पंचायत सीजन 4 की शुरुआत: धीमी लेकिन ठोस
हईं ससुर... फुलेरा में तो बनराकसवा जीत गया, प्रियंवदा..! क्या से क्या हो गया देखते देखते। वैसे सिद्धांत तो यही कहता है, कि जैसी करनी वैसी भरनी। प्रधान जी का हारना तय ही था। उन्हें भी शायद अंदेशा था ही। लेकिन मुझे पहले से दो-तीन लोगो ने बता दिया था, कि इस बार परधानी जा रही है..!
मुझे याद आता है। एक बार फिल्मे देखते देखते सारी अच्छी मार-धाड़ वाली ख़त्म हो गयी, और देखने के लिए कुछ भी नहीं बचा था, तब यह ड्रामा बेमन से ही देखना शुरू किया था। एक गांव है, और वहां एमबीए की तैयारी करता एक युवक सचिव की नौकरी ज्वाइन करता है। मुझे लगा था कि इस सीरीज में क्या ही देखना? वो भी उत्तरप्रदेश तरफ का अक्सेसेन्ट। लेकिन आज देखिए, लेख की शुरुआत ही प्रधान जी के तकिया-कलाम 'ससुर' से हो गयी। जो भी हो, मुझे बड़ी मजेदार लगी है यह सीरीज़।
सचिव जी, रिंकी और इलू-इलू का सफर
हाँ ! इस चौथी सीजन का शुरुआती दौर थोड़ा बोरिंग लगा था। लेकिन जब रिंकी के नानाजी की एंट्री हुई फुलेरा में तब से कहानी का रस, और परधानी का भविष्य दोनों ही बदल गए। पहली सीजन के मुकाबले चौथी सीजन आते आते मार-धाड़ के मसले भी बढ़ गए। मार-धाड़ तो तीसरी सीजन में ही जबरजस्त हुई थी। गोली कौन चलवाया था प्रधान पर इस बात का यक्षप्रश्न भारी बना हुआ था। बनराकस के तानों से लेकर, सचिव जी का धीरी गति से बढ़ता इलू इलू बहुत मजेदार लगा। हाँ ! रहस्य भी अच्छा बनाया था, जब छापा पड गया, और अचानक से एक अधिकारी ने छापेमारी निषेध करवा दी। जैसे कोई अदृश्य शक्ति थी प्रधान के पीछे।
ग्रुप में 'hi' और कचौड़ी वाला सीन
बाकी ग्रुप में 'hi' का मेसेज बरक़रार था। रिंकी को देखकर मुझे तो स्नेही याद आ जाता रहा, काफी मिलता-जुलता चेहरा लगता है मुझे। सचिव जी के प्रेम का इज़हार किये बिना ही मामला मुकसम्मति से सेट हो गया। और खासकर वो कचौड़ी वाला सिन तो जबरदस्त रहा। संक्षेप में कहूँ, तो मुझे आधी सीरीज़ बोरिंग और आधी अत्यंत मजेदार लगी। कुल-मिलकर अच्छी ही है। और लोगो के रिव्यु पढ़े थे, जहाँ इसे ना अच्छी न बुरी के पैमाने पर रखा है। मुझे निजी तौर पर कुलमिलाकर तो अच्छी ही लगी।
आज सुबह ऑफिस पहुँच कर, काम कुछ ख़ास न होने से इसी सीरीज़ को पूरी करने पर ध्यान लगाया था। आज उठा लेट था, ग्राऊंड के दर्शन तक न किये, और कसरत से एक निश्चित दूरी बनाई थी। एकाध दिन की गुल्ली तो चलती है। दोपहर तक ऑफिस के अन्य काम आते-जाते रहे, ठीक इस बारिश की तरह। जो सुबह से आ-जा रही है। न ठीक से बरस रही है, न ठीक से मौसम खुलने दे रही है। सुबह ग्राऊंड तक इसी ने नहीं पहुंचने दिया था। वैसे यह तो बहाना था, क्योंकि उठा लेट था। खेर, दोपहर लंच में सिर्फ खीरा-ककड़ी पेट में स्वाहा करके बैठ गया सीरीज़ देखने। कुछ देर पूर्व ही ख़त्म हुई।
