मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 31/05/2025Time & Mood - 19:35 || मूड तो याद और समझ, दोनों नहीं आ रहा..
तेरी खुशबू अभी बसी है..
प्रियंवदा ! मेरे दिल में बसे उस शहर के बीचोबीच एक बगीचा है। वहां तरह तरह है फूल खिलते है। हजारी से लेकर गुलाब तक। तुम्हे भी वो लाल-गुलाबी गुलाब ही पसंद है। मैंने सुना था एक बार तुम्हारे मुँह से। मेरे घर पर कभी गुलाब न खिल पाया, मैंने बहुत ख्याल रखा था उसका, बहुत बार उसे बसाया, उगाया, लेकिन वह न ऊगा, जिद्दी था।
वह कांटेदार गुलाब की खुशबू भी तो सबसे अलग है, तभी तो उसे हर कोई पसंद करता है। लेकिन प्रियंवदा, मुझे पसंद है पलाश.. जैसे वृक्ष पर अग्नि उगी है। हरसाल उसमे रक्तपुष्प आते है, हर साल वह सूखते है, जैसे किसी की राह देखते हुए मुरझा गए हो, और अगले वर्ष फिर लौटते है.. यही प्रक्रिया सालो साल दोहराते है। फिर आखिरकार बूढ़ा हुआ वह वृक्ष ही किसी दिन धराशायी हो जाता है।
एक सवाल :
आज तो क्षितिज ने भी केसरिया रंग ही बिखेरा था प्रियंवदा, मेरा प्रिय! खिड़की से आता यह केसरिया रंग ठीक तुम्हारे गुलाब की लालिमा का किनारा ही तो है। मैं सोचता हूँ हमारे बिच की दूरियां क्षितिज से भी दूर होंगी?
सबक :
पुष्प सदा से अपनी सुगंध ही बांटते आए है। वे तोड़े जाते है, कुचले जाते है, मुरझा जाते है.. लेकिन महकते है, तभी वे महत्वपूर्ण है।
अंतर्यात्रा :
हाँ ! कुछ पुष्प अपनी इच्छाओ के अनुसार अपना स्थान नहीं पाते, लेकिन मूलयवान वे तब भी है।
स्वार्पण :
मेरे उस बगीचे में खारे पानी में भी पुष्प खिलते है।
पलाश हर साल खिलता है, किसी आशा में, किसी आकांक्षा में..
जो तुम्हारे ह्रदय से अनभिज्ञ है..
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