मनोबल, मोबाइल और मन की उलझनें – एक यादों भरी दिलायरी || दिलायरी : ३१/०५/२०२५

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मनोबल, मोबाइल और मन की भटकन

वो लोग पक्के मनोबल वाले होते है, जो अपना निर्धारित लक्ष्य साध लेते है। मैं सोचता हूँ, कि अच्छा है मैं कोई तपस्वी नहीं हूँ.. वरना मेरा ध्यानभंग करने के लिए तो अप्सरा नहीं, मृत्युलोक की मानुनि ही काफी थी..! मानुनि क्या, आज के समय तो मोबाइल फोन ही काफी है। मोबाइल फोन की एक नोटिफिकेशन मात्र..! अच्छा भला आज सुबह-सुबह रश्मिरथी पढ़ रहा था, और गजे ने पथच्युत कर दिया।


टिकबुक साथ लेकर चलते दिलावरसिंह..!



बोला, "माधव मिश्रा फिर से लौट आया..!" अब मैं परेशान की मैं तो किसी माधव मिश्रा को जानता नहीं, यह कौनसा लौटा है, और गया कब था फिर? लेकिन थोड़ी उलझनों के बाद उसने याद दिलाया कि मैंने ही उसे क्रिमिनल जस्टिस वेब सीरीज़ देखने को सजेस्ट की थी..! अच्छी सीरीज़ है, एडवोकेट कम डिटेक्टिव जैसा पात्र है। और लेयर बाय लेयर जो सीन्स आते है, बड़ी रोचक है। यह शायद तीसरी सीज़न है, और तीन ही पार्ट रिलीज़ हुए है, जो मैंने दोपहर तक देख लिए। बाकी के पार्ट्स शायद आईपीएल के बाद आने है।


नाम भूल जाने की विचित्र विडंबनाएँ

प्रियंवदा ! एक समय पर मैं रट्टा मारने में और याद करने में माहिर था। ट्यूशन क्लास में जो भी होमवर्क में याद करने को दिया होता है, वह शब्दसः मैं बेरोक बोल जाता था, लेकिन अब याद नहीं रहता। अब तो काम से लेकर नाम याद नहीं रहते। बहुत से लोग मार्किट में मिलते है, हाथ मिलाते है, हाल-चाल पूछ लिए जाते है, और चले भी जाते है, लेकिन मेरा मनोमंथन उसका नाम याद करने में लगा होता है। मैं अक्सर भूल जाता हूँ, सुरेश को नरेश कहने पर वो सहम जाता है, लेकिन मुँह पर कोई नहीं बोलता कुछ। एक बार तो हद्द हो गयी.. काफी देर तक चली बातचीत में, मैं एक रिश्तेदार को गलत नाम से बुलाता रहा, फिर मुझे घर जाने पर याद आया की उनका नाम तो कुछ और था..!


काम का हिसाब, यादों का बिखराव

नामो के अलावा मैं काम भी भूल जाता हूँ प्रियंवदा..! अक्सर मार्किट से लौट आने के बाद याद आता है, कि ये-ये काम तो करने ही भूल गए। कल हुकुम ने बस टिकेट्स बुक करने को कहा था, मैं भूल गया, आज दोपहर को सेकण्ड लास्ट सीट बुक करनी पड़ी। वो भी तब जब हुकुम ने मुझसे दोबारा टिकेट्स मांगी..! पता नहीं, मेरा ध्यान कहाँ रहता है प्रियंवदा..! न तो मुझे ऐतिहासिक पात्रों के नाम याद रहते है, न ही उनके स्थल, न ही वर्ष..! बस कहानी जरूर याद रह जाती है, वह भी टूटी-फूटी। कई बार तो किसी और की कहानी किसी और के नाम से याद आ जाती है। बड़ी किरकिरी हो जाती है।


किताबें, यूट्यूब और कविताओं की खोज

दो दिन पहले मैंने क्या लिखा था, या किसी से क्या बातचीत की थी, वो याद नहीं है। खेर, आज काम तो कुछ ख़ास न था दिनभर, लेकिन थोड़ाबहुत था, वो तो निपट गया। काम करते हुए यूट्यूब सुनता रहता हूँ। वहां किसी बुक की बात आयी.. मुझे रसप्रद लगी। तो पहली प्रायोरिटी तो खर्चा न करके मुफ्त में खोजबीन करने की रहती है। कहीं नहीं  मिली, न अमेज़ॉन पर, न फ्लिपकार्ट पर.. फिर उस बुक के बारे में और सर्च किया, लेखक के बारे में सर्च किया, तो पब्लिकेशर के बारे में पता चला, पब्लिकेशर को गूगल सर्च किया, तो उसकी वेबसाइट मिली, वहां वह बुक अवेलेबल थी। तो आर्डर कर दी। बताओ, कविता से कूदा हूँ सीधा प्रवास पर।


प्रियंवदा के नाम शाम की कुछ भूली-बिसरी बातें

अभी तक तो बुक की विषयवस्तु नहीं जानता हूँ, बस कुछ रिव्यूज़ पढ़े और अच्छे लगे, तो मंगा ली है। प्रवासवर्णन है शायद..! देखते है, बुक आएगी तब विशेष परिचय मिलेगा। यह लगभग दूसरी हिंदी पुस्तक खरीदी है मैंने। वरना मेरे नन्हे से बुकशेल्फ में ९-१० गुजराती थोथो का ही दबदबा था। पहली बार वो पत्रों वाली (फिर से नाम भूल गया - मैं तुजसे फिर मिलूंगी.. वाली लेखिका) बुक मंगाई थी। हिंदी की वह पहली बुक आयी मेरे पास, और उसके बाद यह होगी। हालाँकि वो भी मैंने पूरी पढ़ी नहीं है।


शाम होने को आयी प्रियंवदा, समय हो चूका साढ़े सात.. आज इतनी ही बाते बहुत है, क्योंकि बाकी की मैं फिर से भूल गया हूँ.. 

शुभरात्रि।

(३१/०५/२०२५, १९:२३)


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