"डिजिटल डायरी : शाखा के अनुभव, ई-बुक की तैयारी और एक रंगीन शनिवार" || दिलायरी : 26/07/2025

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आज का दिन: ई-बुक निर्माण, शाखा के पल, और घर की हलचलें


e-book banate hue Dilawarsinh..!


ई-बुक की तैयारी : मई की दिलायरी का संकलन

    आज का दिन बढ़िया रहा, न बुरा, न अच्छा..! बढ़िया इस लिए की कुछ बुरा न हुआ बस। प्रियंवदा ! दिलायरी का एक इ-बुक संस्करण आ रहा है। बहुत जल्द, आज का दिन उसी में व्यतीत हुआ है। सारा दिन एक इ-बुक डिज़ाइन करने में निकल गया। अरे मतलब नौकरी भी की है मैंने। लेकिन जितना भी फ़ालतू समय मिला, सारा उसी में लगाया है। वैसे प्रियंवदा, तुम्हे क्या लगता है? एक प्रति माह का संस्करण भी होना चाहिए? देखेंगे, उस विषय में भी बहुत जल्द आगे बढ़ेंगे, फ़िलहाल चलो, आज की दिलायरी कल रात से शुरू करते है। उसका भी एक वाजिब कारण है। 


शाखा का अनुभव : गीत, बौद्धिक और आत्मविश्वास की कमी

    तो, बात ऐसी है, कल की दिलायरी में ही मैंने लिखा था, कि विषैले गजे का शाखा में समयसर हाजिर हो जाने का फरमान छूट चूका था। और ठीक नौ बजे मैं चौक पहुँच गया था। वैसे तो हमारी शाखा लगती है, शुक्रवार रात साढ़े नौ। लेकिन मैं थोड़ा जल्दी फ्री होकर जल्दी ही पहुंच जाता हूँ। गजा मुझ से भी पहले आकर बैठा था। वही सब होता है, जो हर शाखा में होता है। स्तवन, प्रार्थना, गीत, खेल, बौद्धिक, और समापन। तो कल प्रार्थना के बाद जो गीत लिया गया, वह भारी कठिन हुआ.. क्योंकि नियम तो ऐसा है, कि गीत गाये जाने के बाद उसका भावार्थ सबको करना है। जिसे गीत में जो समझ आया वह सबको बताएगा। और सबकी बारी आती है। बहुत बुरा फंसता हूँ, जब मुझे बोलना पड़ता है। मुझमे सभा-संबोधन करने का आत्मविश्वास नहीं है। 


    शाखा सर्वांगीण विकास का ही काम करती है। यहाँ अपनों के बिच आदमी ठीक से खुल सके, भारी मेदनी के बिच भी दृढ विश्वास के साथ बोल पाए, झिझक न रहे, उसी के लिए होती है। खेल के साथ साथ बौद्धिक चेतना भी जागृत हो, यही कार्य है शाखा का। कल के संघगीत ने सबके पसीने छुड़वा दिए। कोई भी निश्चित भावार्थ को नहीं पकड़ पाया। जब बारी मेरी आयी, मैंने भी स्किप ही किया। बोलने में भारी कठिनाई होती है मुझे। आवाज काँप जाती है। एक और मित्र ने बोलना शुरू किया, वह जहाँ अटकता, वहां मैं उनकी मदद कर देता। दो पंक्तियाँ मुझे बड़ी पसंद आयी, 


"कुछ बंद पड़ा है तालों में, तुम याद न जग के ख्यालो में.. 
घोड़ो, नरों, खगधारों का, पानी गया पातालों में..
लौट पड़े न पड़े तू मेरी, व्यथा के प्याले पीते जा..
शायद है, तू हार चूका पर, आज की बाजी जीते जा.."


    जिसे जो अर्थ समझ आए, उसके लिए वही सही है.. लेकिन एक होंसला जरूर बंधाती है यह पंक्तियाँ। पहली ही पंक्ति में जब सस्पेंस बना दिया, कि कुछ तो है जो तालों में बंद पड़ा है। सभी शाखा बन्धुओने अपने अपने मनानुसार अर्थघटन किया। और सबके अर्थघटन बहुत सही लगे। खेर, उसके बाद बारी आयी खेल की। "नगर-पहचान" नामक खेल में पुनः एक बार, गजे ने मेरा फिर से घमंड उतार दिया गुजरात के भूगोल का। वो हमेशा मुझे हराने के लिए ऐसे नगर का नाम चुनता है, जो इतिहास से तो जुड़ा होता है, लेकिन वर्तमान में गुमशुदा हो। ब्रिटिश राज के दौरान एक देशी राज्य हुआ करता था, वांसदा, सोलंकियों की रियासत थी। और चारोओर से वनों के संरक्षण में। 


