मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 28/05/2025Time & Mood - 19 : 03 || सालो पुराने मित्र से बात हुई इस लिए खुश हूँ..
मुझ में तू क्यों बसा है..
जैसे इस दिनभर आग उगलते सूर्य ने अपने नित्य के पश्चिम की ओर जाते पथ का रूख किया है, ठीक उसी तरह शाम ढलते ही मैं तुम्हारे नाम यह चिट्ठी लिखने आ पहुंचा हूँ। मेरी उन यादों से रंगी स्याही ख़त्म नहीं होगी..! कुछ रिश्तों का आरम्भ नहीं होता है, वे बगैर वादों के भी निभ जाते है। उन्हें मुलाकातों के होंसलो की जरूरत नहीं होती। और इतने गाढ़े हो जाते है कि फिर अपनी पहचान से ज्यादा उसका वजूद अनुभव होने लगता है।
यह एकतरफा मोहब्बत का वह मोड़ है जहाँ अपने आप से पूछ लिया जाता है कि, 'मैं तो मैं हूँ, लेकिन मेरे हर लम्हे में वो क्यों है?' मेरे और तुम्हारे बिच कोई भी संधि-समझौता या करार नहीं हुआ था, फिर भी तुम कभी भी मेरे दिल से गयी नहीं..! मैं सोचता हूँ कि क्या यह कोई जूनून है? या फिर दिल की ज़रूरत..? मैं नहीं जानता हूँ कि तुमने कभी चाहा भी होगा या नहीं, कि तुम मेरे वाक्यों का आरम्भ बन जाओ..! मैं यह भी नहीं जानता हूँ कि क्यों वो बंद आँखों वाली तस्वीर हर जगह दिखती है, हर गीत में गुनगुनाती है..
मैंने तुम्हारी रज़ामंदी के बगैर ही शायद अपने दिल का एक टुकड़ा तुम्हारे नाम कर दिया है.. शायद यही इकलौता कारण है। और तुमने भी उस बसेरे को रौशन किया है, भले ही मेरे ख्वाबों में ही सही..!
एक सवाल :
मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ, के इस क़द्र मेरे दिल में तू क्यों है? न तू मेरा है, न कभी था, फिर भी हररोज इस दिल में तुम्हारे नाम का दिया क्यों जलता है?
सबक :
हर बार मैंने अपना दर्द अपनी कलम को सौंपा कि काश तुम पढ़ोगी किसी दिन, दिल से..!
अंतर्यात्रा :
तुम मुझमे मात्र बसी नहीं हो, मेरे दिल की धड़कनो को नियंत्रित करती हो।
स्वार्पण :
मुझमे तुम ही बसी हो, यही मेरे लिए एक उजली किरण है।
तू आज़ाद है, पर मैं तेरी गिरफ्त में हूँ..
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