आषाढ़ी बीज : सांझ की डायरी, मच्छरों की धमकी और जगन्नाथ के रथ || दिलायरी : २७/०६/२०२५

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आषाढ़ी बीज की एक सांझ: रथयात्रा, उमस, मच्छर और उड़ते विचार



आषाढ़ी बीज पर ऑफिस की एक व्यस्त दास्तान

    समय हो चूका सायंकाल के सात बजकर दो मिनिट..! और अभी तक यह तय नहीं कर पाया हूँ कि आज लिखूं क्या? है तो आज आषाढ़ी बीज, लेकिन मैंने दिनभर ऑफिस में कम्प्यूटर के आगे बैठकर ही गुजारी है। विषय तो यही है आषाढ़ी बीज, लेकिन इस पर पहले कईं बार लिख चूका हूँ। वो एक नयापन आएगा नहीं। एक तो वो मेरी आशा की उजियारी किरण भी कहीं चली गयी..! पता भी नहीं चल रहा है, कि वो परदे के पीछे खड़े रहकर, तमाशबीन भी बना है या नहीं..?


रथयात्रा के भजन और रात की ठंडी हवा का आलिंगन

    सुबह आज कुंवरूभा को तो छुट्टी थी, लेकिन फिर भी मैंने तो अपना जल्दी जागने वाला नित्यक्रम बना रखा है। कल तो सो भी जल्दी ही गया था, लगभग दस बजे ही। कल उमस इतनी थी कि चलने भर से शरीर हांफ जाए.. मैं भोजनादि से निवृत होकर जगन्नाथ मंदिर गया था, रात साढ़े नौ बजे होंगे.. रथ एकदम तैयार था। एक वर्तुलाकार में बैठकर कुछ लोग भजन कर रहे थे। झांझ, पखावज के नादों के साथ वे लोग ओड़िया भाषा में बड़ी तीव्र ताल में भजन कर रहे थे। एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद मैं घर आया और सो गया।


मंदिर में श्वेत साफों वाले जगन्नाथ – सुबह के पावन दर्शन

    सुबह जगन्नाथ मंदिर पर कोई पुलिस पहरा न था। हर बार तो वहां गेट से बड़ी दूर ही बाइक खड़ी करवा देते है, उन्हें नहीं पता होता है, कि यह हररोज का ग्राहक है जगन्नाथ जी का। आज तो मंदिर के पटांगण तक बाइक जा सकती थी। दर्शन किये, श्वेत, रत्नजड़ित साफे में सुसज्ज जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलभद्र जी, तीनो तैयार ही बैठे थे। और फिर मैं ऑफिस आ गया। क्या करें? नौकरीपेशा आदमी छुट्टी कैसे ले? जब उसे पता हो, कि बीते दिनों का कुछ भार, आज ही निपटाना कितना जरुरी है। ऑफिस पहुंचकर लग गया काम में।


अहमदाबाद की रथयात्रा में हाथी की मस्ती

    काम होता है न, तब यह पता नहीं चलता है, कि कब दोपहर हो गयी..! क्योंकि व्यस्त होता है, उसे वक्त का तकाजा नहीं रहता। अरे वाह.. मस्त लाइन थी न..? व्यस्त, वक्त और तकाजा..! बढ़िया था गुरु..! खेर, काम के बिच से थोड़ा समय चुराकर एक स्टोरी भी चढ़ाई.. जरुरी है न। वरना कहीं दुनिया यह न सोच ले कि मेरे पास फ़ालतू समय है ही नहीं। यह भी तो समस्या है। दोपहर को रील देख रहा था। समाचार आया कि अहमदाबाद की रथयात्रा में, एक हाथी अलग मस्ती में आ गया। वो रथयात्रा से बाहर होकर एक अलग रस्ते पर दौड़ पड़ा। हाँ कुछ लोगो को टक्कर जरूर मारी, लेकिन फिर महावतों ने नियंत्रण में ले लिया। यह अहमदाबाद पर साढ़े साती तो नहीं चल रही कहीं?


