दीवाली की रात बारह बजे की शुरुआत
प्रियम्वदा !
घूमना किसे पसंद नहीं होगा? ऊपर से मैं तो ड्राइविंग का शौक़ीन हूँ.. कार चलाने में मुझे पता नहीं कौनसा रस टपकता है। कितने ही किलोमीटर का सफर हो, मैं कार चलाता ही जाऊं। ठीक रात के बारह बजे मैं घर से निकल पड़ा। घर से नजदीक ही पेट्रोल पंप है। टंकी फुल करवानी थी। बैग वगैरह कार की बोनट में रख दिए थे। पेट्रोल पंप पहुंचा, और टैंक फुल करवाने लगा। तभी पुष्पा का फोन आया, "लाइसेंस ओरिजिनल चहियेगा महाराष्ट्र में। वहां अपनी तरह ट्रू-कॉपी नहीं चलेगी।" बड़े सही मौके पर उसने मुझे यह बात याद दिला दी। यहाँ गुजरात में तो ट्रू कॉपी चल जाती है, क्योंकि शहर से बाहर जाना मुझे होता नहीं है।
पुष्पा का फोन और लाइसेंस का ड्रामा
वापिस घर लौटा। घर तो बंद हो चूका था। ऊपर से पटाखों का इतना ज्यादा शोर शराबा था, कि मैं घर का गेट खटखटा रहा था, लेकिन कोई घर खोल ही नहीं रहा था। फोन पर फोन की घंटिया बजती रही, लेकिन फिर भी किसी ने गेट ही नहीं खोला। दिवार फांदने ही वाला था, कि माताजी ने दरवाजा खोला। मैंने अलमारी से अपना ओरिजिनल लाइसेंस लिया, और फिर से उनके पैर छूकर निकल पड़ा। अबकी बार सीधे ही पुष्पा के घर पर जाकर कार रोकी। उसके घर से कुछ पुराने न्यूज़ पेपर्स भी ले लिए। कार का शीसा साफ़ करने के लिए ही तो।
बहादुर की एंट्री और आधी रात की तैयारियां
अब अगला स्टॉप था ऑफिस पर। ऑफिस से बहादुर को भी साथ लेना था। (इसका नाम कुछ और है लेकिन मैंने इसका नाम बहादुर रखा है। इसे मैंने बहादुर नाम क्यों दिया है, वह आगे की कहानी में आ जाएगा।) बहादुर अभी तक तैयार हो रहा था। पता नहीं कौनसे लाली-पाउडर लगाने थे इसे भी रात में। हाँ ! वैसे दीखता थोड़ा हीरो टाइप है। इसलिए ज्यादा चमकना जरुरी भी है इसे। लगभग एक बज रहा था रात का। और हम अभी तक ऑफिस पर ही थे। अपने यहाँ रात की ठण्ड शरीर को ठंडा करने लगी थी। और ठण्ड में मेरा अंगूठा ज्यादा दर्द करने लगा था। मन में एक ही बात बार बार उठ रही थी, कि कहीं भीतरी चोट आगे चलकर ट्रिप में परेशां न करे।
बहादुर तैयार होकर आ गया। निकलते ही पास की दूकान पर रूक गए। मैं चौंक गया, रात के एक बजे तक यह दुकान क्यों खुली है? दुकानदार बाड़मेरी है। ऊपर से ब्राह्मण। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वे लोग रात के दो बजे के मुहूर्त पर दिवाली की पूजा करेंगे। और उसके बाद पटाखे फोड़ेंगे। रात के तीन बजे कौन पटाखे छोड़ता है भाई? लेकिन इन लोगो के पूजन की तैयारियों की डिस्टर्ब करने के बजाए हमने कुछ नमकीन और चिप्स के पैकेट खरीदे, और जय माताजी कर निकल पड़े।
चलो अब ट्रिप की झांकी दे देता हूँ थोड़ी। मेरा वह मथुरा, आगरा, अयोध्या, प्रयागराज, वाराणसी और देवघर वाला प्लान तो ठन्डे बक्शे में चला गया था। क्योंकि वहां इस बहादुर का लगभग एक महीने का पगार चला जाता। उस ट्रिप पर एक जने का मिनिमम खर्च अठारह हजार से ज्यादा आने वाला था। मैं और पुष्पा तो तैयार थे। लेकिन यह बहादुर पानी में बैठ गया। उसका कहना यह भी था, कि उसके गाँव बिहार से यह देवघर बहुत नजदीक पड़ता है, मैं वहीँ से चला जाऊंगा। उसकी बात भी ठीक है। उसके लिए यह बहुत ज्यादा खर्च था। उसके मना करने के बाद हम भी मायूस हो गए थे। मुझे दूसरी ट्रिप याद तो थी, लेकिन नादुरस्त तबियत के चलते मैं इस प्लान पर बात कर नहीं पाया था।
