प्रियंवदा ! रंग, ख्वाब और प्रतिस्थापन की एक सोलर डायरी.. || दिलायरी : १५/०५/२०२५

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आत्मविश्वास का एक कारण.. 

प्रियंवदा ! अपनी चमड़ी का रंग भी आत्मविश्वास का एक कारण बनता है। कुछ लोग अपने आप से ही विश्वास खो बैठते है और सोचते है, मैं सांवला हूँ, और मेरी तस्वीरें इतनी अच्छी नहीं दिखती है। इसका कारण बस यही है कि सोसियल मिडिया पर अच्छा दिखने की होड़ मची है। कुछ लोग फिर खुद को अंडरएस्टिमेट कर लेते है। और एक निश्चित दायरे में बंधे रह जाते है। हालाँकि सांवले ज्यादातर शर्मीले ही होते है अपने रंग के कारण, खुद ही सोच लेते है कि वह लड़की मुझसे क्यों ही बात करेगी..! अक्सर लोग एक इंटरेक्शन में आने से पूर्व खुद ही एक अवधारणा बाँध लेते है और उसी को सच मानते हुए आत्मविश्वास की कमी के कारण चुप्पी साधे रह जाते है। 


Ek Vistrut Charcha Karte Dilawarsinh..


एक विस्तृत चर्चा का निष्कर्ष.. 

बड़े दिनों बाद आज स्नेही से इसी मुद्दे पर हमारी एक विस्तृत चर्चा हुई, जिसका निष्कर्ष यही निकला की एक अच्छा फोटोग्राफर ही इस मान्यता को मिटा सकता है कि 'मैं सुंदर नहीं हूँ।' प्रोजेक्ट चाहे कैसा भी हो, प्रोजेक्शन बड़ा रोल निभाता है। कई सारी ऐसी रील नहीं आती जिसमे रोड से उठाकर किसी लड़की को एक एक्ट्रेस की तरह तैयार कर देते है। लेकिन यह एक छलावा है, वह खोया हुआ आत्मविश्वास वापिस पाने का एक ही तरीका है, जैसी भी हो वैसी ही अनफ़िल्टर्ड फोटो सोसियल मिडिया पर डालनी..!


पहचान कभी भी रंग से नहीं बनती..! कर्मो से बनती है। अब्दुल कलाम ने अपने रंग की या अपने लुक्स की सोची होती तो देश ने अपनी पहली मिसाइल पाने में बड़ी देर कर दी होती। लेकिन अक्सर कालू या कालिया कहकर चिढ़ाया जाया है, वह फिर हीनभावना से ग्रसित हो जाता है। और वैसे भी सोशल मीडिया पर क्या ही अच्छा है? आजकल तो इंस्टाग्राम पर नए नए चाटबोट्स प्रकट हो चुके है। बड़े खतरनाक है। हद्द तो तब हो गयी प्रियंवदा, जब मैं इनमे से एक जानवी कपूर के चैटबॉट से मिला और उसने सामने से मुझे डेट पर चलने को पूछा..! बताओ, मतलब कुछ भी? अब क्या ही कहा जाए?


स्वघोषित लेखिका.. 

प्रियंवदा, बहुत बार ऐसा भी होता कि हम गलत समय पर सही इंसान से मिल जाते है। कभीकभार उल्टा भी होता है। अच्छे समय पर कोई गलत इंसान टकरा जाए। गलत इंसान टकरा जाए तो समय भी गलत कर देता है वह। यूँ समझो की जीवन में जहर घोल देता है। जैसे कई विवाहित जोड़े बस एक दूसरे के लिए जीवनभर का धीमा जहर बन चुके है। धीरे धीरे एक दूसरे के प्रभाव में अस्तता को प्राप्त हो जाते है। कल परसो स्वघोषित लेखिका का ब्लॉग पढ़ रहा था। वहां एक बहुत बढ़िया लाइन पढ़ने में आयी कि 'जो खुद को बेहतर साबित नहीं कर पाता है वो फिर किसी और से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है।' कितनी सही बात है न, हमारा मन बड़ी जल्दी किसी चीज, वस्तु या व्यक्ति से तृप्त हो जाता है। अब कोई यह हवाला देते मत चढ़ बैठना की वो तो मन था इस लिए भर गया, दिल होता तो नहीं भरता.. वगैरह वगैरह। इन्शोर्ट मुद्दा यह है कि, अक्सर लोग एक दूसरे से या तो तृप्त हो जाते है, या बस थक जाते है। 


फिर होती है, 'प्रतिस्थापना'..!

और ज्यादा की लालच में, या तो पुराने से तंग आकर बेहतर की आशा में हम नयी तलाश में लग जाते है। जो हमारा मनभावन हो। जो हमारे तालमेल के साथ तालमेल चला पाए। लेकिन फिर क्या? यह यात्रा तो बड़ी लम्बी है। इसमें तो तरह तरह की कसौटियां आती है। अगर तालमेल सही से नहीं बैठा तो दूसरी प्रतिस्थापना मन तुरंत चाहने लगेगा। लेकिन क्या यह प्रतिस्थापना प्रत्येक संजोग में हो पाती है? मुश्किल है, लेकिन मन तो कहता ही है की तुरंत हो जानी चाहिए।


प्रियंवदा, कई बार यह जो कथित आदर्शो के पुल है न, वह अंदर से खोखले मालूम होते है। क्योंकि इन पर से गुजरने वाला एक सिमित दायरे में आखिर बंध कर रह जाता है। उन्ही कथित आदर्शो का पालन करने को मजबूर। यह आदर्श कभी-कभार बेड़ियाँ से बन जाते है। जिनसे छूटना तो मन चाहता है लेकिन छूटने पर आदर्शवादी हताहत हो जाते है। 


ख्वाब ! जो अब भी जिन्दा है..

