त्र्यंबकेश्वर से भीमाशंकर : नववर्ष, बारिश और घाटों का रोमांच || दिलायरी 22/10/2025

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नूतन वर्ष की सुबह : त्र्यंबकेश्वर में हर हर महादेव

प्रियम्वदा !

नूतन वर्षाभिनंदन, विक्रम संवत २०८२ का यह नववर्ष सबके ही जीवन में खुशहालियाँ लाए, ऐसी शुभकामनाएं। 


Rajasthani cartoon man driving a car on winding mountain road with signboards showing Trimbakeshwar and Bhimashankar directions, plain white background.

    भगवन त्र्यंबकेश्वर के धाम में, मंदिर से मात्र दोसो मीटर के अंतराल पर हम होटल में सोये थे। आज हमारा नव वर्ष था, तथा मराठियों का गुड़ी पाड़वा। मुझे नहीं पता था, मुझे लगा था सिर्फ गुजरात में ही इस दिन का महत्व ज्यादा होता है। सवेरे पांच बजे ही मामा का फोन आ गया। नववर्ष की शुभकामनाएं दी उन्होंने। मैंने अपना पहला फोन हुकुम को किया। बीती रात बारिश होने के कारण सुबह सुबह मौसम काफी ठंडा अनुभव हो रहा था। बाथरूम में ठंडा पानी आ रहा था। बजट में चलना है, तो थोड़ा बहुत कोम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है। मंदिरों में जाना हो, तो नहाना तो अनिवार्य ही है। निचे बोर्ड लगा हुआ था, गर्म पानी का बिस रुपया। 


ब्रह्मगिरि पर्वत की सीढ़ियाँ और गंगाद्वार का उद्गम

    मैं हर हर महादेव करते हुए एक बाल्टी अपने पर उड़ेल दी। पहले पहल ठंडा लगा। फिर शरीर उस हिसाब से सेट हो गया। नहाधोकर तैयार हो गए थे। त्र्यंबकेश्वर तीर्थ के पीछे ही ब्रह्मगिरि पर्वत है। हमें जाना तो था, लेकिन समस्या यह थी कि हमें शाम होने से पूर्व भीमाशंकर पहुंचना था.. तो हम यहाँ ब्रह्मगिरि पर ज्यादा समय नहीं लगा सकते थे। ब्रह्मगिरि में ही भारत की पवित्र सात नदियों में से एक गोदावरी नदी का उद्गम स्थान है। जहाँ यह उद्गम है, उस क्षेत्र को गंगाद्वार कहते है। पास ही माता पार्वती का भी मंदिर है। वहीँ से कुछ दूरी पर गुरु गोरक्षनाथ का गुफा मंदिर भी है। 


    सुबह के सवा सात बज रहे थे। ब्रह्मगिरि की तलहटी तक कार जा सकती थी। वहां से सीढियाँ जाती है। हमने एक तरफ कार दबा दी। और पैदल सीढियाँ चढ़ने लगे। पुरानी सीढिया है, पत्थरों की। लंबी लंबी शिलाओं को जोड़कर सीढियाँ बनाई गयी है। चढ़ाई थोड़ी मुश्किल लगती है, खासकर मुझ जैसों को, जो पूरा साल ऑफिस के कमरों में बैठे रहते हो। सीढियाँ बहुत ज्यादा नहीं है। हमने निचे पूछा था, एक किलोमीटर की चढ़ाई बताई थी लोगों ने। लेकिन मेरे लिए बस वह एक किलोमीटर की चढ़ाई काफी थी। आधे रस्ते पहुँच कर एक बार तो बैठ ही गया था, कि बस ! अब और आगे नहीं जाना है मुझे। पसीने से लथपथ हो चूका था। हृदय के धबकने की आवाज कानों में सुनाई पड़ रही थी। 


    एक आदमी अपने सर पर पानी का स्टील का मटका लिए ऊपर चढ़े जा रहा था। उसे देखकर मुझे भी कुछ हिम्मत आयी। मैंने वापिस चढ़ना शुरू किया। थोड़ा सा बचा था, फिर से हिम्मत बैठ गयी पानी में। उतने में ऊपर से किसी ने आवाज़ दी। अरे थोड़ा ही बाकी है। आ जाओ..! ऊपर गंगाद्वार से कोई लड़का अपने उन साथियों को आवाज़ दे रहा था, जो अभी शायद सीढ़ियों के आरम्भ में ही थे। फोन के नेटवर्क यहाँ साथ छोड़ चुके थे। तो लोगो ने अपनी बुलंद आवाज से मेसेज पहुँचाने लगे। वहां आवाज़ गूँज रही थी। प्रतिसाद सुनाई पड़ता था। ब्रह्मगिरि पर गंगाद्वार के लिए जहाँ से हम चढ़ रहे थे, वहां से ब्रह्मगिरि पर्वत एक खड़ी दिवार जैसा दीखता है। ऐसा लगता है, जैसे कुदरत ने एक दिवार चुन दी है। 