खेर, पुष्पा को अति उत्साह था घूमने जाने का। उसने ही मुझे और पुष्पा को यह ट्रिप याद दिलाई। मैंने दो ट्रिप प्लान कर रखी थी। एक तो वह देवघर वाली। दूसरी यह महाराष्ट्र के तीनों ज्योतिर्लिंग वाली। दरअसल यह महाराष्ट्र के तीनों ज्योतिर्लिंग की ट्रिप मैंने उज्जैन से वापिस लौटने के कुछ दिनों बाद ही बनायीं थी। दो साल पहले दिवाली पर ही मैं, पुष्पा और यह बहादुर उज्जैन और ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन को गए थे। (गुजराती में वह ट्रेवल ब्लॉग लिखा था, यहाँ पढ़ सकते है।) वह ट्रिप भी काफी मजेदार और यादगार रही थी। तो मैंने तमाम ज्योतिर्लिंग की ट्रिप प्लान कर रखी थी। और एक एक्सेल शीट में सेव कर रखी थी।
इस ट्रिप में घर से निकलते ही पहली रात्रि त्र्यंबकेश्वर में रुकना था। दूसरी रात्रि भीमाशंकर में। और तीसरी और चौथी रात घृष्णेश्वर में। क्योंकि घृष्णेश्वर में ही एल्लोरा की प्रसिद्द गुफाएं है। एक दिन ज्योतिर्लिंग, और एक दिन घृष्णेश्वर। रेस्ट भी हो जाए, और वापसी में १००० किलोमीटर की ड्राइव करने में दिक्कत न हो। पार्टी-शार्टी भी उसी दिन करनी थी। सब कुछ प्लानिंग तय थी। कुल मिलाकर सताइश हजार का खर्चा था, और एक एक के हिस्से में शायद नौ हजार आने थे। कुल चार रात और पांच दिन की ट्रिप थी। और लगभग तेईससौ किलोमीटर का सफर।
गुजरात की सड़कें, चाय के ठेले और ठंडी हवा
तो रात एक बजे हम लोग ऑफिस से निकल पड़े। गांधीधाम से अहमदाबाद तक तो रोड के बारे में कुछ भी कहने की जरुरत नहीं। दिवाली की छुट्टियों के कारण रोड पर ट्रक्स भी काफी कम दिखे। हम लोग इस कारण से भी जल्दी सुबह निकलते है, क्योंकि कच्छ से बाहर निकलने के लिए सूरजबारी के पुल पर हमेशा ट्रैफिक जैम मिलता है। इसी कारण से लगभग हर कोई कार लेकर सुबह सुबह जल्दी ही निकलने की कोशिश करता है। हमें यह फायदा मिला की दिवाली की ही रात थी, इस कारण से ट्रक भी कोई कोई ही दिखा हमे।
सामखियाली में पहला स्टॉप लिया हमने, बापा-सीताराम की चाय अच्छी मिलती है वहां। घर से लगभग पचास किलोमीटर पर ही स्टॉप ले लिया, इस पर से अंदाजा लग सकता है, कि दिल्ली कितना दूर पड़ेगा हमें। हमे कौनसा दिल्ली जाना था वैसे भी। हम तो महाराष्ट्र जा रहे थे। मराठी आती नहीं है, यह भी शंका तो थी मन में। यहाँ से निकले, और अब पहुंचना तो चाहिए था हमें अहमदाबाद, लेकिन ध्रांगध्रा के आगे फिर से एक स्टॉप 'मौजे मस्तराम' में ले लिया। यहाँ भी एकदम कड़क चाय मिलती है। लोग रोड की उस तरफ भी अपना वहां रोककर यहाँ की चाय की चुस्कियां लेते है। चाय पिने का असली मजा तो रकाबी / अडारी (प्लेट) में आता है। गुजराती में कप की प्लेट को रकाबी कहते है, हमारी ओर सौराष्ट्र में अडारी भी कहते है।
एक्सप्रेसवे पर उड़ती कार और नींद का अंत
