शान्ति में भुला दिए गए.. जंग में याद किए गए..
प्रियंवदा, यह एक वाक्य मात्र नहीं है, आयना है समाज के लिए और तलवार का घाव है अंतरात्मा के लिए। कुछ बाते, पंक्तियाँ, वाक्य सीधे तीर से सटीक होते है। चोट कर जाते है। और फिर जब मन उसकी गहराई में उतरता है तो स्वतः अनुभव होता है कि सच कभी कभी बहुत निष्ठुर होता है। हम लोग, हम सारे लोग बस एक फ्लो को फॉलो करते है। शांति काल में अक्सर हम अपने रक्षको को भूल जाते है। भगवान को, क्योंकि तब हमे उनकी आवश्यकता नहीं होती है, और सिपाहीओं को, क्योंकि सरहद की शान्ति हमे उनकी उपस्थिति की अहमियत अनुभव नहीं होने देती।
जब संकट आता है, जब गोलियों की आवाज आरती की घंटियों से ऊँची उठ जाती है, सिमा पर असंख्य बूटों की चाल दिल की धड़कनो से तालमेल करने लगती है। तब हमे याद आते है ईश्वर, और वह सिपाही जो सदैव से जागृत रहते है, हमारी आँखे मूंदने तक हमे बचाने के लिए।
आज सुबह जब ऑफिस जा रहा था..
साढ़े सात को प्रतिदिन की तरह आँखे खुल गयी... छत पर ही सोता हूँ, वहां हवाएं तेज चलती है, जो मुझे बड़ी पसंद है। मुझे कभी भी बिलकुल शांत वातावरण नहीं पसंद आता। मेरा उत्साह चरम पर होता है, जब आंधी भरे पवन चलते है। कल रात को पवन की गति असामान्यतः ज्यादा थी। पीछे ग्राउंड में रौशन बड़े बड़े हेलोजेन्स की लाइट्स से वाइट-वाश की हुई मेरे छत पूर्णिमा के चंद्र सी चमक रही थी। इंस्टाग्राम पर रील देखते देखते कई बार कुछ आईडी में पूरी फिल्म्स होती है - कई सारे पार्ट्स में। लगभग पौने एक तक मैं देखता रहा था।
सुबह ऑफिस जाते हुए रस्ते में एक स्विफ्ट के पीछे मेरी नजर पड़ी। एक a4 पेपर पर कुछ रेड मार्कर से लिखकर पीछे चिपकाया हुआ था। बायीं साइड के कार्नर में बोल्ड एंड कैपिटल में NAVY लिखा हुआ था। जलसेना के कोई रिटायर्ड अफसर रहे होंगे। मैंने अपनी बाइक उनके पीछे लगाई और मेसेज पढ़ने लगा, लिखा था, 'GOD AND SOLDIERS ARE ALWAYS REMEMBERED IN WAR..!' कितनी सही बात है न.. मैंने सोचा एक फोटो खिंच लू..! अपने टैंक-बैग से फोन निकाला और चालू बाइक से ही फोटो खींचने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अपने यहाँ के लोगो में न तो सिविक सेन्स है, न ही ड्राइविंग सेन्स.. एक कार वाला बड़ी तेज हॉर्न मारते हुए मेरे बाजू से निकला, उसके पीछे और भी बाइक्स, कार थे।
थोड़ा रिस्की लगा, एक हाथ से मोटरसायकल चलाते हुए दूसरे हाथ से फोटो खींचना..! तो मैंने वह मेसेज याद कर लिया।
आर्मी ट्रेनिंग की आवश्यकता..
प्रियंवदा, ऑफिस पहुंचकर पहले तो कल की दिलायरी पब्लिश की, शेयर की, और फिर यह लिखने बैठ गया। शनिवार है आज, गाड़ियां तो लगी है, और अभी समय हो रहा है ११:५१... काम तो शाम तक प्रकटता रहेगा। ऑफिस जाते हुए उस नेवल अफसर की ड्राइविंग देख रहा था मैं। साहब exact स्पीड लिमिट पर चला रहे थे। लेन चेंज करते समय भी इंडिकेटर दिखा रहे थे। मिडल लेन में चलते हुए जब जरुरत लगे तो फ़ास्ट लेन में इंडिकेटर दिखाते हुए जाते, और ओवरटेक करके वापिस मिडल लेन में चले आते।
मुझे लगता है, स्कूलिंग से ऐसी आर्मी ट्रेनिंग देनी चाहिए बालको को। अगर हर लोग इसी तरह रोड पर साफसुथरी ड्राइविंग करने लगे तभी तो सबकी भलाई है। लेकिन नहीं, उन्ही अफसर की गाडी के पीछे एक तेज तर्रार बोलेरो लगातार हॉर्न बजाए जा रहा था। उसे कोई फिक्र नहीं थी स्पीड लिमिट की। उसे बस आगे निकलना था। होते है ऐसे बुड़बक..