    इतना ऊँची दिवार, कि नब्बे डिग्री का कोण बन रहा था। हमने गंगाद्वार पर दर्शन किए। हमारे अलावा कोई नहीं था। एक उत्तर प्रदेश का परिवार था। वे लोग ५०० रुपए भाड़ा देकर रिक्शा से आधे रास्ते तक आए थे। वहां एक बड़बोला पुजारी था, बात बात में सिर्फ चढ़ावा मांग रहा था देवस्थान के नाम पर। कुछ देर वहां रुके, कुछ फोटोग्राफी की। और धीरे धीरे निचे उतरने लगे। निचे उतरने में भी डर लगता है। सीढ़ियों के पत्थर घिसघिसकर चमकीले और लिस्से हो चुके है। फिसलने का डर लगता है। उतरने में भी थकान तो अनुभव होती है। 


    अपनी कार तक पहुंचे, एक मावा चढ़ाया, और चल पड़े। भगवन भीमाशंकर की ओर। त्रिम्बक से भीमाशंकर जाने के लिए दो रास्ते है। पहला तो हाइवे है, सिन्नर, संगमनेर होते हुए मंचर से मुड़ते भीमाशंकर। दूसरा रास्ता गाँवों से गुजरता है, पहाड़ी घाटों से - घुमावदार मोड़ वाला। यह रोड भी नारायणगांव से उसी संगमनेर वाले हाइवे में मिल जाता है। हमने घाट बहुत देख लिए थे। ऊपर से यह मंचर से लेकर भीमाशंकर तक भी पहाड़ियों वाले घाट है ही। हमने हाइवे ही चुना। और चल पड़े। नाशिक शहर के ट्रैफिक सिग्नल्स, और हरियाली भरे सिटी रोड से होते हुए सिन्नर-संगमनेर वाले हाइवे पर हम चढ़ गए। सीधा रोड है, लेकिन गड्ढे बहुत है। 


हाईवे पर मिसळ पाव से लेकर महाराष्ट्र की बार संस्कृति तक

    खुला हाइवे होने के कारण लोकल पब्लिक भी आड़ी-टेढ़ी कार चलाती है। इसी  हाईवे पर एक जगह एक अच्छा रेस्टोरेंट देखकर हम लोग नाश्ता करने रूक गए। सवेरे से सिर्फ और सिर्फ मावा ही पेट में गया था। रेस्टोरेंट अच्छा था, और खाली भी था। हमारे सिवा सिर्फ एक ही फेमिली बैठा था। हमारे टेबल पर बैठने के बावजूद कोई नहीं आया, तो मैंने खड़े होकर आवाज दी। एक साथ दो-तीन लोग आ गए। यहाँ मेनूकार्ड था, हमने चीज़ पराठे आर्डर किए। वेटर ने मना किया, हमने आलू  पराठे मांगे, वो भी नहीं बन सकते थे। तो हमने यही पूछ लिया कि, "है क्या आपके पास..?" उसने फट से कहा, "मिसळ पाव.." कल पूरा दिन मिसळ पाव खाया था, आज भी यही.. और वह भी सवेरे सवेरे..? तो हमने उससे और ऑप्शन पूछे। उसने कहा, "वडापाव है।" इस बार मुझसे न रहा गया, बगैर सर-पाँव की कोई चीज हो तो बता। तब उसने कहा, पोहे है।


    पोहे निगल कर अपनी कार तक पहुंचा ही था, कि देखा मेरी कार के बाजू में एक और कार मेरे ही शहर की। उनसे पूछा, तो पता चला कि भचाऊ के थे वे लोग। उनसे राम राम कर हम निकल पड़े। वे लोग सीधे ही घृष्णेश्वर जा रहे थे। और हम भीमाशंकर होकर घृष्णेश्वर जाने वाले थे। रास्ता ठीक था यह, फोर लेन हाईवे है। और हमारा वह बहादुर, फिर से सो गया था। वह कल पूरी रात सोया, उसके पहले वाले दिन रास्ते भर कार में सोया, और अब फिर से सो चूका था। इतना अच्छा था कि पुष्पा को मेरी तरह रास्तों में कभी नींद नहीं आती। इसी कारण वश मैंने इसका नाम बहादुर रखा है। यह नींद बहादुर है। जब देखो सोया ही रहता है। 