मस्त दो कड़क चाय पीकर, एक मावा चढ़ाया और फिर चल पड़े। अब तो हमने ठान लिया कि स्टॉप लेना नहीं है कहीं भी। फिर अहमदाबाद पार करने के बाद, हमें वड़ोदरा वाला एक्सप्रेसवे लेना था, लेकिन हम नडियाद-आणंद वाले हाइवे पर चढ़ गये। लगभग पांच-सात किलोमीटर ही आगे आए थे। हमने वापिस मोड़ ली। और गूगल मैप के सहारे वापिस एक्सप्रेसवे पर चढ़ गए। इस एक्सप्रेसवे पर कहीं भी गाडी कहीं भी रोक नहीं सकते। आपको चलते ही रहना है। यहाँ ट्रैफिक भी सतत चालू रहता है। कोई बम्प नहीं, कोई भी मोड़ नहीं। सीधी रेख में एक स्पीड मेन्टेन कर सकते है। हमने ने एक्सप्रेसवे पर चढ़ते ही टोल बूथ के पास चाय वाले के यहाँ रोक ली। मैंने एक सिगरेट खींची, कार के शीशे साफ़ किये, पानी की बोत्तल फिलअप कर ली। और चल पड़े।
पेट्रोल, चाय और प्लास्टिक से दूरी
इस ट्रिप पर हमने तय किया था, पानी की बोतल खरीदेंगे नहीं। अपने साथ जो बोतल लाये है, उसे ही फिलअप करते रहेंगे। पेट्रोलपंप से, या किसी ढाबे से, या किसी होटल से भी, इसी बोतल को हमें फिलअप करते रहना था। नई बोतल खरीदकर फेंकनी पड़े, ऐसा काम हम नहीं करेंगे। हाँ ! जहाँ तक बन पड़ा है, मैंने मावा का प्लास्टिक भी इधर उधर कहीं नहीं फेंका है। एक बार बहादुर ने नमकीन का पैकेट गलती से कार का शीशा उतारकर फेंक दिया था, वही। बाकी हमने कार में इकठ्ठा किया, जहाँ स्टे लिया, वहीँ यह सब कूड़ा कचरा डस्टबिन को सौंपा।
खेर, इस एक्सप्रेसवे पर चढ़ते ही, मेरी सारी नींद उड़ गयी। कार 115 की स्पीड पर चलती जा रही थी। बार बार लेन चेंज करके ओवरटेक करके वापिस अपनी लेन में आ जाना मुझे काफी मजेदार मालुम पड़ रहा था। एक ही घंटे में हमने यह एक्सप्रेसवे नाप लिया। हकीकत में दिल्ली मुंबई एक्सप्रेसवे यहीं से कनेक्ट हो रहा था, लेकिन गूगल मैप्स में सैटेलाइट व्यू में इस जगह पर रोड बना हुआ नहीं दीखता है। यह तो दूसरी कार वालों के पीछे पीछे हम लोग भी इस एक्सप्रेस वे पर चढ़ लिए। तो काम बन गया हमारा भी।
यह दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे काफी मजेदार है। वर्ल्ड-क्लास रोड है। यहाँ भी आपको कार रोकने पर पाबन्दी है। लेकिन फिर भी एमर्जेन्सी लेन भी बनी हुई है। आप कार को लेफ्ट साइड में दबा सकते है। हमने सोचा था, सुबह सुबह वड़ोदरा की सुप्रसिद्ध डिश 'सेव-उसळ' खाएंगे। लेकिन इस एक्सप्रेसवे पर चढ़ते ही उतरने को मन ही नहीं करता है। सूर्य देव ने अपना अस्तित्व उजागर कर दिया था। वड़ोदरा तो बाई-पास कर दिया था हमने। तो कहीं भी अब नाश्ते का स्टॉप लेने का स्थान था ही नहीं।
इस एक्सप्रेसवे पर चढ़ते ही मेरी नजर गयी फ्यूल-मीटर पर। बस दो बार बचे थे। एक बार बचते ही कार रिज़र्व फ्यूल पर चलने लगती है। इस एक्सप्रेस वे पर जगह जगह पर सेपरेटेड रेस्ट एन्ड सर्विस एरिया बने हुए है। वड़ोदरा से कुछ आगे निकलते ही एक भारत पेट्रोलियम का पंप और रेस्ट एरिया दिखा। मैंने वहीँ रोक ली। यहाँ सिर्फ पावर पेट्रोल ही मिलता है। पावर थोड़ा महंगा होता है। नार्मल पेट्रोल ९५ का है, तो यह पावर १०४ का। हम एक निश्चित बजट बनाकर चल रहे थे। तो सिर्फ १००० का ही फ्यूलअप करवाया, ताकि एक्सप्रेस वे छोड़ते ही, फिर से नार्मल पेट्रोल भरवा सकें। यहाँ रेस्ट एरिया में KFC, मैक्डोनाल्ड्स, और वड़ोदरा का सुप्रसिद्ध जगदीश की फ्रेंचाइस है। सुबह के सात या आठ बज रहे थे। कोई भी खुला नहीं था अभी तक। तो हम टायर प्रेशर चेक करवा कर फिर से रोड पर चढ़ लिए।