प्रियंवदा, यहां तक कि बातें लिखी थी लगभग बारह बजे। फिर तो जो काम आया है, अभी हो रहे है रात के पौने ग्यारह। अभी कुछ देर पहले ही घर पहुंचा हूँ। कभी कभी ऐसा भी होता है प्रियंवदा.. यह बीच मे जो गेप आया उस कारण से भाव भी बदल जाते है। कोशिश करते है पुनः एक बार उस टॉपिक पर वापिस आने की।
जरूरत के समय ही आस्था और सुरक्षा?..
वैसे एक सवाल यह भी उमड़ रहा है कि 'क्या हम सिर्फ जरूरत के समय ही आस्था और सुरक्षा की ओर देखते है?' इसके मेरे मन मे तो दोनो उत्तर आ रहा है, हाँ में भी, और ना में भी। मैं अपनी ही बात करूं, तो मेरे गांव से बहुत से लोग crpf, आर्मी, और पुलिस में है। वैसे भी हम लोगो मे कुदरती इन नौकरियों के प्रति एक लगाव होता है। तो फौजियों से अच्छी खासी पहचान है। कई सारी बाते जानता हूँ, सिस्टम समझता हूँ। उन सब में मुझे साम्यता यह लगी कि वे एक अनुशासन में ढल चुके है अब। घर पर भी आते है तो उनका एक वही बंधा हुआ लय रहता है। आलस नामकी चीज तो रतिभर दिखती नही। और बड़ा ही बेखौफ और एक जिद्दी अंदाज अनुभवता हूँ।
एक छोटे भाई से पूछ लिया कि युद्ध हो जाए तो क्या करोगे, तो वह मुस्कुराते हुए बोला, 'क्या करना है? मारना है एक तरफ से, और क्या..!' मैंने थोड़ा भय उपजाने के लिए पूछा, 'लेकिन तुम्हे कुछ हो जाए तो?' उसने फिर से उसी बेबाकी से कहा, 'तो कुछ नही, उनके मैंने फिर भी ज्यादा ही मारे होंगे..' इस वाक्य में एक बड़ी गहराई है.. दुश्मनों को मारने की इजाजत है, खुद मरने की नही। सिपाही वही तो होता है। मरने से ज्यादा उन्हें मारने की फिक्र होती है, होनी भी चाहिए। तभी तो जीत सुनिश्चित कर पाते है वे।
हमारा देशप्रेम भी शिड्यूल्ड है..
लेकिन आमतौर पर हम क्या करते है? उन्ही को याद रखते है जो हमारी अभी की जरूरत हो। लेकिन जब डर लगता है तो ईश्वर याद आ जाता है, और खतरा होता है तो सिपाही..! बिनजरूरी हम किसी को याद नही करते। न ही सम्मान..! न तो हम में पूर्णतः श्रद्धा है, न ही पूरा स्वार्थ है। दुआओं की भाषा तभी याद आती है जब संकट आन पड़ता है। कभी कभी लगता है हमारा देशप्रेम भी शिड्यूल्ड है। फौजियों के प्रति भावना हमारी 26 जनवरी, या फिर 15 अगस्त को ही जागृत होती है। जिसकी साँसे हमारी साँसों की रखवाली करती है, उसे हम साल में दो बार ही याद करते है, शर्म की बात नही है यह?
