"जहाँ तुम नहीं, वहाँ भी तुम हो..." || दिलायरी : १८/०५/२०२५

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हररोज कुछ नया होना जरूरी है क्या प्रियंवदा?..


Kuchh hone ke intejaar me Dilawarsinh..!


    शायद मेरे लिए तो हाँ.. क्योंकि मेरा तो गुजारा ही इस पर है.. यदि दिनभर में कुछ ऐसा हुआ ही नही तो मैं तुम्हे बताऊंगा क्या? तुम तो भले ही मेरे शब्दों में छिपे भावों को नजरअंदाज कर जाओ, लेकिन मैं तो.. मुझे तो तुम्हे बताए बिना चैन कहाँ? मैं आज भी हाजिर हूँ, स्वाभाविक भावों को शब्दों में ढालते हुए, तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण को व्यक्त करने। इतना सीधे मैंने अपने शब्दों को कभी नही रखा है.. है ना? शायद आज मैं थोड़ा ज्यादा ईमानदार हूँ, लेकिन तुमसे तो मैं वैसा ही रहना चाहता हूं, जैसा सच में हूँ।


कथा की कल्पना में खोए बुजुर्ग, और मंदिर की सुबह..

    कल के उस ईश्वर और सिपाही वाले लेख से शायद ईश्वर आज मुझे पर प्रसन्न हो गए है। सुबह मंदिर से शुरू हुई थी, अभी भी मंदिर पर ही हूँ। सुबह हमेशा की तरह साढ़े सात को ही आंखे खुली। माताजी बोले, 'मंदिर ले चल, वहां कथा है।' बुजुर्गों के लिए यही मोबाइल है। जैसे हम तल्लीन हो जाते है फोन्स में.. वे इन कथाओं की कल्पनाओं में। इन्हें साक्षात्कार होता है, जब कथाकार राधा श्याम का रास सुनाता है। इन्हें हर्षोल्लास हो आता है, शिव पार्वती के विवाह में। इन्हें रावण पर क्रोध हो आता है, जब वह सीता का हरण करता है। कल्पना ही कल्पना प्रियंवदा। जैसे हम कोई नवलकथा पढ़ते हुए अनुभवते है, ये सुनते हुए अनुभवते है। 


दोपहर की तपिश - ऑफिस से ऑडिट तक..

    उन्हें मंदिर छोड़कर मैं ऑफिस चला आया..! आज फिर दो बजा दिए ऑफिस पर ही। बाहर धूप और गर्मी की अति हो चली है। कोपित सूर्य धरती को सोंखने पर उतारू है। दो बजे बिजली भी चली गयी। सोचा अब तो घर जाने के अलावा विकल्प नही। पड़ोसी के ऑफिस में भी तो ऑडिट के लिए डेटा तैयार करना था, पर बगैर लाइट के.. क्या ही होता? मैं घर के लिए निकला ही था कि लाइट आ गयी। फिर निकल पड़ा अपनी पार्ट टाइम की ड्यूटी करने। दूसरी ऑफिस पहुंचा, चाबी स्विचबोर्ड पर छिपा रखी थी, वहां से ली, और पहला काम ac चालू किया। गर्मी ने तो तौबा करा दी है। बैठे बैठे भी पसीना बहने लगता है। कंप्यूटर ऑन किया, आज वह पिछली बार वाली गलती नही दोहराई। पिछली बार तो मैं सही डेटा को गलत समझ कर घर लौट गया था। आज सारी एंट्रीज ठीक से मिलान कर के अपडेट कर दी। 


भूख के आगे किसकी चली है प्रियंवदा?

    काम तो निपट गया प्रियंवदा, समय हो चुका था लगभग शाम के पांच..! घर जाने से पूर्व माताजी को मंदिर लेने भी जाना था। सुबह के नाश्ते के अलावा पेट मे सिर्फ पानी ही पहुंचा था। ऑफिस से करीब तेईस किलोमीटर बाइक चलाते हुए मंदिर पहुंचा। पंडाल में बड़े बड़े स्पीकरों में कथा चल रही थी। मैंने माताजी को फोन मिलाया लेकिन इन बड़े बड़े स्पीकरों के बीच छोटे से फोन की रिंग किसे ही सुनाई पड़े? मैं वापिस बाहर निकलकर फोन मिला रहा था। बाहर ही एक नाश्ते वाला दिखा। पानीपुरी के अलावा कुछ न था उसके पास। सालो बाद रोड साइड पानीपुरी की एक प्लेट की आहुति पेट मे दी। भूख के आगे किसकी चली है प्रियंवदा? इसी बीच लगभग नौ-दस फोनकॉल्स कर चुका था माताजी को, लेकिन एक भी उठाया नही उन्होंने। मैं वापिस पंडाल में गया। तभी उनका कॉलबैक आया। इतनी भीड़ में बगैर फोन को कैसे ढूंढ सके कोई किसी को भी..! माताजी आए और हम घर के लिए निकल पड़े।


ननिहाल की नौलखी यादें..