यह एक्सप्रेस वे पूरा अभी तक बना नहीं है। अंकलेश्वर के आगे काम चालू है। हम वड़ोदरा से नॉनस्टॉप निकले, भरुच के दहेगाम तक हमने १०० की स्पीड मेन्टेन रखी थी। दहेगाम पर टोल बूथ है, और हाइवे अथॉरिटी की होशियारी देखिए आप। दहेगाम पर एक्सप्रेसवे पर बेरिकेड्स लगाकर सारा ट्रैफिक दहेगाम के एग्जिट टोल-बूथ पर डाइवर्ट किया। टोलबूथ से निकल कर ही, आप फिर से दूसरी लेन पर यू-टर्न ले सकते है, आगे अंकलेश्वर तक जाने के लिए। हमने भी टोलबूथ से क्रॉस होकर यु-टर्न लेकर वापिस अंकलेश्वर तक चल दिए। और अंकलेश्वर में अचानक से यह एक्सप्रेसवे रूक गया। हमें लगा था, कि हमने इस एक्सप्रेसवे पर वड़ोदरा से एंट्री तो की थी, लेकिन यहाँ अंकलेश्वर में एग्जिट तो था ही नहीं। तो हमारा टोल का पैसा बच गया।
लेकिन दरअसल वो दहेगाम वाला यू-टर्न ही इसी लिए था, कि उस टोल बूथ पर एग्जिट हो जाए, और टोल का पैसा कट जाए फास्टैग से। खेर, यहां से अंकलेश्वर तक पहुँचने का रास्ता खेतो के बिच से होकर गुजरता है। पुंगाम नामक गाँव से होते हुए अंकलेश्वर पहुंचना है। और वहां से अपना पुराना वाला स्वर्णिम चतुर्भुज राष्ट्रिय धोरीमार्ग (Golden Quadrilateral) मिल जाता है। जिसे ज्यादातर हम अहमदाबाद-मुंबई हाइवे के नाम से पहचानते है। यह रोड की हालत ठीक-ठाक है। गड्ढे भी है, बम्प्स भी है, और रोड को रिपेयर भी किया गया है।
अंकलेश्वर का बापा-सीताराम और घटिया नाश्ता
अंकलेश्वर में हमनें नाश्ता किया। जीवन में दोबारा कभी उसके पास नहीं रुकूंगा। जहाँ से इस स्वर्णिम चतुर्भुज पर चढ़ना था, वही फ्लाई-ओवर के निचे बापा-सीताराम पढ़कर मैंने कार रोक ली। बापा-सीताराम लिखा हुआ हो कहीं भी, तो वह जरूर से गुजरात के सौराष्ट्र प्रान्त का होगा। प्रसिद्द संत थे बापा सीताराम। वे सदा ही 'सीताराम' शब्द का जाप करते रहते थे, और संत थे इस कारण उनका नाम ही हो गया 'बापा सीताराम'..! भावनगर जिला में बगदाणा गाँव में उनका आश्रम है, तथा रामजी मंदिर है। यहाँ अंकलेश्वर में बापा सीताराम पढ़कर मैंने स्टॉप ले तो लिया, लेकिन इससे घटिया नाश्ता कहीं हो भी नहीं सकता था। बस नाम बापा सीताराम का था, बाकी लोग राजस्थानी थे।
हम फिर से एक बार हाइवे पर चढ़ गए। अबकी बार नेशनल हाइवे था। मुंबई तक जाता है यह रोड, और हमने वापी के आसपास एक बार फिर से पेट्रोल टैंक फुल करवा लिया। क्योंकि महाराष्ट्र में पेट्रोल का भाव 104/5 है। और हम ठहरे गुजराती। एक-एक पाई जोड़-जोड़कर चलने वाले। एक बात और है, यहाँ के लोग या तो मूर्ख है, या हमें मूर्ख समझते है। जिन्हे भी दूरी पूछो तो लंबी लंबी फेंकता है। वापी में पेट्रोल पंप वाले से पूछा तो कहता है, महाराष्ट्र बॉर्डर ७० किलोमीटर दूर है, जबकि सिर्फ बीस किलोमीटर था। ऐसा दो-तीन बार हुआ। फिर हमने लोगो से पूछना ही छोड़ दिया।
महाराष्ट्र में प्रवेश और मिसळ-पाव की महक
