मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 30/05/2025Time & Mood - 17:27 || सिद्धांतपूर्ण..
अपने दिल से एक सवाल..
प्रियंवदा ! इन पत्रों में तुम्हारी परछाई ज़रूर है, लेकिन खोखली अनुभवता हूँ उन्हें। और स्वयं को एक रोगी ! जैसे कोई बगैर पर्णो की शाख.. जहाँ कभी भी पुष्प भी नहीं खिलते, न ही कोई फल आता.. ऐसी शाखा पर तो कोई सुन्दर पक्षी अपना बसेरा नहीं बनाते। वहां बसते है तो केवल वे क्रूर गिद्ध..
आज स्वयं से पूछता हूँ, कि अगर मैं तुम्हारे पथ पर वास्तव में चला होता तो यूँ होता? शायद नहीं, यह रास्ता मैंने स्वयं ने ही चुना था, हिम्मत के आभाव में.. फिर आज तुम्हे याद कर कर के, अपनी नाव क्यों डुबा रहा हूँ? क्या मैं सिर्फ टूटे-बिखरे शब्दों का कोई पुल बाँध रहा हूँ? कुछ प्रश्न ऐसे भी है, जो मेरे भीतर उठ रहे है, लेकिन शब्दों का स्वरुप पाने में असफल हो रहे है। बहुत सारी जंजीरे उलझी हुई है.. जिनका सुलझना जरुरी नहीं है.. उन्हें ऐसे ही उलझा हुआ रहना चाहिए, प्रियंवदा ! कुछ उलझने अच्छी भी होती है। वे मर्यादाओं का निर्माण कर देती है।
वह समय अलग था, आज परिस्थितियां कुछ और ही स्वरुप ले चुकी है। तुलना असंभव है। दो मनो के बीच द्वंद्व जहाँ तक टाल सकता हूँ, मैं सुरक्षित हूँ।
एक सवाल :
फिर क्या इसी तरह हृदय को कईं कोण में विभाजित करना सही है?
सबक :
मैं आत्मग्लानि भी अनुभवता हूँ।
अंतर्यात्रा :
हाँ ! कुछ संभावनाएं है, कुछ बंधनो की.. और कुछ अनुमतियों की.. वे कभी उल्लंघित नहीं होती।
स्वार्पण :
कुछ सवाल उद्भवने ही नहीं चाहिए.. क्योंकि उनके उत्तर अनसुने नहीं किये जा सकते।
कुछ प्रश्न पीड़ा को अपने कंधो पर लादकर ले आते है,
और हमारे ह्रदय-मस्तिष्क के बीच होते द्वंद्व को रसिकता से निहारते है।
वही,
जो तुम्हारे ह्रदय से अनभिज्ञ है..
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