स्नेही ने कहा था, एक डायलॉग आएगा, और आपको किसी की याद आ जाएगी। अब मैं ठहरा प्रेम का आलोचक। तो मुझे लगा था, अंत भाग में प्रधान जी तो हार ही रहे है, तो जरूर सचिव और रिंकी के बिच बिछड़न आएगी, और उस प्रसंग में उपयुक्त कोई संवाद होगा। लेकिन नहीं.. अंत से पूर्व प्रधान जी कहते है, "दबदबा था, है, और रहेगा।" यह तो वो पिछले साल वाले अति चर्चित मंत्री जी का डायलॉग था। "दबदबा है, था और रहेगा.." माननीय बृजभूषण शरण सिंह ने एक बार कहा था, दबदबा शब्द तब सोसियल मीडिया पर खूब ऊंचाइयों पर पहुंचा था। वैसे वो सांसद बड़े अलग स्वाभाव के व्यक्तित्व है। बोलना है, तो सोचना कैसा? नपा-तुला बोलने में समझते नहीं है। जैसे स्प्राइट पीकर घूमते है, "सीधी बात, नो बकवास।"
कर्म और फल – सीरीज़ का आध्यात्मिक पक्ष
यह लिखते लिखते और किसी काम में लग गया था। अपनी आने वाली यात्रा की तैयारियों में। एक पीडीऍफ़ बनायीं है। गलती से अच्छी बन गयी। तो फिर उसे आकर्षक बनाया। खाली आदमी हो तो क्या न करे? वैसे पंचायत की इस सीजन में सिखने लायक क्या था पता है? "कर्मफल".. यही एक मात्र सिद्धांत पूरी सीरीज़ का सार लगा मुझे। सचिव जी इतने वर्षो की शिक्षा में की हुई मेहनत के स्वरुप अच्छे अंको से पास हुए। बनराकस का एक ही नारा एक ही लक्ष्य.. था, वह लगा रहा, और सफल हुआ। प्रधानजी ने प्रधान होते हुए फुलेरा को पूर्व पश्चिम में बाँट दिया, समान विकास के बदले एक भाग को ज्यादा लाभ दिए, तो हार खानी पड़ी। प्रह्लादचा.. उनके निर्लोभ ने उन्हें विधायकी चुनाव की टिकिट दिलवाई। विकास ने मेहनत और स्नेह से पेंतीस लाख की जमीन पायी।
प्रत्येक गुणों से कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता है, प्रियंवदा। अभी समय हो चूका छ बजकर पचपन मिनट। बारिश लगातार हो रही है, लगभग एक घंटे से। मौसम ठंडा हो चूका था। और इस बारिश पर मुझे आज ही इंस्टाग्राम पर ऐसी बढ़िया लाइन मिली, लेकिन अफ़सोस यहाँ लिख नहीं सकता। आजकल इंस्टाग्राम पर कम ही घूम रहा हूँ। कारण भी है, फिल्मे देखने और बुक्स पढ़ने की चानक चढ़ी है मुझे। या फिर दिनभर कुछ न कुछ क्रिएटिव करने में अपना दिमाग लड़ा रहा हूँ। जैसे आज पहली बार ms word में एक यात्रा की रूपरेखा बनायीं। हाँ ! टेक्निकल सहायता के लिए चैटजीपीटी का भरपूर सहयोग ले रहा हूँ।
बस फिर आज के लिए इतना ही सही, क्योंकि अब पाताललोक की दूसरी सीज़न भी देखनी है।
शुभरात्रि।
(३०/०६/२०२५ )
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– दिलावरसिंह
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