महाराष्ट्र में दाखिल हो चुके, कोई नाकाबंदी या चेकपोस्ट थी ही नहीं। तलासरी गाँव से पहले होटल जलाराम देखकर रूक गए। पास ही वाइन एंड बियरशोप भी थी। पुष्पा और बहादुर खुशामखुश हो गए। बोले, यहीं रुकना है। अपने को क्या है.. घर की गाडी है। वहीँ रूक गए। उन दोनों ने एक-एक बियर खींची। मुझे तो ड्राइविंग करनी थी, और मैं थोड़ा नियम-कानून के प्रति सजग हूँ, तो मैं यह सब पालन करता भी हूँ। फिर हमनें वही जलाराम में दोपहर का भोजन कह लो या ब्रंच, दोपहर के एक बजे करीब लिया। महाराष्ट्र में दाखिल होते ही मन में झणझणीत मिसळ-पाव घूम रहे थे। वही आर्डर किए। स्वाद बड़ा सही था। लेकिन भाव भी उतना ही तगड़ा था। स्वाद अच्छा था, इस लिए पैसे चुकाते हुए दर्द नहीं हुआ।
यहाँ से निकले ही थे, कि कुछ ही दूरी पर पुलिस की नाकाबंदी थी, और सारी गाड़ियां चेक कर रहे थे। खासकर गुजरात की गाड़ियों को। यह मुझे समझ नहीं आता, ऐसा क्यों करते है? महाराष्ट्र की और से आती गाड़ियां गुजरात में चेक होती है तो समझ आता है कि दारुबंदी के कारण चेक करना बनता भी है। लेकिन गुजरात से महाराष्ट्र जाती गाड़ियों में ऐसा क्या मिल सकता है। हाँ ! वैसे और भी कुछ खतरनाख चीजें हो सकती है। सारी गाड़ियां रोकी जा रही थी। पर पता नहीं क्यों, उन लोगों ने हमें नहीं रोका। फेमिली कार तक को रोक रहे थे, लेकिन हम तो तीनों ही आदमी-आदमी थे, फिर भी नहीं रोका। जबकि एक पुलिस-वाला हमें देख भी रहा था।
चारोटी से जव्हार घाट तक का सफर
खेर, उनकी मर्जी, हमारा उतना समय बचा। आगे इसी रोड पर चारोटी से एक रास्ता मुड़ जाता है त्रिंबक के लिए। नाशिक से नजदीक है। वैसे गुजरात से जाना हो तो वापी से पहले किल्ला-पारडी से एक रास्ता सीधा नाशिक जाता है। लेकिन हमें करना था एडवेंचर, घूमने थे घाट, गाड़ी चलानी थी आड़े-टेढ़े रास्तों पर। तो हमने यह चारोटी-जव्हार वाला रास्ता लिया था। यह पूरा ही रास्ता आदिवासी या भीलों के गाँवों से भरा पड़ा है। बिलकुल ही सिंगल लेन रोड है। लेकिन मजेदार है। भरपूर गोलाइयाँ और कभी ऊपर चढ़ाना, तो कभी ढलान उतरना। गाडी चलाने में अनहद आनंद आ रहा था। मैं चलता रहा, मुझे घाटों में चलने का कोई अनुभव नहीं था। सामने से आती कार वहां की लोकल और अनुभवी ड्राइवर वाली होती थी। मेरे पीछे से आते वाहन भी मुझे ओवरटेक करके आगे बढ़ जाते थे।
दोनों तरफ जंगल, बिच-बिच में कोई छोटा सा गाँव। आदिवासी प्रजा, लेकिन हंसमुखी लोग थे। एक जगह निचे जलाशय देखकर हम कुछ देर बस फोटो क्लिक करने रुके। मुश्किल से पांच मिनिट ही रुके होंगे, और फिर से चल दिए। जव्हार से कुछ किलोमीटर पहले तीन रस्ते दिखे, एक तो सीधा ही जा रहा था, एक दाहिने ओर मूड रहा था। यहाँ फ़ोन के नेटवर्क जा चुके थे। सबके ही फोन बस डिब्बे बनकर रह गए थे। मैप काम कर नहीं रहा था। और मैं उस तिराहे पर खड़ा किसी का इंतजार कर रहा था। तभी एक बाइक वाला आया, मैंने उसे रोका, और पूछा 'जव्हार किधर?' उसने अपनी बाइक रोके बिना कहा, 'कहीं से भी जाओ..!' मैंने सीधे जाना ही चुना।
