चनाचरितमानस
पाककला और मेरा शत्रुतापूर्ण रिश्ता
पाककला और मैं.. वैसे तो कट्टे शत्रु है। लेकिन उसकी उपयोगिता अनिवार्य भी तो है। इसी कारण से कभी कभी उससे यारी दोस्ती रखनी भी पड़ती है। "रसोड़े में कौन था?" यह प्रश्न मुझे कभी भी कठिन लगा ही नहीं। क्योंकि बचपन से देखता आ रहा हूँ। एक स्त्री है, जो हमेशा वहीँ, या उसके आसपास पायी जाती है। कभी मंद मुस्काते हुए आटे को गुंदते हुए, तो कभी आलू को समानाकार समारते हुए। हर बार वे सबके भोजन कर लेने के बाद ही अपनी थाली अपनेआप परोसतीं है। और कब भोजन कर लेती है मुझे समझ नहीं आता था। माँ होती ही ऐसी है। लेकिन मेरी उनसे एक भारी शिकायत रही आज।
स्वास्थ्य का आदेश और आत्मसंघर्ष
मुझे कभी भी किचन में पैर नहीं रखने दिया। पानी भी मैं जहाँ बैठा होऊं वहां, गिलास भर कर ही दिया। और इसी कारण मैं अभागा - रसोड़े के संसाधनों से अनभिज्ञ रहा। पाककला.. वो होती क्या है, नहीं जानता। हाँ ! बने बनाए भोजन पर टूट पड़ना अच्छे से सीखा। प्रियंवदा ! आज तुम सोच रही होगी यह अबुध आज बात को कहाँ ले जा रहा है? हैं न? तो ऐसा है, डॉक्टर के सलाह-सूचन के अधीन होकर मैंने दोपहर को कुछ ढंग का भोजन करना शुरू किया है। पिछले कईं वर्षों से दोपहर को या तो भोजन ही न करना, या फिर बाहरी तला हुआ, मिर्च-मसालेदार नाश्ता करना.. यही एक मात्र अटल निर्णय था।
अभिमानी चनों की चुनौती
हाँ ! एक-दो सप्ताह से दोपहर को मात्र ककड़ी-टमाटर का सलाद, या फिर सेब-केले आदि फलों का सेवन कर रहा हूँ। मैं जो भी करूँ, गजा भी वही दोहराता है, या मेरा साथ निभाता है। तो आज हमने हद्द ही कर दी। किलो भर देशी चना ले आया था गजा। सोचा था, कि दोपहर को उबले चने का पौष्टिक सेवन करके स्वास्थ्य बनाएँगे। लेकिन हमारी पाककला की निष्णाति देखिए आप, दोपहर एक से तीन लंच समय के अनुसार हमने साढ़े ग्यारह चने भिगोए। मैं तो रसोई का अज्ञानी हूँ, और गजा तीसरी फ़ैल है। लेकिन हमारा विश्वास.. दृढ विश्वास था, कि चने एक-डेढ़ बजे तक तो भोज-योग्य हो ही जाएंगे। लेकिन वे जिद्दी निकले। हमारी कोई गलती न थी।
चनों का युद्ध: रणनीति और प्रतिकार
मुझे पता था, चने को पहले भिगोए जाते है। और हमने भिगो दिए थे। ज्यादा नहीं, हम दो जनो के लिए तीन कटोरी..! लेकिन हमारा ईर्षालु बहादुर देख गया और बोला, "सर ! थोड़ी कंजूसी कीजिए। एक कटोरी ही भिगोइये।" मुझे उन रोड पर अनिमेष भागते ट्रको के पीछे लिखा सिद्धांत याद आया, "ईर्षालु को आशीर्वाद".. और हमने बहादुर का मन रखने के लिए तीन कटोरी के बजाए एक कटोरी चने पानी में सराबोर कर दिए। मेरी आँखों के आगे कुछ-कुछ अस्पष्ट चित्र उभर तो रहा था, लेकिन धुंधला था। जैसे कोई चने भिगोकर रख रहा है.. रात को ही.. अगली सुबह के लिए।