    संगमनेर भी पार कर लिया था हमने। एक जगह पर अच्छा सा रेस्टोरेंट दिखा हमें। फिर से एक बार संस्कार-विधि का सामान था हमारे पास। महाराष्ट्र में एक चीज मैंने और नोटिस की। यहाँ कहीं भी राजस्थान की तरह हाइवे पर ठेके नहीं है। यहाँ हाइवे पर ही बार बने हुए है। बार में बैठो, पियो, और चलते बनो। ठेके होंगे, लेकिन शहर के भीतर होंगे। हाइवे पर सिर्फ और सिर्फ बार बने हुए है। बार में वे लोग एमआरपी से पचास रूपये ज्यादा लेते है। यह सिस्टम भी मुझे समझ नहीं आया। एमआरपी से ज्यादा क्यों? अगर एक बियर पर ढाईसौ रूपये एमआरपी छपी हुई है, तो बेचने का भाव तीनसौ रूपये है। यह एक नहीं, हर जगह बार में यही सिस्टम है। एमआरपी से ज्यादा। 


    यह रेस्टोरेंट के पार्किंग लोट में ही, पुष्पा और नींद बहादुर ने निंद्रा त्यागकर भोजन से पूर्व की जाती यह संस्कारविधि भरी दोपहर में पूर्ण की। ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा जलन मुझे होती है। क्योंकि मुझे कार चलानी है। और मैं इस संस्कारविधि में शामिल नहीं हो सकता। रेस्टोरेंट में एक अच्छा सा टेबल देखकर अपनी जगह ली। मेनू-कार्ड देखकर तुरंत पुष्पा ने कहा, "आर्डर मैं दूंगा, आप लोग कुछ नहीं बोलेंगे।" मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। वेटर के आते ही पुष्पा ने कहा, "एक काजू मसाला, एक दाल तड़का, और तंदूरी बटर रोटियां ले आओ।" पुष्पा फुल फोम में था। क्योंकि यहाँ मेनू कार्ड में प्राइस काफी कम थे, हमारे महंगे शहर मुकाबले काफी कम। और बढ़िया बात तो यह भी थी, कि स्वाद तो लाजवाब था। मैं उस रेस्टोरेंट का नाम भूल गया हूँ, उस रोड पर वह बढ़िया था। उस रेस्टोरेंट के बाहर बैलगाड़ी का नमूना बना हुआ था। 


    भोजनादि से निवृत होकर हम लोग फिर से चल पड़े। यहाँ भी एक छोटा सा घाट और खाई भी है। कुछ ही देर में मंचर आ गया। मंचर से फ्लाई-ओवर के निचे से रास्ता जाता है भीमाशंकर के लिए। और सीधा रास्ता चला जाता है, पिम्परी चिंचवड़ और पुणे तक। मंचर से मुड़ते ही रोड सिंगल लेन हो जाता है। और भीमाशंकर तक यह सिंगल-पट्टी जैसा रोड जाता है। काफी घुमावदार है, गड्ढे दुनियाभर के है, और लोकल ट्रैफिक तेज चलता है। हॉर्न और डिपर मारने वाले लोग परेशान करते है। अगर आपकी कार के आगे कोई मिनी-बस आ गयी, तो वह आपको ओवरटेक करने ही नहीं देगी। कार को दूसरे गियर में डालकर खींचनी पड़ती है, तब जाकर ओवरटेकिंग पॉसिबल बनती है। 


भीमाशंकर की ओर बढ़ता सफर और बारिश के संग खेल

    मंचर से इस रोड पर मुड़ते ही एक मजेदार वाकिया हुआ। बारिश होने लगी। कार के रूफ पर बड़ी बड़ी बूंदे गिर रही है, लेकिन कार के ठीक आगे रस्ते पर कोई भी बूँद नहीं है। रोड बिलकुल सूखी है। हम जैसे जैसे आगे बढ़ते रहे, बारिश भी हमारे साथ साथ आगे बढ़ती रही। हमारी कार भीग रही है, लेकिन कार के आगे का रोड सूखा है। कार की छत भीग रही है, लेकिन बोनट सूखा है। भगवन इंद्रदेव भी हमारे मजे लेते दिखे। कभी कार का वाईपर चालू करना पड़ता, तो कभी बंद। कभी तेज वाईपर चलाने के बावजूद रोड न दिखे उतनी तेज बारिश, और कभी एकदम से बंद। कारण यही, कि हम बारिश के साथ साथ चल रहे थे। 