मुझे याद आया, जब मेरी यह ट्रिप तय हो गयी थी, तो मैंने गूगल मैप का रास्ता रट लिया था। मुझे याद आया, जव्हार के लिए दो रस्ते थे। एक पर ज्यादा घाट थे, एक पर कम। अभी मैंने जो रास्ता लिया, वह एकदम हेयरपिन बैंड वाला, और खड़ी चढ़ाई वाला रास्ता था। जो रास्ता दाहिने मूड रहा था, वह नया रास्ता था, और थोड़ा आसान था। मैंने मैप देखते हुए इसी रस्ते पर चलना तय किया था। और अब बगैर मैप के भी इसी रास्ते पर चढ़ चूका था। बड़े ही खतरनाख मोड़, और एकदम पैतालिश डिग्री की चढ़ाई वाला यह रोड देखकर मेरे तो पसीने छूट गए। कार भी मना करने लगी थी यह रोड चढ़ने से। पहले गियर में डालकर एकदम से एक्सलरेटर दाब दिया। कार चें-चें-चें करती चढ़ गयी।
जव्हार हमने पार कर लिया। जव्हार से निकलते ही छत्रपति शिवाजी का कोई स्मारक था। मराठी में उसपर कुछ लिखा था, जो समझ नहीं आया। हमने कार नहीं रोकी, सीधे निकल गए। जव्हार के बाद अब रास्ते की हालत थोड़ी ठीक थी। चौड़ाई भी थोड़ी बढ़ गयी थी। लेकिन घाट के घुमाव और जंगल में कोई कमी नहीं हुई थी। मन को प्रफुल्लित कर रहा था यह जंगल का वातावरण। नमीं की खुशबु सारी थकान मिटा दे रही थी। वरना कच्छ से निकला हुआ मैं, अभी तक अकेले ही ड्राइविंग किये जा रहा था। मल्टी लेन वाला हाईवे नहीं था यह। यह तो गाँवों से गुजरती, और संस्कृतियों को जोड़ती के संकरी सी सड़क मात्र थी।
घाट की चढ़ाई और कार की जिद
मोरचोंड़ी नामक गाँव आया था शायद, वहां एक पेट्रोलपंप पर हमने अपनी पानी की सारी बोतलें फिर से भर ली थी। यहाँ से आगे का रास्ता भयंकर घाटों से भरपूर थे। बहुत ज्यादा घुमावदार रोड, और ढलान के साथ चढ़ाई भी। अंबोली घाट कहते है शायद इसे। सामने से आती महाराष्ट्र परिवहन की बसें जैसे बेकाबू होकर चल रही हो, इस तरह गति के साथ आती थी। हम भी चलते रहे थे। अपने सोसियल मिडिया के संसार के लिए स्टोरियां बनाते हुए। कार की स्पीड काफी धीरी थी। लगभग तीस किलोमीटर प्रति घंटे की। मैं अपने फोन और विडिओ रिकॉर्ड कर रहा था, ध्यान मेरा सड़क पर ही था। तभी कुछ जलने की बू आयी। ऐसे बिच जंगल में, और वह भी कार से ही आ रही थी। मैंने तुरंत एक चौड़ी जगह देखकर कार को साइड में खड़ी की। पुष्पा को भी कुछ जलने जैसी बू आयी थी।
पुष्पा बोल पड़ा, "कितने घंटे हो गए, कार नॉनस्टॉप चल रही है। ब्रेक लेने में कुछ समझते हो या नहीं?" बात सही थी। हमनें जब लंच लिया था, उसके बाद से नॉनस्टॉप ही चल रहे थे। घंटे तो ज्यादा नहीं हुए थे, लेकिन यह घाट वाले रोड पर मैं अनुभवहीन ड्राइवर चढ़ा था। बार बार पहले गियर और दूसरे ही गियर में कार चल रही थी। ऊपर से यह छोटी गाडी, शायद गरम हो गयी थी। बार बार क्लच करना और बार बार ब्रेक करने से भी कार को दिक्कत होती है। spresso अपना पूरा जोर आजमा के चल रही थी।
आधा घंटा जैसा हम लोग कार का बोनट खोलकर खड़े रहे। जंगल के कारण ठंडी हवाएं तो चल ही रही थी। उतने में बारिश की बूंदाबांदी भी चालु हो गयी। वर्षा के बूँद जब इस गर्म इंजन पर गिरते तो भांप बनकर उड़ जाते। यह भी गलत है। गर्म लोहे पर इस तरह ठंडा पानी नहीं गिरना चाहिए। मैंने बोनट बंद किया। और धीरे धीरे कार चलानी चालु कर दी। अब बस यह अंबोली घाट खत्म होने को आया था। आगे यह रोड सीधा सपाट आने वाला था। एक जगह की खाई देखि, कार में बैठे बैठे ही। यहाँ रुकने की जगह नहीं थी। एकदम सीधी खाई.. जैसे कोई ऊँची दिवार हो, और हम दिवार पर खड़े हो।
श्री त्र्यंबकराज तीर्थक्षेत्र में हम..!
