह तो यह भी समझ पाएगा, कि मैं आपका एक काल्पनिक पात्र मात्र हूँ। आपने जितने लेख मेरे नाम से लिखे है उनपर तो मुझे अपना हक जमा देना चाहिए। नाम मेरा, बाते आपकी, लोग क्या सोचेंगे भला?
यह तो आपने एकपक्षीय प्रेरणा पाल ली हैं न, सारी समस्या वहीं है, आपकी भी और मेरी भी। जितना भाव इन लिखित शब्दों में व्यक्त करते है आप, उसकी आधी भी अगर कह दी होती तो..! लेकिन नहीं, कल्पनाओ में खोना है, प्रत्येक परिस्थितियों को बस कल्पनाओं में अनुभव करना है। वास्तविकता से कोसो दूर.. दोनों की परिस्थिति अलग है, दोनों का साथ आ पाना असंभव सा है तब भी बस, 'प्रियंवदा यह, प्रियंवदा वो..' करते है। कभी कभी तो ऐसा भी लगता है कि आप मुझे लिखते है लेकिन असल में तो आप अपने आप के लिए ही लिख रहे होते है।
क्या पता कभी ऐसा भी होता कि मैं तो आपको मुँह पर ना बोल दूँ, लेकिन आपने तो यहां पूरी कहानी ही छाप दी है। कभी वास्तव में पूछा होता तब तो बात ही अलग होती..! वैसे आपके प्रत्येक शब्दों से प्रेम ही छलकता जरूर दीखता है, लेकिन प्रेम नाम से नहीं समझने से होता है। और आप तो महाज्ञानी है, प्रेम को प्रताड़ना समझने वाले। इसे तो मुख में राम बगल में छुरी कहा कीजिये। न तो यह प्रेम है, न आकर्षण है, न पागलपन। यह तो वे भाव है जो आपके मन में थे, शायद उन भावो में कुछ कमी है, तभी मैं आपके साथ नहीं। लेकिन उस भाव में कुछ शक्ति भी है, क्योंकि मैं आपके शब्दों में जरूर हूँ।
भले ही नियति मुझे आपको न सौंपे, लेकिन आपके शब्दों में सदा बनी रहूं।
आपकी प्रियंवदा !