संघर्ष या मूर्खता? एक बारिश से भीगी सुबह
प्रियंवदा ! संघर्ष और मूर्खता में बड़ी दुबली रेखा होती है। संघर्ष को मूर्खता में बदलने से वह दुबली रेखा रोक नहीं पाती है। किसी कार्य को करते हुए संघर्ष किया, लेकिन फिर वह संघर्ष - संघर्ष न रहा। ऐसा होता है, अक्सर। आम जीवन में कई बार। लेकिन समझ आता है, बहुत बाद में। सुबह ऑफिस के लिए निकला तब पूरा आसमान घिर चूका था। बादलो के दल ने सूरज के किरणों को बाँध लिया था। मुझे लगा आज बारिश टूट पड़ेगी। यह इस वर्ष वर्षा कुछ जल्दी आ चुकी है।
जेठ मास में आषाढ़ की दस्तक
हर वर्ष आषाढ़ी बीज - जिस दिन प्रभु जगन्नाथ नगरचर्या पर निकलते है - के दिवस छुटपुट बूंदाबूंदी होती थी। आषाढ़ी बीज कच्छ तथा समस्त जाडेजा राजवंश का नववर्ष मनाया है। लेकिन अभी तो जेठ मास चल रहा है, वैसे तो माना जाता रहा है की भीम ग्यारस से खेती शुरू कर दी जाती है, लेकिन बादलों का बरसना आम तौर पर आषाढ़ से शुरू होता है। आषाढ़ में पहली बारिश सारे ही नदी-नालों को तोड़ देते है। हमारे गाँव तरफ ऐसा ही हुआ, ऑटोरिक्शा आड़े पड़े हुए बहते जाते दिखे गलियों में। स्कूटियां की तो क्या ही बिसात?
ऑफिस, उमस और उलझनें
इस कारणवश मैं कार लेकर ऑफिस पहुंचा। रातभर हुई रिमझिम ने रोड पर कई गढ्ढो को जन्म दिया था, तथा लबालब भरे हुए पाए गए। सांप की चाल पर चलती कार मुझे ऑफिस जरूर पहुंचा देती है। काम कुछ ज्यादा न था। बारिश जैसे मौसम के चलते सब को ही आलस ने घेरे हुए था। लेकिन नौकरी तो नौकरी होती है। और बगैर काम के मिला पैसा पचता भी तो नहीं, यही सोच कर जबरजस्ती एक काम ढूंढा और उसीमे दोपहर का एक बजा दिया। दोपहर को घर चल दिया, एक जगह भोजन का निमंत्रण था।
जब बारिश ने पुलिस की तरह लाठीचार्ज किया
उमस खूब थी, वहां जहाँ भोजन समारम्भ था, एक व्यक्ति को पेरेलिसिस का अटैक आ गया, एक को वोमिटिंग होने लगी..! उमस बड़ी बुरी बला है, इस में थोड़ा थोड़ा कर पानी पीते रहना चाहिए। और हो सके तो खुले में बैठना चाहिए। क्योंकि उमस के कारण घुटन भी अनुभव होती ही है। मैं भोजनादि से निवृत होकर घर चला, और कार वहीँ छोड़ बाइक लेकर ऑफिस के लिए निकला। निकलते ही बारिश ने भीड़ पर लाठीचार्ज करती पुलिस की माफिक बड़ी बड़ी बूंदो की बौछार कर दी। मैं हाइवे का एक पहचान का ढाबा देख, बाइक साइड में लगाकर वहीँ रुक गया।
ढाबा, ट्रांसफॉर्मर और शेड की कहानी
रुक तो गया, लेकिन बारिश बंद होने का नाम ही न ले। ऊपर से अपनी गति और बढ़ा दी उसने। जिस शेड के निचे मैं आश्रय लेकर बैठा था, जैसे उस शेड को उसे नामशेष कर देना था। शेड के पतरों की दरारों से पानी बहने लगा। सामने खड़ा नीम मुझे झूमता हुआ लगा। हवाओं के संग कभी दाएं झूमता, कभी बाएं। अचानक से गर्मियों से हुई राहत का फल ठण्ड अनुभव हुई। मिल बंद हो चुकी थी, इस बात की टेलीफोनिक जानकारी गजे ने दी। कारण बताया, ट्रांसफॉर्मर में बारिश के कारण धमाका हुआ।
बाइक की मूर्खता या बारिश का संघर्ष?