    भीमाशंकर के लिए घुमावदार रास्ते से होते हुए हम लोग लगभग चार या पांच बजे पहुँच चुके थे। मंदिर से दो किलोमीटर पूर्व ही हमारी कार रुकवा दी गयी। बेहद ट्रैफिक था। कितनी सारी कार खड़ी थी। कार की ही संख्या देखकर अंदाज़ा आ गया कि मंदिर में क्या हालत होने वाली है। इतनी सारी भीड़ आज क्यों थी यह समझ नहीं आया। पुलिस वाले भी काफी परेशान थे। इस ट्रैफिक को मैनेज करने में उनका भी पसीना छूट गया था। पार्किंग लोट के नाम पर यह पहाड़ी पर एक खुला छोटा सा ऊबड़खाबड़ लाल मिटटी वाला, और बड़े बड़े पत्थरो से भरा हुआ मैदान था। मुश्किल से एक खाली जगह देखकर मैंने अपनी छोटी सी कार वहां घुसा दी। रिवर्स पार्किंग करनी थी। ताकि बोनट सुरक्षित रहे। अपनी यह छोटी सी S-PRESSO कहीं भी फ़ीट हो जाती है। लेकिन रिवर्स लेने में थोड़ा जोर मांगती है। खासकर बड़े बड़े पत्थरो पर जब उसे कूदना पड़े। 


    पार्किंग हो गयी। हम पैदल भीमाशंकर की ओर चल पड़े। यहाँ एक और रिवाज है। मंदिर से दो किलोमीटर पूर्व हमारी कार पार्किंग करवा लेते है, और इस पार्किंग से मंदिर तक लोकल EECO कार चलती है। सही भी है, भीमाशंकर जैसे संकरे स्थान पर इन कारों का ट्रैफिक जैम न हो जाए। EECO ने पचास रूपये में हम तीनो को मंदिर से थोड़े दूर उतार दिया। नींद बहादुर जाग गया था, और अब पैदल चलने को तैयार था। पुष्पा आगे आगे दौड़ा जा रहा था, डायरेक्ट दर्शन (VIP DARSHAN) की टिकट खोजने के लिए। लेकिन कहीं मिली नहीं। 


    भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग एक विस्तृत आरक्षित जंगल के बिच में स्थित है। चारोओर शान्ति का वातावरण होना चाहिए था। लेकिन आज तो कतई नहीं था। कोलाहल करती हुई यह जन-मेदनी इस रमणीय और शांतिपूर्ण स्थान की आभा हर ले रही थी। जहाँ से यह ज्योतिर्लिंग मंदिर के लिए लाइन शुरू होती है, वहां से मंदिर चारसौ मीटर की दूरी पर है। आम दिन पर शायद सात से आठ मिनिट लगती होगी मात्र। लेकिन हम पर तो महादेव महेरबान थे। कल त्र्यंबकेश्वर में हम लोग लगभग तीन घंटे लाइन में खड़े रहे थे। और आज हमें लग गए चार घंटे। इतनी ज्यादा भीड़ देखकर ही आदमी के होश उड़ जाए। हमारे पास तो विकल्प था नहीं। सिवा इस लाइन में खड़े रहकर दर्शन कर लेने के। 


भीड़, दर्शन और रात का कठिन वापसी सफर

    यहाँ भीमाशंकर में हमने सोचा था कि एक रात रुकेंगे, और दूसरे दिन सवेरे निकलेंगे। लेकिन भीड़ के कारण यहाँ रुक पाने की कोई व्यवस्था हमें दिखी नहीं। कार भी हमारी दो किलोमीटर पीछे खड़ी थी। हम लोग महादेव महादेव रटते हुए लाइन में खड़े थे। बूढ़े-बुजुर्गों को पालखी में लोग ले जाते थे। मैं और पुष्पा मजाक कर रहे थे, कि एक काम करते है, इस बहादुर को वैसे भी नींद बहुत आती है, यह सो जाएगा, और हम लोग इसे उठाकर बेहोश हो गया बेहोश हो गया करते हुए मंदिर तक ले जाते है। डायरेक्ट दर्शन की व्यवस्था ऐसे ही करनी पड़ेगी। 