शायद पांच बज रहे थे। हम त्रिम्बक में दाखिल हो चुके। स्वागत किया rto चेकपोस्ट ने। हमारी कार रोकते हुए पार्किंग की ओर जबरजस्ती मुड़वा दी। ऐसे धर्मक्षेत्रो या, घूमने लायक स्थलों पर यह सबसे बड़ी समस्या है। नो-एंट्री का बोर्ड लगा देते है। हम जैसे रात रुकने वाले लोग शहर के बाहर कैसे रुके? मैंने वहां खड़े आदमी से कहा, मुझे यहाँ रात रुकना है। होटल लेकर रुकने वाले है। कार अंदर जाने दो। अगला तुरंत भाव-ताल पर ही उतर आया। बोला, हाँ ! रूम मिल जाएगा, पचीससौ से लेकर आपको जैसा चाहिए वैसा रूम मिलेगा। मतलब यह आदमी rto वाला तो नहीं ही था। यह होगा नगर निगम वाला कोई।
हमने उससे बातचीत करना अनुचित समझा, और पार्किंग के बाहर रोड के किनारे कार साइड में दबा दी। और पैदल ही चल पड़े शहर में। शहर तो नहीं, गाँव जैसी बसाहट है यह। होटल भरपूर है। पहली होटल में भाव पूछा, उसने उल्टा पूछा कितने आदमी हो? हमने कहा तीन। तो बोला तेईससौ। हमारे लिए यह बहुत ज्यादा था। हम आगे बढ़ गए। एक जगह और पूछा, उसने सत्रहसौ कहा। हमने पार्किंग के लिए पूछा, तो उसके पास पार्किंग नहीं थी, लेकिन होटल के बहार रात को कार लगा सकते थे। या फिर उसकी होटल के पीछे दोसो रूपये में पेड पार्किंग थी। हमने वहां भी मना कर दिया।
त्र्यंबकेश्वर में होटल की खोज..!
धीरे धीरे हम लोग मंदिर के और नजदीक बढ़ रहे थे। त्रिंबक का सरकारी बस डिपो है, उसके ठीक बगल में एक स्वराज पैलेस नामक होटल या लॉजिंग दिखी हमें। यहाँ त्रिंबक के भाव सुनकर हमने मन ही मंन तय कर लिया था, कि कार बाहर वाले पेड पार्किंग में रख लेंगे, और यहाँ मंदिर से नजदीक में होटल ले लेंगे। लेकिन इस स्वराज पैलेस होटल वाले से बात हुई हमारी, और महादेव की इच्छा से हमारी सारी समस्याओं का समाधान हो गया। होटल के बाहर ही टैक्सी पार्किंग है। होटल वाले ने कहा, सुबह दस बजे से पहले आप अपनी कार हटा लेते हो तो यहां पार्किंग हो जाएगी। हमें तो इतना ही चाहिए था। बजट को संभालना था। और रूम भी १००० रूपये में ही मिल गया।
फिर से त्रिम्बक से बाहर जहाँ कार खड़ी की थी, वहां तक पैदल गया मैं। वो आदमी अब भी वहीँ खड़ा मिला हमें। मैंने अपनी कार अब उसके सामने देखते हुए शहर में दाखिल की, उसने फिर मुझे रोका। मैंने इस बार होटल का नाम देकर कहा, बुकिंग हो गयी। वो भी हँसने लगा। और मैंने होटल के ठीक सामने अपनी कार पार्क कर दी। स्नानादि से निवृत होकर मंदिर में चल पड़े। होटल वाले से हमने इतना जान लिया था, कि मंदिर रात के दस बजे तक खुला रहता है।
हम लोग लगभग साढ़े छह या सात बजे मंदिर की लाइन में खड़े हो गए। हमें डायरेक्ट दर्शन वाली पर्ची तो लेनी थी, लेकिन कहीं भी मिली नहीं। शायद महादेव की मर्जी यही थी। कल पूरा दिन, पूरी रात, और अब शाम के सात बज चुके थे। मैं नहीं सोया था, पुष्पा भी नहीं। लेकिन हम लोग लाइन में खड़े दर्शन के इंतजार कर रहे थे। त्र्यंबकेश्वर में दस बजे के बाद मंदिर में एंट्री नहीं देते है। काफी भीड़ थी। लगभग साढ़े नौ बजे हमारा नंबर आया। कुछ लोग वहां खड़े पुलिस या सिक्युरिटी गार्ड से सेटिंग करके सीधे दर्शन करने जाते भी दिखे। मैंने भी पुष्पा से कहा, बात करके तो देख, क्या पता सेटिंग हो जाए..?
