रविवार की दास्तान: मॉल की खरीदारी, बाइक पर सफर और पंचायत की चौथी रुत
सुबह का श्रम और आलस का संगम
बताओ, काना बहरे को सलाह दे रहा था, गुस्से नही होना चाहिए। क्या दिन निकला है वैसे..! रविवार.. सवेरे साढ़े छह को ग्राउंड में गया था, पूरा एक घंटा श्रम किया है। लेकिन आलसी जीव वहां भी बचत करता है पसीने की। ना लेकिन ठीक है, वैसे भी दस सूर्यनमस्कार, मुझ जैसे मोटे के लिए पहाड़ चढ़ने समान ही है। खुद पर तरस खाने की कला मैंने अच्छे से सिद्धहस्त की हुई है। खुद ही खुद को दिलासा दे सकता हूँ, कि "अरे दस तो बहुत कम लोग कर पाते है।" खेर, आज रविवार होने के बावजूद नौ बजे तक तो ऑफिस पहुंच गया था। कल की पोस्ट वैसे ही शिड्यूल्ड थी, और शेयर भी कर दी।
सुपरमार्केट का मायाजाल और मन की उधेड़बुन
मौसम तो आज दिनभर कभी बादल तो कभी धूप रही। dmart.. गरीबों की महफ़िल-मार्किट..! आजकल लवरिये यहां भी घूमने आते है। पता नही, यहां क्या है घूमने जैसा? काफी सारे घुघा-घुघी यहां घूमी घूमी कर रहे थे। इतनी भीड़ के बीच भी वे अपनी अलग दुनिया मस्त थे। हमे तो कोई देख लेगा इस बात का बड़ा डर रहता था। पचासी की लिपस्टिक के लिए, घुघा अपनी घुघी को मॉल ले आया था.. भाईसाहब कलर के शेड्स लड़के भी सिख रहे है.. यही अपने आप मे आश्चर्य है। खेर, सुपरमार्केट के साइड इफेक्ट्स से भी आज बहुत अच्छे से रूबरू हुआ। सुपरमार्केट का नुकसान यही है, कि व्यक्ति कुछ ज्यादा ही खरीदारी कर लेता है।
बाइक पर सामान की जद्दोजहद
बल्कि वो भूल जाता है, कि वह कार लेकर नही मोटरसायकल पर आया है। भरभर के दो बैग्स समान खरीदने के बाद ट्राली लेकर पार्किंग में आया, तब अनुभव हुआ, कि आदमी को अपनी औकात में रहना कितना जरूरी है..! यह मॉल वाले भी होशियार है, तीस रुपये की कैरीबैग भी बेचते है। कपड़े की थैलियां..! अब सामान ज्यादा, किसी भी एंगल से अकेला मोटरसायकल पर ले जाने के लिए असमर्थ था। बुद्धि या चातुर्य संकट समय पर साथ दे इससे अच्छा क्या हो सकता है? दो मिनिट के लंबे और गहन सोचविचार के पश्चात, हार चुका हूँ यह तो समझ आ गया, लेकिन स्वीकार नही पाया। सिक्युरिटी गार्ड को ट्राली के संरक्षण का जिम्मा सौंपकर मैं पुनः मॉल के भीतर गया, एक बंजी कॉर्ड ले आया। इलास्टिक वाली रस्सी - जिसके दोनो सिरे पर हुक लगे होते है - ताकि बाइक पर सामान बांध सके, और गांठ न मारनी पड़े।
बंजी कॉर्ड की तरकीब
किसी अनुभवी बाइक राइडर के अंदाज में एक बैग पिछली सीट पर अच्छे से बांध दिया। और दूसरा बेग आगे टंकी पर। बड़ी दुविधापूर्ण यात्रा करते हुए आखिरकार घर पहुंचकर सामान उतारा। घर के बाहर खड़ी कार मुझ पर तंज कसती मालूम हुई मुझे। जैसे कह रही हो, 'बस रेन-कवर हटाने के आलस में आदमी कितना कुछ सेह लेता है..' शाम कहाँ हुई थी अभी। साढ़े तीन बज रहे थे। बादलों से सूर्य निकलता, और जैसे सब कुछ एक ही बार मे जलाने के लिए, अपने तेज किरण फेंकता। बाद में बाइक धुलवाने चला गया। काफी दिनों से गारे-रगड़े का स्वाद लेकर कुछ अलग आवाजें करने लगी थी। वापिस घर लौटा, और छत पर चला गया।
पंचायत की चौथी रुत : फुलेरा की कहानी
कानो में ब्लूटूथ लगाए, और मोबाइल पर चलने लगी पंचायत की चौथी रुत। फुलेरा में परधानी का चुनाव है। इस चुनाव में, एक वो सिन काफी ह्रदय विदारक था, जब विकासबहु को बनराकस की बीवी बड़े कड़वे बोल सुना देती है। हकीकत में इसका दिग्दर्शन बहुत अच्छा है। बनराकस पर क्रोध उपज आता है। और वो बिनोद, जब भोजन पर गया परधानजी के वहां वो भी काफी मजेदार था। अभी तो आधी बाकी है। वह कल समय मिला तो देखकर, फिर लिखूंगा यहां।
बाकी आज दोपहर को माथे का पारा खूब ऊंचे चढ़ा था, गुस्से के कारण, वो सारी बातें ले गया।
शुभरात्रि।
(२९/०६/२०२५)
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अधिकार भाव और जीवन की उलझनें
कभी-कभी हम अपने रिश्तों और वस्तुओं पर स्वाभाविक अधिकार भाव रखते हैं। यह अधिकार कब प्रेम बन जाता है और कब उलझन—इस पर एक आत्ममंथन।
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– दिलावरसिंह