मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 01/07/2025Time & Mood - 19:09 || आशा से ओतप्रोत..
अगर तुम मुझमे होते..
प्रियंवदा ! एक समय आता है। जब लगता है, मैं तुम में हूँ, तुम मुझ में हो। हमारे बिच कोई दूरियां नहीं है। तुम एक दर्पण हो, जिसमे मैं खुद अपने आप को निहार रहा हूँ। रात में तुम्हारे भीतर मैं चाँद बना उगता हूँ। कोई नदी अपने ही किनारो से आलिंगनबद्ध हो। वो क्षितिज.. जहाँ यह धरा और आकाश एक हो जाते है। पूर्ण एकांत, और एकात्मता।
तुम मुझ में हो, यह मैं भलीभांति जानता हूँ। स्वीकारता हूँ। बाह्य दूरियां इतनी मायने नहीं रखती, जब हम भीतर से बंधे हो.. बिलकुल पास, करीब, उतने जितने चंद्र है नक्षत्रो से। उतने करीब जितने चंद्र ने पृथ्वी की परिक्रमा की है। उतने करीब जितने सारस होते है। वहां दुःख तुम्हे होता है, आंसू मेरे बहते है। चोट तुम्हे लगे तो पीड़ा मुझे होती है। वह स्थिति भी वर्णित है, तो होती भी है। वर्णन उन्ही का होता है, जो अनुभव से होता है। जैसे यह.. कि तुम मुझमे हो..!
एक सवाल :
अवकाश को शून्य की संज्ञा क्यों दी जाती है, जब की वह तो इतने ग्रहों को अपने आलिंगन में लिए बैठा है...
सबक :
जब यह एकात्मकता का भाव पनपता है, तब कईं मिलो की दूरियां भी दूरी नहीं लगती।
अंतर्यात्रा :
उस दर्पण के प्रतिबिम्ब में भी हम अलग नहीं, दर्पण के सत्यवक्ता होने की तो कसमे खायीं जाती है।
स्वार्पण :
आत्मिक प्रेम में खुशियां ही होती है, क्योंकि करीबियां ही अनन्य है।
मैं अपने आप को आलिंगन कर सकता हूँ, तुम मुझ में ही तो बसती हो।
जिसके आँखे बंद कर लेने से तुम आ जाती हो..
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