दर्शन के लिए लगभग तीन घंटे की कतार...!
लेकिन पुष्पा ने बात नहीं की। और हम खड़े रहे। साढ़े नौ बजे दर्शन हुए। थक के बेहाल था मैं। एक चीज और.. मंदिर में इतनी ज्यादा भीड़ थी, स्त्री पुरुष सब एक ही पंक्ति में खड़े थे। प्रियम्वदा ! मुझे बड़ी झिझक होती है स्त्रियों से। और यहाँ तो सब एक ही लाइन में थे। जैसे तैसे अपना सारा ध्यान डाइवर्ट कर रहा था मैं। एक अजीब बात भी अनुभव हुई वहां, जो यहाँ लिखने लायक है नहीं।
दर्शन करके निकले ही थे, और बस मंदिर के साथ फोटो खिंचवा ही रहे थे, कि महादेव ने बारिश करवा दी। झमके बारिश हुई। महाराष्ट्र में आज दिवाली थी। इक्कीस तारीख की। हम लोग जैसे आए वैसे फोटो खिंचवा कर निकल पड़े। सब कुछ बंद होने लगा था। जहाँ देखो वहां शटर ढल चुके थे। हमारा रात का खाना बाकी था। अब क्या करें कैसे करें यही सोच रहे थे, कि एक रेस्टोरेंट खुला दिखा। लोगों की थालियों में नजरें गड़ाई तो समझ आ गया, कि हल्का-फुल्का खाना ही बेहतर होगा। और महाराष्ट्र में ओवर-हाइप हो चुके मिसळ पाव हमने फिर से खाए। यहाँ का टेस्ट अलग था। मुंबई, नाशिक, पुणे.. इन सब के मिसळ पाव का स्वाद अलग होता है, यह यहाँ जानने को मिला।
महाराष्ट्र में इक्कीस तारीख की दिवाली थी।
यहाँ आज दिवाली थी, तो हम खाना खा रहे थे, वहीँ कोई लड़का सुतली पर सुतली बम दागे जा रहा था। हमें रेस्टोरेंट वाले से कंप्लेंट करनी पड़ी कि इसको बोलो थोड़े दूर जाकर पटाखे फोड़े.. ऐसे शोर-शराबे में कैसे खाना-खाया जाए। रात के इस खाने के बाद निवृत होकर हम रूम पर आ गए। तो होटल वाला भी दिवाली की तैयारियों में लगा हुआ था। वह हमसे पूछने लगा, "आपकी दिवाली नहीं है क्या? जो इतने बड़े त्यौहार के दिन भी आप यहाँ आ गए?" फिर हमने उसे समझाया, कि हमारी दिवाली तो कल हो गयी। और ज्यादा कठीण लगा उसे यह 'धोका' समझाने में। कि हमारे यहाँ दिवाली और नए साल के बिच में एक एक्स्ट्रा दिन है।
अब बस निंद्रा की ओर...
अब तो बस बिस्तर पर पसर जाने की देर मात्र थी। मैंने अपनी वह बाकी बची संस्कार विधि निपटाई, और सो गया। भारी थकान से भरपूर दिन था। लगभग छत्तीस घंटो से जाग रहा था मैं, उन पहाड़ी घाट से गुजरती हुई कार, खुद भी थकी थी, और मुझे भी थका दिया था। लेकिन प्रकृति, अगर प्रकृति देखनी हो तो उसी रास्ते से गुजरना चाहिए। साग के बड़े बड़े पत्तों वाले पेड़, दूर दूर तक फैला हुआ यह विशाल जंगल.. और उन नेशनल हाइवे या एक्सप्रेसवे पर कहाँ दीखते है।
छोटे छोटे झोंपड़े जैसे घर, लेकिन उस घर में भी आनंदित लोग। किसी ढलान को चपटा कर के बनाया गया छोटा खेत, उस खेत में धान की पक चुकी फसल, और उस फसल को काटती कोई वृद्धा, उस वृद्धा के झुर्रियों भरे चेहरे पर थकान के बावजूद एक संतोष की मुस्कान, शहर में कहाँ? प्रकृति की गोद में खेलकर बड़े हुए यह लोग कद-काठी में सामान्य है, लेकिन बोलचाल में, और आगंतुकों की आवभगत में छोटे नहीं है। यह प्रवास मुझे सदैव याद रहेगा। कल भीमाशंकर निकलना है। तो अभी सो जाना ही उपयुक्त है।
शुभरात्रि।
२१/१०/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
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