हमारी आस्था भी सुविधा पर आधारित है। हरदम अंतर्मन में और सांकेतिक ऊपर रहने वाले ईश्वर को भी हम तभी याद करते है जब जमीन कांपती है। स्वास्थ्य, या आर्थिक हानि पर कैसे ईश्वर के आवास की ओर भागते है.. लेकिन वहीं शांति काल मे कौन श्रद्धा, कैसी श्रद्धा..? कितने लोग फौजियों के परिवार से मिलते है? यह पाकिस्तान वाले मामले में जब अचानक सारे फौजियों की छुट्टियां कैंसल हो गयी तुरंत ड्यूटी पर हाजिर होने का आदेश आया, तब मीडिया चैनल्स ने भी बस दो मिनिट की खबरें चलाई थी। लेकिन उन परिवारों ने क्या अनुभव किया होगा इस आपातकालीन स्थिति में अपने को सीमा पर भेजते हुए? शांतिकाल में आभार व्यक्त करना एक आदत होनी चाहिए, आवश्यकता नही।
शांतिकाल में प्रार्थना..
युद्ध मे जितना वीरोचित सम्मान एक सैनिक को देते है, जितना उसे ग्लोरीफाई करते है, जितना उसका शुक्रिया करते है, क्या उतना कभी किसी रिटायर्ड फौजी का किया है? सेवानिवृति के बाद वे भी समाज मे एक आम आदमी बन जाते है। टीवी डिबेट्स में कुछ लोग चीख चीख कर अपनी देशभक्ति जताते है, पर किसी सैनिक की विधवा पर कभी कोई हैशटैग ट्रेंडिंग होता नही दिखता.. कहाँ जाता है वह सेनाप्रेम जो जंग के दिनों में बेनर बनकर लहराया करता था..! क्या हमने कभी मंदिर जाते हुए युद्ध से लौटे ईश्वर की थकान महसूस की है? क्या हमने कभी शांतिकाल में सिपाहियों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की है? क्या हमारे दिल मे इतनी जगह है कि सिपाही और ईश्वर को बिना जंग के भी बसा सकें?
मैं अक्सर जगन्नाथ के पास बैठा होता हूँ तो लगता है जैसे उस बूढ़े मंदिर में बैठा कालिया भी सोचता होगा कि कितना स्वार्थी मनुष्य है, जरूरत के अलावा याद ही नही करता.. उसे लगता होगा कि मेरी किसी को जरूरत ही नही.. तभी तो कहा गया है कि,
मतलब की मनवार, जगत जमाडे चूरमा ;
बिनमतलब मनवार, राब न पिरसे राजिया ;
हर कोई अपना मतलब साधता है। किसी की गरज हो, जरूरत हो, मतलब हो, तो उसके लिए सारे पकवान बना दिए जाते है, लेकिन जिसकी जरूरत न हो उसे पानी तक नही पूछता कोई।
नारे नही, आदतें बदलें..
प्रियंवदा ! हम बड़े ही भुलक्कड़ लोग है। हम बार बार भूल जाते है, कि हमारी गहरी नींद के स्वप्न न टूटे इस लिए सीमा का प्रहरी बंदूक थामे, अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर, हमारी नींद की रखवाली करता है। हमे अक्सर मंदिर की सीढ़ियां याद नही रहती, क्योंकि सब कुछ मनमुताबिक हो रहा होता है। ईश्वर तब तक बड़ा प्रिय होता है जब तक डर होता है। हमारी श्रद्धा बड़ी ही कमजौर है, उसे प्राकट्य के लिए संकट चाहिए होता है। हमारे आभार को युद्ध और विपत्ति की आवश्यकता होती है। जरूरत है कि हमे नारे नही, आदतें बदलनी चाहिए। उत्सव नही, एहसान याद रखे। श्रद्धांजलि नही, स्थायी सम्मान करें। ताकि अगली बार जब हम सिपाही का स्मरण करें या ईश्वर को पुकारे तो वहां डर या भय नही, प्रेम हो। और वह पुकार किसी जंग या मृत्युशैय्या की मोहताज न हो।
सादर नमन..
सार्जेंट सुरेन्द्रकुमार मोगा (IAF)
सब इंस्पेक्टर मोहम्मद इम्तियाज़ (BSF)
लांस नायक दिनेश कुमार (Indian Army)
रायफल मेन सुनील कुमार (Indian Army)
मुरली नायक (Indian Army)
शुभरात्रि।
(१७/०५/२०२५)
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– दिलावरसिंह
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"कभी कभी रिश्ते हवा जैसे होते हैं—देखाई नहीं देते, पर उनकी उपस्थिति हर श्वास में महसूस होती है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने उस दिन लिखा था—हवा के जैसा एक रिश्ता।"
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