जीवंतिका व्रत और गमलों का रंगारंग दिन

    खेर, कल रात जब ऑफिस से घर पहुंचा तब, कुछ बदलाव दिख रहे थे। कल शुक्रवार था, और गुजरात में स्त्रियां व्रत रखती है, 'जीवंतिका' का। अब ज्यादा कुछ याद नहीं है, इस व्रत के विषय में, लेकिन जिस स्त्री को पुत्र संतान हो, वे उस दिन उपवास एवं मध्यरात्रि तक जागरण रखती है। और लाल वस्त्र ही धारण करते है। तो इस व्रत का फायदा यह हुआ, कि दोपहर को टाइमपास करने के लिए मेरी माताजी, और उनकी पुत्रवधु ने, मेरे वो कबाड़ से बनाए गमले रंग दिए। प्लास्टिक पेंट मेरा लाया हुआ रखा ही था। तो अब वे गमले थोड़े लाल-पिले और चित्रकला के शौकीनों को न पसंद आए वैसे हो गए। यूँ तो पहले से बेहतर है। कलाकारों की मेहनत को सलाम, और झूठी तारीफें - दौनों दी मैंने। उनका व्रत था भला, और क्षुधा-ग्रस्तों से बड़ा नरम लहजा रखना चाहिए। वरना अपनी भूख का साधन भी मिटा दिया जा सकता है। सौ बात की एक बात, वे गमले पहले से तो काफी सुंदर हो गए है। 

Dilbaag

    सुबह आज ऑफिस पहुंचा, हालाँकि शनिवार के बावजूद कोई काम की माथाफोड़ी या तनाव नहीं था। तो इस खाली समय का सदुपयोग करते हुए मैंने समस्त मई महीने की दिलायरी पोस्ट्स एकत्र की। और उन्हें एक पीडीऍफ़ स्वरुप में रूपांतरित किया। बहुत जल्द इस ब्लॉग पर उसे पब्लिश कर दूंगा। एक संकलन सा बन गया है। जहाँ तिस दिन की बातें एक ही जगह इकट्ठी हुई है। प्रतिदिन क्या क्या बदलाव हुए, सारी बातें वहां चढ़ते क्रम में संकलित की है।


ट्रैफिक जाम और जीवन के छोटे निर्णय

    वैसे काफी कठिन काम है एक इ-बुक बनाना। काफी समय और ऊर्जा लगती है। नए नए पेज बनाने पड़ता है। कवर पेज, शीर्षक, समर्पण, अनुक्रमणिका, प्रस्तावना, और अंत में आभार..! हर पन्ने पर कुछ नया लिखना पड़ा। और बहुत से MS WORD के फंक्शन्स - जो मुझे आते ही नहीं थे, उन्हें CHATGPT और यूट्यूब से सीखता गया। आख़िरकार वह पीडीऍफ़ बन ही गयी। लगभग पूरा दिन ही खर्च हो गया उसमे। दोपहर तक ही यूँ तो तैयार हो गयी थी। आज गजा नहीं था, तो कोई दखलंदाजी भी नहीं थी। इस कारण ध्यानभंग न हुआ। दोपहर को चल पड़ा घर। हेवी ट्रैफिक लगा हुआ था। और मैं ऐसे मौकों पर अक्सर गलत रास्ते चुन लेता हूँ। 


    लम्बी कतार में जैम में खड़े ट्रक्स के बिच गलियारे से बाइक निकालते हुए, आखिरकार जैम से निकल गया। सोचा अब थोड़ा जल्दी पहुँचने के लिए दूसरा रास्ता लिया, जो आगे नए जाम में मग्न था। एक जैम से निकलकर दूसरे में फंसना तो कोई मुझ सा भाग्यशाली ही कर सकता है। लेकिन समय रहते बुद्धि ने अपनी तीक्ष्णता दिखाई, और मैं यूटर्न लेकर हमेशा वाले रस्ते पर आ गया। वातावरण बादलों से घिरा था, तो भोजन करके कुछ देर पौधों के पास बैठा, और तीन बजे से पहले वापिस ऑफिस आ गया। 


    शाम तक फिर कुछ ऑफिस के कामों में व्यस्त रहा। और अभी साढ़े सात बजे फिर से एक काम आ गया। बस आज इसे यहीं विराम दे देते है। कल फिर मिलेंगे। 


    शुभरात्रि। 

    २६/०७/२०२५

|| अस्तु ||


"और भी पढ़ें"

  • एक शाम शाखा के गीतों में उलझी, और दिनभर ई-बुक की साज-सज्जा में रची-बसी दिलायरीयहाँ पढ़ें


प्रिय पाठक !

अगर आपने दिलायरी के इन पलों में खुद को कहीं पाया हो,
कभी शाखा की झिझक में,
कभी गीतों की गहराई में,
या फिर ट्रैफिक की उलझन में—
तो इस ई-बुक संस्करण की प्रतीक्षा कीजिए।
बहुत जल्द, मई महीने की समूची दिलायरी
एक ही छांव में संकलित होकर
आपके हाथों में होगी...
कृपया बने रहिए – और पढ़ते रहिए – दिलायरी।

www.dilawarsinh.com | @manmojiiii

– दिलावरसिंह


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