मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
दिनांक - 21/05/2025समय - सायंकाल के छह बजकर छबीस मिनिट || कुछ असमंजस है, कुछ नयेपन का उत्साह..
पहली नजर का वक़्त..!
प्रियंवदा ! मुझे आज भी अच्छे से वो दिन याद है, जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था। लेकिन हमारी आँखे नहीं मिली थी। मैं पहली बार किसी प्राइवेट ट्यूशन क्लास में ज्वाइन हुआ था। नया नवेला था सब कुछ ही, बैठने की चेयर्स भी। मैं समझ ही नहीं पाया था कि ऐसी चेयर में बैठा कैसे जाए? तब तुमने मुस्काते हुए चेयर का राइटिंग बोर्ड उठाया था, और मैं सच कहूं तो बिलकुल ही ग्लानि में डूब चूका था, कि मुझसे चेयर में बैठा तक नहीं गया। तुम तो बाद में क्लास में पढ़ने में व्यस्त हो गयी थी, लेकिन मैं अपने मददगार के मुखारविंद को निहारने में खो गया था।
कैसे बताऊँ तुम्हे? तुम्हारी बड़ी बड़ी आँखें, और किसी मूर्तिकार ने फुर्सद से बनाया हो ऐसा तुम्हारा चेहरा.. आज भी मेरी आँखों के आगे आ जाता है। वह चेहरा मेरे दिल में अंकित हो चूका है। अमिट अंकित। फिल्मी अंदाज से नहीं कह रहा हूँ, लेकिन वास्तव में मेरे लिए तो वहीँ सब कुछ थम गया था। तुम्हारी वो मीठी मुस्कान.. सबसे अलग थी तुम्हारी आवाज.. सब से ही।
एक सवाल :
सच कहूं प्रियंवदा ! मैंने सिर्फ वो ख्वाब देखे, जहाँ हम साथ थे। समंदर के किनारे। रेत में मैंने तुम्हारा नाम लिखा था..! क्या पहली नजर में वास्तव में प्रेम होता है? या एक सिलसिला?
सबक :
यह बात तो तय है कि वह प्रसंग.. जब पहली बार यह आकर्षण अनुभव हुआ है, या यह पहला ही अनुभव कभी नहीं भुला जा सकता..! इस अनुभव से कोई बचा नहीं होगा। यह प्रेम कहो या आकर्षण एक साथ नहीं हो जाता, धीरे धीरे जैसे मंद नदी के बहाव सा होता है।
अंतर्यात्रा :
कभी कभी सिर्फ चेहरे नहीं देखे जाते.. पुरे जीवन का ख्वाब दिख जाता है।
स्वार्पण :
तुम्हे कुछ तो हुआ था, प्यार हो या आकर्षण। यही सबसे ज़रूरी बात है।