    मेरे ठीक पीछे एक फॅमिली खड़ा था। गुजराती में उन्हें बात करता सुन मैंने उनसे पूछ लिया, "कहाँ से आए हो?" उन्होंने बताया अमरेली। अमरेली मतलब मेरा पडोसी जिला। इस लिए मैंने अमरेली कहाँ यह पूछ लिया। उन्होंने कहा दामनगर। दामनगर तो मैं कितनी ही बार जा चूका हूँ। रास्ते में पड़ता है। एक बार मेरे गाँव से लौटते हुए इसी दामनगर में मेरी कार अचानक से रूक गयी थी। दरअसल बैटरी का कांटेक्ट ठीक से फ़ीट हुआ नहीं था, इस वजह से कार खड़ी हो गयी थी। जहाँ मेरी कार रुकी थी, वहीँ पर इनकी दूकान है। पहचान निकल आयी यह तो। हमारा और उनका आगे का क्या प्लान है यह एक्सचेंज हुआ। ऐसी लंबी लंबी कतारों में इसी तरह टाइमपास करना पड़ता है। 


    लेकिन यह ओरिजिनली राजस्थान से थे, और दामनगर में स्थायी हुए थे। थोड़े धक्कामुक्की वाले आदमी लगे मुझे। कईं आठ बजने को थे, मंदिर में प्रवेश करने की कतार अब दो में एक लाइन होने लगी। पीछे से बार बार धक्के आ रहे थे। और मैं जब भी कोई पीछे से धक्का मारने की कोशिश करता है, अपनी कोहनी बिच में रख देता हूँ। इससे क्या होता है, कि पीछे वाला खुद भी धक्का न मारेगा। अगर धक्का मारेगा तो खुदकी नाभि पर कोहनी खाएगा। मेरे भी पीछे वाले ने दो कोहनी खाने के बाद खुद पीछे हट गया, और अपने लड़के को आगे कर दिया। 


    लगभग साढ़े आठ बजे हमारे दर्शन हुए। दर्शन तो क्या ही होते है ऐसी भीड़ में। आप बस एक नज़र ज्योतिर्लिंग को देखो न देखो, उतने में आपको धक्के मारकर पीछे से आती भीड़ बहार की ओर धकेल देती है। जल्दी जल्दी में जितने दर्शन हो सके हमने कर लिए। उसके बाद हम लोग मंदिर के बाहर कुछ फोटोज क्लिक करवाने लगे। लेकिन वहां भी मंदिर प्रशाशन सबको हटाने लगा। क्योंकि हमारी तरह और भी कईं सारे लोग थे, जो यहाँ रूककर फोटो खिंचवा रहे थे। यह बात तय थी, कि भीमाशंकर में तो हमें रात रुकने मिलेगी नहीं। तो यह निश्चित हुआ कि अगर जा सकें तो अब सीधा ही घृष्णेश्वर चले जाते है। अगर नींद आने लगे तो कहीं हाईवे पर होटल ले लेंगे। 


    यहाँ भीमाशंकर में महादेव गार्डन, और एक कोंकण व्यू नामक जगह है, वह देखने लायक है। मैंने गूगल में फोटोज देखे थे। पहाड़ी के ऊपर से कोंकण क्षेत्र का व्यू दीखता है। लेकिन रात हो चुकी थी। हम क्या ही देखते। चल पड़े पार्किंग की और। हमारी परीक्षा और बाकी थी शायद, हमें पार्किंग तक ले जाने वाला कोई EECO मिला ही नहीं। दो किलोमीटर हम लोग रात में पैदल चलने लगे। अरे हाँ ! एक और मस्त बात याद आयी। भाषा का मजाक नहीं है, लेकिन मराठी भाषा मजेदार लगती है मुझे। थोड़ी कठिन भी। जैसे हिंदी में कहते है तेंदुआ। कितना भयावह शब्द लगता है, बोलने से, तेंदुआ..! गुजराती में तेंदुए को कहते है, 'दिपडो'.. यह शब्द बोलते हुए भी भय की भावना आती है। लेकिन मराठी में तेंदुए को कहते है, "बीबट्या"..! बेचारे तेंदुए की दहशत ही जैसे ख़त्म कर दी।


