दिन की शुरुआत – मिट्टी, बोरा और वजन का ज्ञान
प्रियंवदा ! क्या घटिया दिन गुजरा है आज..! बेकार.. फिजूल.. और झुंझलाहट इतनी ही है, तुम्हे भी बताने का मन नहीं कर रहा है। बड़ा बुरा लगता है, जब कोई उचित मूल्याङ्कन न करे। और समस्या तब अधिक अनुभव होती है, जब आप बोल भी न पाओ। अपना विरोध न प्रकट कर सको। कुछ ऐसे रिश्ते हो जाते है जहाँ मोल-भाव मुंहजुबानी नहीं होता। आपसी समझ में होता है। लेकिन जब मूल्याङ्कन में उलटफेर हो, तब खटराग पनपता है। मन भारी सा लगता है, और अपने आप पर खीज भी होती है, कि बोल क्यों न पाए?
![]() |
खोदने में लगे दिलावरसिंह..! |
फिर आदमी अपने आप के बदले दिन को कोसता है। वैसे आज का दिन है भी कोसने लायक। खालीपन से भरा हुआ दिन। सुबह जागकर ग्राउंड में चक्कर काटते हुए ख्याल आया, कि यहाँ मिट्टी का ढेर लगा हुआ है। घर पर कुछ गमले आएं है, उनमे नए पौधे लगाने के लिए जरुरी है। तो वहीँ ग्राउंड में एक प्लास्टिक की बड़ी पन्नी मिली, और लबालब मिट्टी भर ली। लेकिन वो पन्नी झेल न पाई भार.. बिचसे ही बीचक गयी। वापिस घर आया, और बोरा भरा। आदमी औकात भूल जाता है, जब कुछ फोकट में मिलता है तो। २५ किलो का बोरा कंधे पर घर तक ले जाने की, मेरी क्षमता तो नहीं है, यह अमूल्य ज्ञान वहीँ खड़े खड़े प्राप्त हुआ मुझे। वापिस घर गया, बाइक लाया, और बाइक पर ले गया।
वहीँ घिसीपिटी जीवनी.. ऑफिस आओ, नौकरी करो.. शाम तक रील्स देखो, शाम होते ही यह लिखने बैठो। ठीक नौ बजकर तीन मिनिट पर, मैंने कल वाली दिलायरी शेयर कर दी थी। (यहाँ क्लिक करके पढ़िए।) उसके बाद तो दिनभर ऐसा ख़ालिखम रहा है.. कि ढूंढने पर भी कोई काम नहीं, न कुछ पढ़ने को मन करें, न कुछ रील्स में, न यूट्यूब शॉर्ट्स में। दोपहर होते होते कहीं से एक पेमेंट का चेक लेना था मुझे। चेक लेने निकला तो बाइक का पिछले टायर फुस्स था। बिलकुल हवा नहीं। शायद प्रकृति मना कर रही थी, लेकिन मैं फ्लैट टायर से भी चेक लेने चल पड़ा। चेक बिना देखे जेब में डाला। और चल पड़ा पंक्चर वाले के वहां।
चेक-कटौती – मूल्यांकन की मार और मूक विरोध
हवा भरवाकर पहुंचा बैंक। डिपाजिट करते समय अंको पर ध्यान गया, दस महीने की मेहनत के मेहनताने में चालिश प्रतिशत की कटौती की गयी थी। बड़ा अफ़सोस हुआ चेक बिना देखे जेब में डालने का। मैं शायद लेता ही नहीं। भले बोल न पाता कि यह कोई बात न हुई, लेकिन चेक लिए बिना ही वापिस चले जाने पर अगले को गलती का अनुभव बिन-बोले ही हो जाता है। प्रियंवदा ! इतनी कड़क धूप थी, कि वापिस लौटते समय सर चकरा गया। एक तो झुंझलाहट थी ही चेक की। ऊपर से यह धूप। सूर्यनारायण आग उगल रहे थे।
कभी कभी लगता है, छोड़ न। कौन उतने झमेले पड़े? आगे से काम में कटौती कर देंगे। समतूला बनाए रखनी पड़ती है। दोनों और से। घोडा घास से दोस्ती नहीं कर सकता। बड़ी अफ़सोस की बात यह भी है, जब अगला पूछ रहा था, तब मैंने भी आप अपने हिसाब से देख लो कह दिया था। यही तो गलती थी। यहाँ थोड़ा मुँहफट होकर, लाज-शर्म छोड़कर एक रकम कह देनी चाहिए। वर्ना आखिर में झुंझलाहट सहनी पड़ती है।
दोपहर की धूप – तन का ताप और मन की खीज
मार्किट से वापिस लौटा तो हालत ख़राब हो गयी थी। सीधी धूप को सर पर ढोई थी मैंने। वह भी दोपहर के एक से तीन वाली। ऑफिस पहुंचकर सीधे ही चेयर को रिक्लाइनर कर पसर गया। एक-दो तंद्रापूर्ण झपकियां जरूर लगी, लेकिन पूरी तरह से आराम न मिला। गर्मी सहन नहीं होती है मुझसे। सर्दियों में जैकेट सबसे लास्ट लगाता हूँ, और सर्दियाँ ख़त्म होने से पूर्व निकाल भी देता हूँ। ठण्ड कम लगने का नुकसान यही है, कि गर्मी में बुरा हाल रहता है मेरा। बगैर मेहनत के भी थकान होती है, हांफता हूँ। AC के बिना जैसे जीवन असम्भव सा मालुम होने लगता है।
गमले, रंग और सांवला – बागवानी की बातों में सुकून
शाम हो गयी, साढ़े सात बज रहे है। ऑफिस में मच्छरों की आततायिता चरम पर पहुँच चुकी है। अरे हाँ ! दिलबाग को रंगीन करने के लिए आज मार्किट से लौटते हुए दो आयल-पेंट भी ले आया। सोचता हूँ, ऑफिस की मगझमारी को रंगो में छिपा दू। लेकिन रंग भी तो उतरते है, आदमी के भी। बस एक वो सांवला नहीं उतरता। वैसे भी सारे रंग उस सांवले में ही समा जाते है। पेंटिंग-वेंटिंग तो आती नहीं अपन को.. वैसे भी कौन सी मुझे प्रदर्शनी लगानी है। इधरउधर पिछड़ें (ब्रश) मार देंगे। हो जाएंगे कलरफुल गमले..! प्रियंवदा ! यह बागवानी का भूत कब तक उतरेगा? तुम्हे क्या लगता है?
शुभरात्रि।
(१५/०७/२०२५)
|| अस्तु ||
और भी पढ़ें:
-
पाक कला, काले चने और दोपहर का युद्ध
जब दोपहर ने रसोई में जंग छेड़ दी — चनों की सीटी, गर्मी की झुंझलाहट और स्वाद का संग्राम।
प्रिय पाठक !
"क्या आपने भी कभी बिना बोले सह लिया है कुछ?
या ऐसी ही दोपहर काटी है धूप और मनमुटाव के बीच?
कमेंट कर बताइए अपनी 'दिलायरी'!"
www.dilawarsinh.com | @manmojiiii
– दिलावरसिंह