अंकल बनने की शुरुआत और वो पहली पौधा-रोपण की सुबह
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अंकल की भूमिका को अपनाते दिलावरसिंह..! |
प्रियंवदा ! बहुत रोका था मैंने, फिर भी पिछले साल तीसी में प्रवेश कर चूका था मैं। आज किसी ने उम्र पूछ ली। और सहसा मुझे याद आया, मैं तो वृद्धत्व की ओर बढ़ चूका हूँ। अंकलों वाली हरकतें अब मुझे भी शुरू कर देनी चाहिए। और मैं तो शायद अंकल भी, वो खड़ूस वाला बनूँगा। जो बच्चो के शोर-शराबे पर उन्हें धमका देते है। जो सुबह सुबह मॉर्निंग वाक कर के, तंदुरस्त रहने के ख्याली ख्वाब में मदमस्त रहते है। जो अपनी आँखों पर लगे चश्मे के बावजूद, चेहरा ऊपर-निचे करके, चश्मा की किनारे से देखते है। हाँ ! लेकिन अख़बार नहीं होगा मेरे पास। वैसे मैं नई पीढ़ी का अंकल हूँ, तो मैं अपने मोबाइल में, या कंप्यूटर पर व्यस्त दिख सकता हूँ। अरे लेकिन मैं सब्जी मंडी नहीं जाया करता हूँ, अब से वह भी शुरू करना पड़ेगा। और हाँ ! सलाहें तो बिन मांगे देनी पड़ेगी। अब तो स्कुल में पढ़ने वालों से उनके पर्सेंटेज भी पूछने चाहिए मुझे।
उम्र का एहसास और समाज की नजरें
वैसे अजीब तो लगता है। जब कोई आपसे उम्र पूछे, भले सीधे न पूछा हो, किसी और से कम्पेरिज़न करके सवाल को पैकेट में भेजा हो, लेकिन सवाल तो वही है। अरे हाँ ! अब मुझे वो आशिक़ी-वाशिकी छोडकर प्रधान मंत्री को यह नहीं करना चाहिए था, उस पर फॉकस करना चाहिए। आखिरकार अंकलों की भी तो इस देश के लिए कुछ जिम्मेदारी बनती है या नहीं? फिर सोचता हूँ, वो ज़िद्दी अंकल बन जाऊं? जो हर मसलो में अपनी ही चलाना चाहता है। अरे सबसे बुरा हाल तो उस मन का होगा, जो पुरुषपने में अँधा होकर सुंदरता निहारा करता था। अब ख्वाब में प्रियंवदा से अधिक घरेलू खर्चों के बिल्स आएँगे क्या? अब मारपीट के बदले प्लाट खरीदने का ख्याल रखना होगा क्या? फलाने की फलाने रिश्तेदारियों में तोंद को इनशर्ट में दाबकर पहुंचना पड़ेगा?
पौधों के साथ आत्मसंवाद: जब सास की ज़ुबान भी हरी हो गई
जो भी हो, लेकिन जीवन में एक चीज किसी के लिए नहीं रूकती, वो है उम्र। यह रूकती है, तो बस मृत्यु पर। लेकिन कोई मृत्यु के बाद यह कहने नहीं आता, कि मैंने उम्र रोक ली। तो ऐसा है प्रियंवदा ! आज सुबह उठा साढ़े सात को। ग्राउंड में जाने की अवधि ही नहीं थी। ब्रश करके तुरंत पहुंचा पौधों के पास। जैसे कल लगाए, और आज उसमे फूल आने वाले हो। नहीं आते, इतनी जल्दी नहीं आते, जानता हूँ, लेकिन धैर्य कहाँ है मुझमे? सुबह सुबह उन नए पौधों में पानी दिया। अभी उन्हें छत पर शिफ्ट नहीं किया है। फ़िलहाल घर की सीढ़ियों पर ही रखा है। धीरे धीरे गमलों की संख्या बढ़ाएंगे, और छत भी हरीभरी करेंगे। बिलकुल उन बिहारी भाभियों की तरह। अरे ! मैंने नहीं कहा, यह तो रील्स में एक रील आयी थी, जिसमे कोई बिहारी बता रहा था, कि भोजपुरी में कोई एक्ट्रेस तभी काम कर पाती है, जब वो हरीभरी हो। यहाँ हरीभरी का अर्थ मध्यम मोटापा है। सुखी ककड़ी नहीं चलती उनके अनुसार।
ChatGPT और बग़ीचे के ख्वाब
बड़ी अजीब भाषा है न.. कैसी कैसी उपमाएं दी जाती है। खेर, अपने नित्यक्रम पर आते है। कल रात मौसमी नदी के किनारे बैठकर लिखी हुई दिलायरी, सुबह ऑफिस पहुंचकर पोस्ट की। और पौधरोपण पर स्नेही से खूब वाहवाही बटोरी। (नया-नया अंकल आत्मश्लाघा में विश्वास रखता है।) उसके बाद लग गया चैटजीपीटी के साथ बतियाने। उसने बताया, मुबारक हो आपने दो पौधे लगाए है। अब आप इन और पौधों को अपनी छत पर लगाएं तो छत पर बगीचा बनेगा। और उसने दस चुनिंदा पौधों के नाम बताए। चलो, उसकी भी मान ली जाए। लेकिन उतने गमलो का भी तो इंतजाम करना पड़ता.. इस समस्या पर उसने ही बताया, कि गमलों की क्या जरूरत है? टीन के डिब्बों से लेकर बोरी में उगाओ..! अजीब तो तब लगा जब उसने बताया, कि पुराने मोज़े में पौधा लगाओ..! यह चैटजीपीटी भी पूरा जुगाड़ू है। वैसे उसने भी इंटरनेट पर उपलब्ध आईडिया पढ़े होंगे।