    घर जाते हुए कुछ फल-सब्जियां भी ले ली। कुँवरुभा के पसंदीदा आम खरीदते हुए ख्याल आया कि वे तो है नही घर पर। ननिहाल के मजे उठा रहे है। मुझे भी अपना बचपन याद आ गया.. ननिहाल के दिन सबसे बेहतरीन पल होते है जीवन के। ननिहाल में एक बार मैंने किसी के खेत की बाड़ जला दी थी बस खेल खेल में। लेकिन भांजे को कोई भी कुछ नही कह सकता। यही तो लाभ है ननिहाल का। पूरा गांव ही खुद के भांजे की तरह मान-सम्मान रखता है। वो गर्मियों की छुट्टियां.. दो बस बदल कर सीधे ननिहाल.. यही गर्मियां तब कभी अनुभव नही हुई। भरी दोपहरी में भी खेतो तक पैदल जाने में सोचना नही पड़ा कभी भी। वो पेड़ो पर चढ़ जाना, दिनभर में बस खेल खेल में कई किलोमीटर अनजाने में ही चल जाना। बिल्कुल किसी स्लाइडशो की तरह आखों के आगे से गुजर गया वह सारा कारवां..! जाने कब बड़े हो गए, अब तो वो मिट्टी भी सिर्फ विचारों में रह गयी है। मगर अच्छा है, कुछ जगहें बस यादों में महकती है.. हमेशा।


मैं कबूलता हूँ..

    घर आकर चाय पीकर चला गया जगन्नाथ। आरती के घंटारव और नगाड़े धमधमा रहे थे। झालरें प्रकृति में अपनी ध्वनि तरंगे बिखेरने लगी। शंख ने दसो दिग्पालों को जगा दिया। स्वयं वायुदेव की उपस्थिति को पीपल के पत्ते आवकारते रहे। उसी पीपल के नीचे बैठा मैं इस अनहद आनंद के अतिरेक में डूबा सोच रहा था कि क्या दिन है ! दिन की शुरुआत भी घर से निकलकर मंदिर से शुरू हुई थी, और मंदिर पर ही दिन ढल गया। यह लिखते हुए प्रियंवदा तुम्हे कई बार याद किया है। कभी कभी कल्पना हो आती है, काश मैं-तुम साथ होते तो तुम्हारा तो तुम्हे पता पर मेरा जीवन जरूर से प्रेममय होता.. मैं कबूलता हूँ, शायद मेरी प्रेम की व्याख्या भी आम होती। 


..उससे अच्छा क्या ही होगा?

    जहां मैं गर्मियों में बैठता हूँ, वहां आज चौके जड़े जा रहे है। जिस ग्राउंड में कई सारे स्नेही के दिए टॉपिक्स को मैंने विस्तृत किया है, वहां आज बड़े बड़े हेलोजेन्स ने दिन जैसा उजियारा किया है। नाईट क्रिकेट टूर्नामेंट चल रहा है। उद्देश्य अच्छा है। इस टूर्नामेंट के नाम पर आया हुआ तमाम डोनेशन, एड्स, और प्रसारण से मिला तमाम अनुदान गौशाला के उत्थान में उपयोगी होगा। लगभग आसपास के गांवों की 17 टीम इस प्रतियोगिता में सहभागी हुई है। हाँ, ग्राउंड जरा छोटा है इस कारण से बार-बार बॉल बाउंड्री को छू लेती है। लेकिन उद्देश्य अच्छा लगा मुझे। जरूरी है, मनोरंजन से प्राप्त आर्थिक लाभ मूक पशुओं को मिले उससे अच्छा क्या ही होगा? अभी समय हो चुका है रात्रि के ग्यारह, और अभी मैच देखकर घर लौटा हूँ।


स्मृति ही संबल बन जाती है..

    और इस तरह प्रियंवदा ! एक दिन जो माँ के साथ मंदिर की कथा से प्रारंभ हुआ, जिम्मेदारियों की धूप में तपा, ऑफिस से ऑडिट तक दौड़ा, तो कभी भीड़ में माँ को ढूंढता रहा, अंततः वही दिन मंदिर के आरती और आर्तनादों में विलीन हो गया। आज असाधारण कुछ नही था, फिर भी हर क्षण में तुम्हे याद करते हुए मौन कर देने वाली सुंदरता थी। कभी यह भी अनुभव किया कि प्रेम में शायद उतना ही पर्याप्त है कि, वह भले ही न जाने, लेकिन मैं तो जानता हूँ, मैं उसके आकर्षण में गलाडूब हूँ। साथ होना ही जरूरी नही, स्मृति ही संबल बन जाती है। 


    चलो अब विदा दो प्रियंवदा, और बताना, तुम्हारा दिन कैसा था?

    शुभरात्रि।

    (१८/०५/२०२५)


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एक भावनात्मक डायरी — जब हवा में बम थे, और दिल में सवाल।


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