गजा मेरे पास आया, "बापु ! चने तो जिद्दी है.. इनका कुछ नहीं होगा।" पानी में भीग यह रहे है लेकिन दोपहर को हमे तरसाएँगे। अकड़ू चनो का कुछ इलाज करना अब अनिवार्य हो गया। क्योंकि समय हो चूका था पौने एक। ऐसा नहीं है, कि इन चनो के बिना हमारी भूख मिटाने वाला कोई न था..! पास ही दूकान पर ककड़ी-टमाटर हमारे इंतजार में बैठे होंगे यह मुझे अच्छे से ज्ञात था। लेकिन बात अब ईगो पर आ गयी थी। जयकांत का ईगो हर्ट नहीं होना चाहिए। एक बज गया, लेकिन चने ज्यों के त्यों अपनी पर दृढ थे। कुछ इसी तरह रामजी ने तीन दिन समंदर के सामने बैठकर इंतजार किया था। लेकिन मैं राम नहीं।
प्रेशर कूकर का रणक्षेत्र
साढ़े ग्यारह से डेढ़ बजे - दो घंटे बाद भी जब चनो का घमंड चकनाचूर नहीं हुआ, तो हमने उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ शुरू किया। इन दुष्ट चनो का घमंड तोड़ना जरुरी हो गया था। विभीषण से सलाह ली गयी.. और हमने कूकर चढ़ाया..! अब चनो को कुकर सिटी मार मार कर छेड़ने लगा। कुल मिलाकर छह-सात सीटियों से चनों ने हथियार डाल दिए। लेकिन अब भी पूर्णतः नरम नहीं हुए, घमंड शेष था थोड़ा। क्योंकि इनमे एकता थी। जरूरत लगी इनकी एकता तोड़ने की। पास ही दुकान से दो टमाटर, एक बड़ी प्याज, दो नमकीन के पैकेट, और दो निम्बू ले आए। टमाटर तो सहज थे, लेकिन प्याज ने जैसे चनो का साथ देते हुए, कुछ देर हमारी आँखे जलाई।
विजय-घोषणा और देवताओं का उत्सव
निम्बू तो बेचारे बने ही निचोड़े जाने के लिए है। और हम जैसे दुष्ट तो उनकी आखरी रसबूंद भी खिंच लेते है। लेकिन वे भी थोड़े चतुर तो थे ही। रस के साथ एक-दो बीज भी उन्होंने चुपके से त्याग दिए। आख़िरकार मैं और गजा.. इस दोपहरी भूख का भंजन करने में अवश्य ही समर्थ थे। सकुशल भी। चनो का घमंड चूर करके विजयनाद के लिए शंख तो मिला नहीं, डकारें मारकर ही विजय-घोषणा की। इन्द्रादि देवताओं को इस युद्ध में इंटरस्ट कम होगा, लेकिन पुष्पवर्षा के बदले अवकाश से, बादलों ने पानी बरसाकर अपना हर्ष जताया। वायुदेव भी उन्मुक्त होकर यहाँ से वहां तीव्र गति में झूमने लगे। चारोओर हर्षोल्लास और खुशियां ही थी।
शांति की तैयारियां और कल का आह्वान
विजयी होने की संतुष्टि के साथ, दोपहर को फिर से मैं उन थोथो में लगा गया, जो मुझे भी प्रधान जी की ही तरह बड़ी प्यारी है, वह चक्केवाली कुर्सी में बैठकर। सुबह से इन थोथो में अपना माथा फोड़ रहा था। उपर से चनो से युद्ध छिड़ गया। सुबह ऑफिस आया तब से यह चना आँख का कना बना हुआ था। निपटा दिया। और कल की शांति की पूर्व तैयारियां स्वरुप आज शाम को ही फिर से एकाध कटोरी भिगोकर रख देंगे। ताकि कल जल्दी ही परास्त कर सकें।
आज विजय के आनंद के अतिरेक में हूँ, और आगे नहीं लिख पाउँगा।
शुभरात्रि।
(०१/०७/२०२५)
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह