मेरा मन अनियंत्रित है..
कठिन हो गया है आज दिलायरी लिखना.. ऐसा है, मेरा मन अनियंत्रित है। मेरे काबू में कभी-कभार ही रहता है। आज भी अनियंत्रित ही रहा। बात ऐसी है कि अभी समय हो चुका रात्रि के बारह बजकर पांच मिनिट। और अभी अभी घर लौटा हूँ। ऑफिस से तो जल्दी आ गया था प्रियंवदा, लेकिन आजकल दुग्गल साहब को क्रिकेट देखने का चस्का चढ़हा है। घर के पीछे ही नाइट टूर्नामेंट चल रही है तो खाना खाकर बापु बाइक लेकर वहीं बैठे मिलते है। आज गजा और पत्ता दोनो भी थे, इसी कारण से अभी तक मैं वहां बैठा रहा था।
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Multifunctional Dilawarsinh..! |
सुबह-सुबह के झूठे स्वप्न..
प्रियंवदा, मन के जीते जीत है, मन के हारे हार.. लेकिन मेरा मन हार जीत के बीच असहाय अर्जुन की तरह खड़ा रह जाता है, और मैं कोई इतना मूल्यवान भी नही हूँ कि मुझे कृष्ण आकर राह दिखाए। बस, मैं कभी जीत नही पाता, आकर्षण से लेकर आवक तक। सुबह साढ़े छह बजे जाग गया था, लेकिन नीचे घर मे गया, पानी पिया, वापिस छत पर आया और सो गया..! कहा था न, मेरा मन बड़ा ही कमजौर है, फिर तो आठ बजे के बाद ही आंखे खुल पाई, लेकिन लाभ जरूर हुआ इस अतिरिक्त निंद्रा का.. सच मे तुम्हारा स्वप्न आया..! याद तो नही रह पाया कि हम लोग कहाँ थे, और क्या कर रहे थे। लेकिन इतना जरूर से याद रहा कि मैं और तुम साथ मे थे। सुबह-सुबह के झूठे स्वप्न..!
फिर तो ऑफिस भागने की जल्दी थी.. बस। साढ़े नौ ऑफिस पहुंचकर काम हाथ मे लिया ही था कि गर्मियों ने तौबा करा दी। सुबह सुबह तापमान का पारा बड़े ऊंचे चला जाता है। बंद कमरों में बगैर ac के बैठना कोई कला तो है नही, मजबूरी मानी जाए। कभी ट्रेक्टर लोड हुआ, कभी ट्रक, कभी हिसाब बनाओ, कभी पैकिंग लिस्ट, कभी बिल बनाओ, तो कभी परमिट..! दोपहर को फ्री समय मिला था, सोचा काफी दिनों से कुछ पढा नही है। तो चैट जीपीटी का सहारा लेने की सोची, उसने ऐसा कुछ भी ढंग का पढ़ने लायक दिया नही। मौके पर स्नेही हाजिर हुआ.. लपक के लाभ लिया। स्नेही ने कुछ मदद की, और छोटे छोटे पांच खत पढ़ने लायक मिले मुझे।
मैं खुद से मिलने निकला हूँ..
शाम को मेरी उस श्रृंखला के पीछे भागा जिसे मैंने नाम दिया है, 'मैं खुद से मिलने निकला हूँ।' जहां मैं प्रियंवदा को खुले खत लिखता हूँ। मेरे जीवन के कुछ अंश को पहचान का पर्दा बरकरार रखते हुए लिखता हूँ। सोचा अब समय मिला है दिलायरी भी लिख दी जाए, ताकि शाम को बस मैच देखने के सिवा कुछ शेष न रहे। लेकिन घड़ी में बड़ी सुई बारह पर और छोटी वाली आठ पर टकटकी लगाए खड़ी मिली। घर जाने का समय। रह गयी बाकी, तो अब लिखने बैठा हूँ। एक और दिन तुम्हारा स्मरण करते हुए खत्म हो चुका।
उमर रात निढर में अभाणा डिठा मुं..
प्रियंवदा ! मैं पिछले दो-तीन दिन से एक गीत के पीछे पड़ गया हूँ। ब्लूटूथ लगाए , रिपीट में एक ही गाना बारबार सुन रहा हूँ। सिंधी कलाम है, 'उमर रात निढर में अभाणा डिठा मुं..' शायद लोकगीत है। राजस्थान और गुजरात मे मीर जाति है, उनका काम ही गाना-बजाना है। कलाकार ही होते है, सरस्वती की कृपा है। मुसलमान है लेकिन गानो में कभी उनके धर्म आड़े नही आया। तो वह सिंधी कलाम एक बड़ी रसप्रद कहानी के दो पात्रों का है। थोड़ा इतिहास लिख देता हूँ।
शाह जो रिसालो : उमर-मारवी
सिंध में एक बड़े कवि हुए, शाह अब्दुल लतीफ, उन्होंने 'शाह जो रिसालो' लिखा। मुख्यतः सिंध की प्रसिद्ध सात स्त्रियों की काव्य-कहानी है। लोककथाएं। लेकिन ऐतिहासिक पात्रों से जुड़ी हुई। उन सात में से एक स्त्री थी 'मारू' या 'मारवी' या 'मारुई'। उस समयकाल में सिंध सूमरो राजाओं के शाशनकाल में था। उमर सूमरो का शासन चल रहा था और राजधानी हुआ करती थी उमरकोट। उस उमर को मलीर गांव की मारवी के रूप की प्रशंसा सुनने में आई, और उसने मारवी को रानी बनाने के लिए अपने महल उठा लाया। यहां प्रणय त्रिकोण था। उमर को मारवी पसंद थी, और मारवी को खेतसेन। लेकिन उमर राजा था इस कारण मारवी को अपने महल उठा लाने में सामर्थ्यवान रहा।
हालांकि उसे भी प्रेम रहा होगा, उसने मारवी को बगैर अनुमति के छुआ तक नही। येनकेन प्रकार उसने मारवी का प्रेम पाने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। और मारवी को खेतसेन की ही मानकर उसे मुक्त कर दिया। मारवी वापिस अपने गांव लौटी लेकिन उसकी पवित्रता पर सबने संदेह किया। उमर को यह बात पता चली तब उसने गांववालों को दंडित करने आक्रमण किया। लेकिन मारवी ने बीच मे पड़ते रोक लिया। परीक्षा होनी थी, एकबार और जैसे सीता की ली गयी थी। लोहे का एक सरिया गर्म किया गया, जब वह लाल हो गया तो मारवी ने उसे अपने हाथ मे उठाकर साबित किया अपनी पवित्रता को। यह देख उमर ने भी उसी गर्म लोहे के सरिये को पकड़ अपनी भी पवित्रता साबित की। आखिरकार मारवी को खेतसेनने स्वीकार लिया। और उमर वापिस लौट गया।
प्रेम में प्राप्ति से ज्यादा त्याग का महत्व था इस कहानी में..