स्नेक प्लांट और उसके विवादास्पद नाम
खेर, शाम तक तरह तरह के पौधे के विषय में सर्चिंग की। उसमे एक पौधा और रसप्रद लगा। उसका अंग्रेजी नाम तो है, 'Sansevieria'.. लेकिन इसे हिंदी में क्या कहते है यह खोजा, तो पता चला हिंदी नाम है, 'सास की जबान'.. अब सासु की जुबान भी गमलो तक पहुँच गयी है क्या? या फिर एक और नाम है इसका, 'स्नेक प्लांट' मतलब सांप का पौधा..! बताओ, नाम से ही बदनाम है यह तो। लेकिन यह हवा शुद्ध करता है। इसे उगाना भी बड़ा आसान है, और सबसे अच्छी बात, इसकी केयर करने की कोई जरुरत नहीं। बस इसे गमले में लगा दो, पानी भी नहीं मांगता। ऐसा ही तो चाहिए मुझे। बगैर मगझमारी वाले पौधे..!
जब आम की गुठलियों ने जन्म लिया सड़क पर
बिलकुल बारिश के बाद निकल आती घास जैसे। जिन्हे कोई नहीं उगाता, वे अपना रास्ता खुद लेते है। न ही उन्हें किसी कीटनाशकों की जरुरत पड़ती है, न ही कोई विशेष खाद की। न उनका जतन होता है, न उनकी देखरेख। लेकिन वे भीड़ में होते है, इस कारण उनकी कदर नहीं होती। वे इकठे होते है, फिर भी उनका कोई मूल्य नहीं। लेकिन वे मुक्त विहरते पशुओं के लिए वरदान बनते है। अपनी आहुति दे देते है। बिना किसी सम्मान की आशा के। उन तृणों पर तो किसी कवि का ह्रदय भी नहीं पिगला? बस रूपक बन कर रह गए। आम (सामान्य) थे, आम होते तो बड़े नाजों से पाले जाते। आम से याद आया। रोड पर पांच आम के पौधे उग आए है। वे भी अपने आप, गहरे जामुनी और लाल रंग के मिश्रित पत्ते तुरंत पहचान में आ जाते है। गर्मियों में गुठली फेंकी होगी, वो उग निकली।
क्या अब सौम्यता सीखनी होगी?
सोचा पौधा निकाल लेता हूँ, और मिल में नीम के पास लगा दूंगा। लेकिन यह हाथ कोमलता नहीं जानते, धैर्य नहीं जानते। गलती से जोर लगा दिया, गुठली अलग हो गयी, पौधा अलग। बालमरण कर दिया मैंने उसका। फिर तो अन्य चार पौधों को मैंने हाथ ही नहीं लगाया। डॉक्टर की तरह धीरजपूर्वक इन्हे उठाना होता है। और अपन ठहरे तड़फड़ करने वाले..! कल वो गेंदे का पौधा लगाते समय भी वह हाथ से गिर गया था। और उसकी जड़ों में लगी सारी मिट्टी अलग-थलग हो गयी थी। अंकलों वाली सौम्यता मुझे आचरण में लानी सीखनी पड़ेगी।
वैसे आज दिनभर में काफी पौंधों के विषय में जानकारियां जुटाई है। एक तो यह स्नेक प्लांट, फिर हिबिस्कस माने गुजराती में जासुद और हिंदी में गुड़हल, वो कागज के फूलो वाला बोगनवेलिया, परिविंकल, पंचफूली या लेंटाना, क्रोटन.. वगैरह वगैरह। बहुत सारे है। उतने, जितने गमले नहीं हो पाएंगे मेरे पास। गमलों का तो तब भी जिगाड हो जाए, लेकिन मिट्टी.. वो कहाँ से लाऊँ? किसी के खेत से चुराने जाऊं? वो नरसरी वाली सुंदरी भी बड़ी दूर है, वरना उससे ले आता। खेर, यह तो शौख की बात है, यह अच्छे से जानता हूँ। समय हो चूका है अब साढ़े सात। और कुछ लिखने लायक है नहीं। तो सोचता हूँ रजामंदी ले लूँ..
शुभरात्रि।
(१४/०७/२०२५)
|| अस्तु ||
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जब एक साधारण रविवार, पौधों की सूरत में मुस्कुराने लगा... और गेंदा-मधुमालती की महक में कुछ अधूरी यादें भी भीग गईं।
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– दिलावरसिंह