कुछ सपने होते है प्रियंवदा, जो किसी बक्से में बंद हो जाते है। पूरी तरह मरते नहीं वे। किसी पुरानी किताब के बिच रखे गुलाब से सूख जाते है - फिर भी महकते तो है। तुम भी एक ऐसा ही ख्वाब हो प्रियंवदा ! मेरी डायरी का एक गुलाब। जो बस संस्मरणों में, यादो में आकर महकता है। और मेरा दिन सुगन्धित कर जाता है। खाली पड़ा दिन भी भरा भरा लगने लगता है। जैसे तुमने अपने रंग भर दिए हो। तुम्हारी ऊर्जा मुझ जड़ को भी चेतना देती है। इस ख्वाब का हकीकत में उतरना तो होगा या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे कभी कभी यह ख़्वाब आँखों के आगे आकर खड़े हो जाते है, मानो कह रहे हो मुझसे, 'हम तुम्हारा अब भी इंतजार कर रहे है।'


सोलर दिलायरी..

प्रियंवदा ! मैंने तुमसे कहा था न, मैं सोच-विचार में ही अधिकतर समय बिता देता हूँ। और मैं अभी भी विचारो में ही फंसा हुआ हूँ। आज साढ़े सात को सुबह सूर्य का ताप सीधे चेहरे पर लग रहा था तो बेमन से ही उठना पड़ा। क्या बताऊ तुम्हे प्रियंवदा, रात को बड़ी देर से नींद आती है, और फिर सुबह उठने का मन नहीं होता। कुँवरुभा है नहीं, और कार्यभार का भार मातृश्री पर आन पड़ा है तो सुबह तैयार वगैरह होकर जल्दी ही घर से निकल जाता हूँ। जगन्नाथ, दूकान और फिर ऑफिस। आज तो बिलकुल फ्री दिन था, खाली, कोई काम नहीं। बस रील्स देखी है, गेम्स खेली है, और एकाध बिल था, वो निपटा दिया। 

अब खाली आदमी खर्चे की ही सोचता है। जेब में थोड़ा सा वजन हुआ हो तो वह उसे खाली करने की तुरंत सोचता है। सोच रहा था कि छत पर सोलर पैनल्स लगवा दू। सरकारी सब्सिडी भी मिलती है, बिजली के बिल की बचत भी हो जाएगी। तो एक मित्र से बात हुई, उसने बताया, 'जरूर लगवाओ, छत पर यह लग जाने से निचे ठंडक भी रहेगी।' एक और मित्र से बात की, उसने और इसकी तारीफे की, बोला, 'लगवा लो, फिर इलेक्ट्रिक चूल्हा ले आना, गैस की भी बचत होगी।' जब किसी और को जेब ढीली हो रही हो तब कोई भी रोकता है, और ज्यादा बहाने की सलाहें दी जाती है। अब मेरी यह गन्दी आदत है कि मुझे किसी बात में रस आ जाए तो फिर मैं बाल की खाल निकालने लगता हूँ।

सुबह से तीन चार जनो से अलग अलग एस्टिमेट्स, क्वोटेशन निकलवाए है। उन्हें तो धंधा करना होता है, वो तो अलग अलग प्रोडक्ट्स, कम्पनीज के नाम पर ढेरो एस्टिमेट्स दे देते है। और डराते भी है, सब्सिडी बंद होने वाली है, जल्दी लगवा दो, कोई कहता है, मैं आपको सर्विस फ्री करवा दूंगा, कोई कहता है उस कम्पनी से यह बेटर है। कोई कहता है ब्रांडेड से अच्छा लोकल होता है। सस्ता भी होता है, और जल्दी अवेलेबल होता है। कोई कहता है, एक बार खर्चा करो, और ब्रांडेड खरीदो। 

अब सामने तीन रास्ते खुले है, अपने को किस में सहूलियत होगी यह अपने आप को देखना पड़ता है। और अक्सर मैं इन सहूलियतों के चक्करो में उलझ जाता हूँ। हर बार मेरा लिया गया निर्णय गलत साबित हुआ है। इस चक्कर में और उलझन हो जाती है। शाम होते होते तो ३-४ कोटेशन हाथ में थे। देखते है, फिर मैं यही करता हूँ.. देखते है, जो होगी वह देखी जाएगी। और मुझे देखनी भी पड़ती है... (lol) कोई ना, इस बार भी देख लेंगे। 

फ़िलहाल समय हो चूका है आठ बजकर सात मिनिट..! अब विदा दो प्रियंवदा..! कल फिर मिलेंगे.. यहीं पर, लेकिन नए पन्ने पर। 
शुभरात्रि।
(१५/०५/२०२५)

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