ऑफिस की आपाधापी में पेंडिंग ड्राफ्ट्स का पुनर्जन्म

    दोपहर बाद आज तो शब्द फूटने लगे.. मेरे कुछ पेंडिंग ड्राफ्ट्स है। बीचमे कुछ बीमारी के चलते उन्हें दरकिनार कर दिया था। आज वे रास्ता रोके खड़े हो गए। तो तिनेक ड्राफ्ट्स पुरे किये। सोचता हूँ उन्हें अभी से पब्लिश न करूँ। जब किसी दिन कहीं बहार जाना हुआ, तब उन्हें शिड्यूल्ड कर दूंगा ताकि एक प्रतिदिन की नियमितता बनी रहे। लेकिन फिर यह भी बात है कि तब तक बड़ी देर हो जाएगी।


मच्छरों का स्नेहमिलन और अंधेरे में छुपे हमलावर

    यह दिनभर गायब रहते मच्छर, अँधेरा होते ही ऑफिस में इकठ्ठा होने लगते है। जैसे इनका भी स्नेहमिलन आयोजित होता हो। कभी पैरो पर धावा बोलते है, तो कभी इतने साहसी हो जाते है कि गालो पर चूमकर चले जाते है। निर्लज्ज मच्छर! आदमी छेड़ रहे है। बताओ, क्या जमाना आया है, जिन गालों को माशूका के लिए घिसते है, उसे मच्छरों ने चूस लिया। क्या इलाज किया जाए इनका? काला हिट को तो चकमा देना सिख चुके है ये शायद। उसके प्रभाव में छिपे रहते है। जैसे ही प्रभाव कम हुआ, फिर से छापामार युद्ध की घोषणा कर देते है। हमला तो करते है, साथ ही कान के पास से गुजरते हुए धमकी तक दे जाते है। हाँ ! भाषा तो समझ नहीं आती, लेकिन धमकी ही देते होंगे। रक्त पिने वाले प्यार की बोली थोड़े बोलेंगे?


बरसात में बहती व्हिस्की – सूरत की बेमिसाल बारिश

    अंधेरो ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है। द्वितीया का रेखा-चंद्र, अभी तो कहीं नहीं दिख रहा। हाँ ! आसमान साफ़ हो चूका है। जबकि सरकारी सन्देश है, अति भारी वर्षा का। यह बड़ा सही सिस्टम है। और काफी अचूक भी। मेसेज आया है, तो कहीं न कहीं तांडव होगा ही। पिछले कुछ दिनों में सुरत की सूरत बदल ही दी। इतनी बारिश हुई, कि छिपाकर रखी हुई व्हिस्की की बोतलें तक अपना अलग रास्ता नापना लगी.. रोड पर बहते पानी में शराब की बोत्तले भी तैरती पायी गयी। भारी नुकसान हुआ होगा किसी का। एक तो ब्लेक में खरीदते है गुजराती, ५०० का हजार देकर। उसे भी पानी बहा ले जाए तो कितना जी जले..?


गायब होती चिड़ियाँ और तार पर बैठा अकेला तोता

    प्रियंवदा ! शाम होते ही बढ़िया ठंडक हो जाती है। जैसे सर्दियाँ आ गयी हो। पर कुछ देर ही। अभी गर्मियां वापिस लौटेगी। यह ऋतु का संधिकाल है। दिन गर्मियों से भरा हुआ, रातें ठण्ड। दिनभर आग उगलता पंखा भी जैसे शाम को अपना सूर बदल लेता है। आजकल चिड़ियाँ भी सुनाई नहीं पड़ती। शायद इन मशीनों के चिंघाड़ते रव में, वह मासूम मल्हार दब जाता है। अरे हाँ ! आज बड़े दिनों बाद एक मुक्त विहरता तोता भी एक खंबे के तार पर बैठा दिखा। गायब होता जा रहा यह पक्षी जगत वास्तव में एक चिंता का विषय है। लेकिन किस के पास इतना फालतू समय है, इन उड़ते जीवो के लिए सोचने का। दुनिया को भी उडता हुआ तो कुछ चाहिए, लेकिन वह सतत अपग्रेड होती जनरेशन का फाइटर जेट होना चाहिए। 


    खेर, अब विदा दो, मैं फिर से एक बार बगैर प्रियंवदा के सूचनो के अनेक-विषयों को आवरने वाला हो चूका हूँ। जिस लेख का सर पैर न हो वह मेरी कलम है शायद। अबाध्य, कहाँ से शुरू होती है, और कौनसी बात पर रुकेगी, मैं भी नहीं जानता।


    शुभरात्रि।

    (२७/०६/२०२५)

|| अस्तु ||

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– दिलावरसिंह


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