सोचा अब काम तो कुछ है नहीं, तो बारिश में भीगने का मौका कौन छोड़े? सो बात की एक बात प्रियंवदा ! बारिस में नहाने का मजा ही अलग है। ऑफिस पर कोई काम न था, लेकिन मैं बस भीगने के लिए मेरा ऑफिस पर पड़ा टैंक-बैग लेने गया। कहने को तो अति-भारी बारिश में बाइक चलाना एक संघर्ष है। लेकिन मैं जिस हाइवे से चलता हूँ, वहां बारिश में बाइक से चलना मूर्खता है। लेकिन मन की सुनने वाला, संघर्ष समझकर मूर्खता कर बैठा। ढाबे पर ही टकने तक पानी भर चूका था।
मैं मोटरसायकल लेकर निकल पड़ा। लेकिन ओवरब्रिज चढ़ते ही दिमाग ने तो कह दिया की यह एक मूर्खता है, क्योंकि वहां ओवरब्रिज की ढलान के कारण घुटनभर पानी भर चूका था। मैंने आव देखा न ताव, पानी के बिच से बाइक दौड़ा दी। नई बाइक है मेरी, इस कारन से बंद होने की सम्भावना न बराबर थी। और जब पता होता है कि खतरा कम है, तब आदमी और बड़े रिस्क लेता है। ऐसी बारिश में, मोटरसायकल पर एक तरफ आँखे ही नहीं खुल रही थी, और लगातार ट्रक्स बड़ी तेजी से ओवरटेक करते है। कार वाले अपने शीशे चढ़ाये हुए बाहर के वातावरण से बेखबर लगातार हॉर्न बजाकर ओवरटेक करने के लिए परेशान करते है।
पिंडियों तक पानी और गालियों का तरकश
तब समझ आ गया था कि यह मूर्खता है, जब एक ट्रक वाले ने बिलकुल नजदीक से ओवरटेक करके रोड पर पड़ा पानी उड़ाया। फिर अपने तरकश से बड़ी बड़ी गालियाँ उस ट्रक वाले को रुकवा कर उसे भेंट की, और फिर अपनी मंजिल की और आगे बढ़ गया। ऑफिस तक पहुँचने के लिए कुछ सातसौ-आठसौ मीटर कच्ची सड़क है। गड्ढेयुक्त, और पानी से भरी हुई। हाँ ! गहराई कुछ इस तरह समझ सकते है, कि उस गढ्ढे से गुजरते हुए पानी पैर की पिंडियां भीगा देता है। अभी तो वह केवल पानी है, कुछ दिनों में सुखकर वहां कीचड़ होगा, वो भी फिसलन भरा। कई लोग स्लिप होकर हॉस्पिटलों में चन्दा देंगे।
‘मुअनजोदड़ो’ और नींद की सांझ
एक बिल बनाना था, पूरा भीगा हुआ था, बावजूद एक बिल बनाकर घर के लिए निकल गया। घर पहुंच कर फिर एक बार शावर के निचे खड़े होकर पेरो पर कीचड़-त्याग विधि पूर्ण की। और फिर बैठ गया वो 'मुअनजोदड़ो' लेकर। कुछ चालीसेक पन्ने पलटे थे कि मौसम की ठंडक ने आँखों को भारी कर दिया। लेटे लेटे एक झपकी आ गयी, साढ़े नौ ही बजे थे। आँखे खुली, तो मुंह पर किताब भी सोई मिली। फिर सोचा अब आँखों को और कष्ट न दिया जाए पहरेदारी का। किताब को रखी गद्दे के निचे, और जो सोया हूँ..
शुभरात्रि।
(१७/०६/२०२५)
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"क्या कभी आपने भी संघर्ष की आड़ में कोई मूर्खता कर डाली है...?
तो बताइए ज़रूर — कमेंट में अपनी 'बारिश' की कहानी छोड़ जाइए।
तो बताइए ज़रूर — कमेंट में अपनी 'बारिश' की कहानी छोड़ जाइए।
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