अधिकार भाव – प्रेम या बोझ?
प्रियंवदा ! अधिकार भाव कितना सहज है.. हम अपनी वस्तु से लेकर अपने साथी तक पर अधिकार भाव रखते है। गंभीर मुद्दा है न..! हमे अधिकार जताना बड़े अच्छे से आता है। या फिर कुछ भार थोप देते है अपनों पर। अविश्वास का। क्योंकि हम उन प्रत्येक हिलचाल पर अपनी नजरें रखना चाहते है जिनसे हमारा भविष्य जुड़ा है। आज तो सवेरे जागने में सात बज गए। घरवालों ने फटकार सुनाते कहा था, "कितनी बार जगाएं कोई इसी अश्व-विक्रेता को।"
आज आधा चक्कर दौड़कर, तो आधा चक्कर बस चलकर कसरत कर लेने का संतोष ले लिया। हाँ ! चार सूर्यनमस्कार भी। और वापिस घर आ गया। आज तो सुबह सुबह सूर्यदेव आक्रामक मालुम हुए। होने ही थे, क्षितिज से चार हाथ ऊपर तक का आसमान अपना काला मुँह फाड़े इसी सूर्य की और बढ़ रहा था। हवाएं तो बहती थी, लेकिन उतनी नहीं, कि पसीने को रोक ले। घर से तैयार-वैयार होकर निकल लिए बादलो को पीछे छोड़ कर ऑफिस की ओर। हाँ ! बिच में एक जगह उन लोगो ने मुझे घेरा जरूर था, लेकिन मैंने त्वरा दिखाते हुए, उन्हें चकमा देने में सफल रहा। और सूखा सूखा ही ऑफिस पहुँच सका।
मेरे आकर्षण का केंद्र - उजियारी किरण..
अरे हाँ ! मेरी वो उजियारी किरण वापिस आ गयी..! संकटों के सातो आकाश का विच्छेद करते हुए। क्या राजी हुआ था मैं सवेरे। जैसे भूखे को रसगुल्ला मिला। यह किरण कोई आम नहीं है, वैसे आम भी है। फलों का राजा आम। रसदार या रसदाता। और आम - सामान्य - इस लिए नहीं है, क्योंकि यह मेरे लिए मेरा भूतकाल सा मालुम होता है.. आज प्रकृति ने ही इस किरण से मुझे मिलाने के लिए बादल भेजे होंगे। वो आकर्षण का सिद्धांत है न, किसी चीज को शिद्द्त से चाहो तो, पूरी कायनात तुम्हे उससे मिलाने में लग जाती है..! वैसा ही कुछ, इन दो-एक दिनों में मैंने उस किरण हो इतना याद किया है, जितना मैंने अपनी कथित प्रेमिका को नहीं किया होगा। कथित प्रेमिका इस लिए कहा, कि प्रेम में अपन मानते नहीं.. आज भी..! अगर अपन प्रेम को लिखते भी है तो कल्पना देवी जिंदाबाद..!
माता-पिता का संरक्षण बनाम पाबंदियां
एक बात पर ध्यान गया। ऐसा है, हम कभी कभी अति-अधिकारभाव को धारण कर लेते है। जैसे की मातापिता अपने सन्तानो पर कईं सारी पाबंदियां, और समय समय पर निरिक्षण वृत्ति करते रहते है। या तो उन्हें अपने द्वारा दिए संस्कारो पर विश्वास नहीं बैठा है, या फिर वे ओवर प्रोटेक्टिव हो चुके है। क्योंकि आसपास ऐसी कईं सारी अनचाही घटनाएं घटित हो रही है, जिनसे वे स्वयं हतप्रभ है। वे चाहते है की वैसी बला हमारे घर न आए, हमारे सन्तानो से दूर रहे। जरुरी भी है। लेकिन होता क्या है, पारिवारिक पाबन्दिओं के अलावा यह फिर कुछ और अधिक पाबंदियां हम पर थोपी जाती है। एक तो पहले ही भार ढो रहे थे, संस्कारों के संरक्षण का, उसपर यह कुशंकाओं का अधिक भार पड़ता है।
स्वास्थ्य पर कुर्सी प्रेम का असर
पिछले कुछ दिनों में मुझे पेट की समस्याएं हो आयी है। होनी ही थी। मुझे शायद राजनेताओ से भी ज्यादा कुर्सी-प्रेम है। पूरा दिन गारे में बैठे भेंसे की माफिक कुर्सी पर पड़ा रहता था, तो स्वास्थ्य गड़बड़ाना लाजमी भी है। अब लगातार यह समस्याएं बढ़ने लगी, तो माताजी भी चलीं गयीं ओवर-थिंकर मोड में। एक दिन धीरे से उन्होंने पूछा, "न्यूज़ वाले दिखा रहे थे, आजकल लोग नशे की गोलियां लेते है.. कहीं तू भी..?" इनका यह अधूरा वाक्य मुझ पर तो वज्राघात सा पड़ा। दुनियाभर की कसमें खाकर उनका वहम दूर कर पाया मैं। उनका डर वाजिब है। क्योंकि उन्हें भी तो उनके और मेरे भविष्य की चिंता होती है। और खासकर इकलौती औलाद हो तब तो और पाबंदियां होती है। यह जो "हम दो और हमारे दो" है, उसमे हम शायद गलती तो नहीं कर रहे? क्योंकि अक्सर इकलौती औलाद बड़े लाड-प्यार में बड़ी होती है।
पेट की समस्याओं की कहानी