शाह जो रिसालो में ऐसी और छह स्त्रियों की बात है। उमर-मारवी, राणो महेंद्र-मूमल, सोहनी-मेहर (महिवाल), लीलण-चनेसर, नूरी-जाम तमाची, ससुई-पुन्हू तथा सोरठ-राई दयाच। अंतिम सोरठ राय दयाच की कहानी तो गुजरात से गयी है, या वहां से यहां आयी हो यह भी सम्भव है। लेकिन हम मानते है कि यह यहां का इतिहास है। उस कहानी में ऐसा था कि, गुजरात मे जूनागढ़ पर चुडासमा शासकों का राज था। समस्त गुजरात पर उस समय सोलंकीओ का अधिपत्य था, पर जूनागढ़ में चुडासमा अपना वर्चस्व जमाएं बैठे थे।
सोरठ राय दयाच (रा'दियास) का असली इतिहास..
सोलंकी ओ की राजधानी पाटण थी। जूनागढ़ को अपने अधीन लेने सोलंकीओ ने आक्रमण किया। लेकिन जूनागढ़ का ऊपरकोट का गढ़ अभेद्य था। भीतर से धोखा न हो तब तक वह पहाड़ी पर खड़ा किला अजित था। सोलंकियों के आक्रमण का कोई खास फर्क पड़ता नही देख एक कुटिल चाल चली गयी। जूनागढ़ का शासक रा' दियास बड़ा दानी था। कलाकार को मुंह मांगा दे देता था। सोलंकीओ ने अपने कवि बिजल को भेजा था, जो बिन बजाने में माहिर था। बिजल ने गढ़ के नीचे खड़े होकर बिन बजाई, कुछ दिनों में दियास प्रसन्न हुआ। कवि को कुछ भी मांगने को कहा, और चाल अनुसार कवि ने रा दियास का मस्तक दान में मांग लिया। उस रा दियास की रानी ने थाल में सजाकर अपने पति का मस्तक, बिजल कवि को दान दिया था।
यही कहानी सिंध पहुंचते पहुंचते थोड़ी बदल गयी, वहां की कथा अनुसार रानी - जिसका नाम सिंध के कवियों के अनुसार 'सोरठ' था - बिलखती रही, कवि को कुछ और मांगने को कहती रही थी। लेकिन रा दयाच ने रानी की एक न सुनी, और अपना मस्तक काटकर दान दे दिया। शायद सिंध में रानी का नाम सोरठ इस लिए हो गया होगा क्योंकि यह ऐतिहासिक कहानी सौराष्ट्र की है, और सौराष्ट्र को लोकबोली में 'सोरठ' भी कह दिया जाता है। चुडासमा ओ की राजधानी जूनागढ़ थी, लेकिन उनकी सत्ता समस्त सौराष्ट्रमण्डल पर थी।
खेर, मुझे वह गीत अचानक ही रिल्स में तैरता हुआ मिला था, और फिर तो मैंने शायद सैंकड़ो बार सुन लिया होगा.. और मुझे पसंद भी वही पंक्तियां आयी जो रील में ही सुनी थी..!
थरन ई वरन में,
वसन रोज बून्द यूँ,
फूटा फोग कैर,
के लाणा डीठा मुं,
उमर रात निढर में,
अभाणा डीठा मुं,
डाडाणा डीठा मुं..
अर्थात, मारवी उमर से कह रही है कि, उमर ! थार के रेगिस्तान में बारिश हो रही है, कैर और फोग की कोंपले फूटी है, लाणा (एक घास) भी देखी मैंने। हे उमर ! मैंने नींद में स्वप्न देखा, मेरे पिता का घर दिखा मुझे, मेरे दादा का घर देखा मैंने।
मातृभूमि के प्रेम है.. और थार की लाक्षणिकताएँ..! राजस्थान के ही एक मीर से कहा है मैंने, यह पूरा कलाम मुझे प्राप्त करा देने के लिए। मन ऐसा ही है प्रियंवदा, जिसपर आ गया फिर उसीके पीछे लग जाता है.. तुम पर तो मेरा मन और ह्रदय दोनो ही अपनी जान छिड़कते है..! चलो अब विदा दो प्रियंवदा, रात्रि के एक बजकर बीस मिनिट हो गए है। और तुम भी बताना, तुम्हे कोई ऐसा गीत पता है जो एक इतिहास का पन्ना लिए बैठा हो..?
शुभरात्रि।
(२४/०५/२०२५)
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– दिलावरसिंह