    एक और मजेदार शब्द मिला था मुझे। 'पुढे धबधबा आहे..' पुढे माने आगे, धबधबा माने झरना, आहे माने है। मतलब आगे झरना है। झरने को धबधबा कहते है। झरने जैसी मनमोहक चीज का ऐसा भयंकर नाम - धबधबा। खेर, हम लोग बिबट्या से बचते हुए आखिरकार पार्किंग तक पहुँच गए। पैदल ही। हाँफते हुए। मौसम ठंड पकड़ने लगा था। बारिश तो यहाँ भी हुई थी, ऊपर से यह वनक्षेत्र है। नमीं अनुभव होती है। मैंने अपने माथे पर अजरख लपेट लिया। जैसे पगड़ी बंधी हो। पार्किंग में अब गिनी जा सके उतनी ही कार बची थी। मैं आस्चर्यचकित था। अभी कुछ घंटे पहले यहां पार्क करने की जगह नहीं थी, और भी सारा ही खाली...!


पहाड़ी रास्तों से मिली ड्राइविंग की सीख

    मैंने कार स्टार्ट की। लेकिन भेज के कारण सामने के शीशे से कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता था। ऊपर से घना अँधेरा। सामने से आती कार की रौशनी के कारण यह भेज लग चूका शीसा बिलकुल ही अंधे जैसी वाइब दे रहा था। मैंने जैसे तैसे कर कार को रोड पर चढ़ाया। कार के सारे शीशे उतार दिए। वही खतरनाख पहाड़ी घाट थे, और मैं अनुभवहीन ड्राइवर। लेकिन कल से लेकर आज इतना जरूर से सीख गया था, कि कार भले धीरी चलाओ, लेकिन उसे बेफालतू गियर डाउन करके खींचो मत। 


    अपने आगे एक लोकल कार जा रही थी, मैंने उसका पीछा पकड़ लिया। रात में अनजान रस्ते पर यही सबसे आसान ट्रिक है, सफर तय करने की। किसी लोकल गाड़ी का पीछा पकड़ लो। उसे बम्प्स से लेकर गड्ढो तक का पता होता है। वह जहाँ धीरी करे हम भी धीरी कर लेते। वह जहाँ तेज करे अपनी कार, हम भी गति पकड़ लेते। इसी तरह हमने मंचर तक का सफर तय कर लिया। रास्ते में ज्यादातर कार होटल या लॉज लेकर रूक जाती थी। और मैं फिर से किसी नई कार का पीछा करने लगता। इस घाटी में मुझे एक यह बात भी सीखने मिली, ऐसी घाटियों में कार को एक्सेलेटर करना ही नहीं होता है। यहाँ ढलान आते ही कार अपने आप स्पीड और मोमेंटम पकड़ लेती है, उसी मोमेंटम का यूज़ अगली चढ़ाई के लिए करना है। ऐसे उतार-चढ़ाव वाले रास्ते पर कार को सिर्फ कण्ट्रोल करना होता है। गति अपने आप कार को मिलती रहती है। 


    मंचर पहुँचते ही वह संगमनेर वाला हाइवे मिल गया हमें। बड़ी ख़ुशी हुई। अब आगे कहीं भी ऐसी घाटियों वाला रास्ता नहीं है। हमने तय कर लिया था, अब कहीं होटल पर स्टॉप नहीं लेना है। अगर नींद आएगी भी, तो हम किसी ढाबे की पार्किंग में ही कार में थोड़ी-बहुत झपकी ले लेंगे। पुष्पा भी थका हुआ मालुम हो रहा था। तो मैंने उसे भी ड्राइविंग नहीं दी। मंचर वाले बाई-पास पर ही हमें एक उबले आलू का ठेला दिखा। भूख बहुत तेज लगी थी। हमनें वहीँ रोक ली। कार में संस्कार विधि का सामान पड़ा ही था। टीन के डिब्बों से जल सेवन किया। यहीं सफेद आलू से भूख मिटाई। और फिर चल दिए। चल तो दिए, लेकिन वही बात, मैं थोड़ा नियम कानून के प्रति सजग हूँ। संस्कार पालन तो मैंने भी किया था। 


    आगे ही एक हाईवे होटल मिली, उसकी पार्किंग में मैने कार रोक ली। कार के शीशे थोड़े थोड़े खोल दिए। और हम सो गए। यहीं पार्किंग में। बंद होटल के बाहर। बस महादेव के आश्रय में, महादेव के भरोसे, एक अनजान जगह पर, अनजान हाइवे पर। 


    शुभरात्रि। 

    २२/१०/२०२५

|| अस्तु ||


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