दोपहर को मैं और गजा, इस बादलों से रिमझिम बरसते मेघ का आनंद लेते हुए बिहारी का समोसा खाने चले गए। तबियत पर लगी पाबंदियों के बावजूद.. नजरअंदाज करते हुए खा तो लिए। लेकिन फिर जो पीड़ा उठी है। एक तो यह उमस की अति। खड़े खड़े भी हांफ रहा था मैं। फिर भी काफी देर पैदल चला.. पूरा पसीने से भीगकर..! मैंने अपने पिछले एक पन्ने पर लिखा भी था, यह रसास्वाद का चक्कर किसी दिन खूब परेशान करेगा। यही वे दिन है। इन दिनों में पानी भी एक साथ नहीं पीना चाहिए।
घुमक्कड़ शास्त्र और यूट्यूबर की यादें
लगे हाथ एक और बात सुनो.. मतलब पढ़ो। दोपहर को प्रियंवदा से चर्चा हो रही थी। मुझे चाहिए कुछ यात्रा वृतांत। जिन्हे पढ़कर अपनी उस उजियारी किरण के अलावा भी कुछ प्रेरणा पा सकूँ। तो काफी चर्चाओं के सार में एक 'घुमक्कड़ शास्त्र' पढ़ने के लिए सुचना मिली है। और फिर मैं लग गया गूगल की आराधना करने। धुप-अगरबत्ती करने पर पीडीऍफ़ मिल गयी.. कुछ देर बाद प्रसन्न होकर एक और वरदान दिया। सालों पहले मैं एक यूट्यूबर के ट्रेवल वीडियोस खूब देखता था। क्योंकि वह यूटूबर जहाँ जाता था, उस जगह की एक ऐतिहासिक विस्तृत माहिती भी जरूर दे देता। बड़ा मजेदार था। फिर मैं भी कुछ दिनों बाद उसे भूल गया। आज गूगल ने वरदान में उसी यूटूबेर की वेबसाइट पकड़ा दी। वहां उन्होंने अपनी यात्राएं लिखी भी है। इसके अलावा कुछ यात्राओं को पुस्तक स्वरुप में प्रकाशित भी करवाया है।
उस वेबसाइट पर काफी देर टहला। तभी मुझे याद आया.. प्रियंवदा ने मुझसे पूछा था, "पंचायत की चौथी ऋतु (सीजन) देखि या नहीं?" लेकिन अन्य बातो में वह प्रश्न ओझल हो गया था। दोपहर को डाउनलोड में छोड़ गया था, नाश्ता करने गया तब। लेकिन वापिस लौटा तब तक वह कैंसिल हो चूका था। फिर से गूगल देवी की अच्छे से आराधना करने पर, और इंटरनेट देवता की निरंतर कृपा से पूरा भाग डाऊनलोड हो गया। तो यहाँ फिर मेरे मन का विषयांतर हो गया। आशा की किरण से, यात्रा वृतांत, वहां से कूदा भूख के भंजन पर, वहां से मन कूदा घुमक्कड़ शास्त्र पर, और वहां से उस वेबसाइट पर, वहां से फिर इस पंचायत की चौथी सीज़न पर।
विवाह, संतान और ईर्ष्या की गाथा
दोपहर बाद से यह लिखना शुरू किया था। अभी समय हो चूका साढ़े छह। अभी तक मैंने ही इसे ३-४ बार पढ़ लिया है। लेकिन कोई ऐसी ढंग की बात की नहीं मैंने। अरे मैं कौनसा यहाँ ज्ञान बांटने लिखता हूँ। मैं तो खुद अपनी उलझने यहाँ छोड़ जाता हूँ। फिर भी लो एक और मुद्दा मिल गया लिखने को, अभी अभी पत्ते से बात हुई। हमारे ग्रुप के आदिमकाल के आदमी के घर पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है। तो पत्ता सीधे चढ़ बैठा मुझ पर। बोला, सीखो कुछ उनसे.. प्रयासरत होता है आदमी तो सफलता जरूर हांसिल करता है। अब भूखा, खाए हुए को भोजन कर लेने की सुचना कर रहा है। पत्ते की भी कुछ महीनो पूर्व ही शादी हुई है। तो उनका वो वाला समय चल रहा है, जहाँ सारी दुनिया से मुक्त होकर दो पंछी उड़ रहे होते है।
अब अपन ठहरे ईर्षालु आदमी.. तो पत्ते के मन में एक बात ठांसा दी। शादी के एक साल में घर में किलकारी नहीं गूंजी, फिर वे लोग बड़े धक्के खाते है डॉक्टरों के दर पर। पत्ते को खूब सारे उदहारण दिए। खूब सारे विज्ञान के नाम पर मनगढंत सिद्धांत सुनाए। और बात को यहाँ तक ले गया, कि अब तो विज्ञान ने, यह भी साबित कर दिया है, कि यदि किसी दंपति को संतति नहीं हो रही तो खामी पुरुष में है। स्त्री में कोई समस्या नहीं होती है। और इस तर्क पर तो पत्ते की आवाज तक काँप गयी, तब मुझे अपना तीर सटीक लगने का संतोष भी हुआ। ईर्षालु आदमी क्या क्या करता है.. है न?
ठीक है फिर, आज इतना ही..
ईर्षालु की और से शुभरात्रि..!
(२८/०६/२०२५)
||अस्तु ||
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