कावड़ यात्रा : नियम, आस्था और आज की विडंबनाएँ
गुजरात के सिवा हर जगह सावन शुरू हो चूका है। और सावन के शुरू होते ही, कावड़ियों के रुझान भी आने शुरू हो चुके है। प्रियंवदा ! हमने भक्ति और आस्था को भी दिखावा बना दिया है। हमे जाप की गणना से ज्यादा लाइक्स की गणना का आकर्षण है। समस्त सोसियल मिडिया समाज शिव शिव कर रहा है। और कौन कितना शिव शिव कर सकता है, वह सोसियल मिडिया पर प्रदर्शित करते हुए, अन्य को भी शिव शिव करने की चुनौती दे रहा है। अति आस्तिक लोग बाजार में निकल पड़ेंगे, मांस विक्रेताओं का मूलच्छेद करने, वह भी केमरामेन के साथ। अक्सर इन सुधारकों का कार्य केमरामेन के बगैर, शायद हो नहीं पाता होगा।
गुजरात में कावड़ यात्रा की अनुपस्थिति और व्यक्तिगत अनुभव
बात करते है कावड़यात्रा पर। अपनी बात करूँ, तो मैंने कभी कावड़यात्रा के बारे में, पहले कुछ ख़ास सुना नहीं था। क्योंकि हमारे यहाँ गुजरात में ऐसी कोई परंपरा नहीं है। हाँ ! कावड़ के विषय में इतना जरूर सुना है, कि जूनागढ़ के अंतिम शासक रा'मांडलिक का प्रतिदिन गंगाजल से स्नान का संकल्प था, इस कारण से गंगा से जूनागढ़ तक कावड़ चला करती थी। जब नौकरी लगी, और ज्यादातर स्टाफ / कलीग हरयाणे का था, तो सावन आते आते वे लोग कावड़ की बातें खूब बताते। तब थोड़ा थोड़ा समझ आने लगा, कि इन लोगो के वहां ऐसी कोई परंपरा है, जो कंधे पर कावड़ ले आते है गंगाजल का। और अपने गाँव के शिवालय में शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाते है। पर अपन ठहरे गुजरात में, और कावड़ चलती थी उत्तराखंड से हरयाणा। तो कभी कोई कावड़िया देखा नहीं।
सोशल मीडिया और आस्था का प्रदर्शन
फिर समय आया इंस्टाग्राम रील का, और यूट्यूब व्लॉगस का। वहां सारी सिस्टम समझ आयी। फिर योगीसरकार की ख़बरें और चली। कि कावड़ियों पर पुष्पवर्षा की जाएगी। मार्ग पर वाहन-व्यवहार मर्यादित और नियंत्रित किया जाएगा। फिर एक दिन सुना किसी कावड़िये की कावड़ खंडित हो गयी, और उसने हंगामा मचा दिया। इस बार भी, शुरू होते ही, दो दिन में दो कार फोड़ दी कावड़ियों ने। एक होटल का सर्वनाश कर दिया।
कावड़ यात्रा के प्रमुख नियम और शुद्धता का महत्त्व
भला कोई भी धार्मिक यात्रा क्यों की जाती है? इसका बोध कौन देगा? कावड़यात्रा के नियम पता है? कावड़ यात्रा के ही नियमों की यदि बात करूँ तो सबसे पहला नियम है, स्वच्छता और शुद्धता। शुद्धता मात्र स्थान की नहीं, मन की भी। मन पर भी पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए, कटु विचार भी वहां नहीं होना चाहिए। तन मन की शुद्धता। नशा, मांसाहार, या जिन्हे अपवित्र व्यवहार माना गया है, उन सबसे दूर रहकर शुद्धता बनाए रखनी है। कावड़ यात्रा शुरू हो जाने के पश्चात कावड़ को धरती पर नहीं रख सकते। गंगाजल भर लेने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखते। और ख़ास.. नंगे पैर यात्रा करते है। यात्रा के दौरान हर समय शिवनाम जाप करते रहना होता है। मन के शुद्ध भाव से भोले के प्रति समर्पण रखना होता है। शिवेच्छा को सर्वोपरि समझना होता है। क्रोध से लेकर मन की तमाम भावनाओं पर नियंत्रण होना अनिवार्य है। और कावड़ में लाए गंगाजल से शिव पर अभिषेक करने से यह यात्रा समाप्त होती है।
उत्पात और हिंसा – क्या यही भक्ति है?
यदि इन नियमों का पालन कर सकते है, तो ही यात्रा करे। सोसियल मिडिया पर दिखाने के लिए नहीं। यूनिक की शोशेबाजी करनी हो, तो यात्रा ही नहीं करनी चाहिए। या यात्रा का नाम नहीं देना चाहिए उसे। ऐसी कोई भी धार्मिक यात्रा करनी हो तो सबसे पहले समर्पण भाव होना चाहिए। किसी की कार से टक्कर लग जाए, तुम्हारी कावड़ गिर जाए, तो उसे यूँ समझो कि शिव नहीं चाहते तुम्हारे हाथो से स्वयं पर अभिषेक करवाना। तुम में कोई खोट है, कि तुम्हारी कावड़ खंडित हो गयी। कार वाला तो निमित्त था, तुम्हारी कावड़ खंडित होना वह शिवेच्छा ही रही होगी। तुम्हारी श्रद्धा अपूर्ण होगी। अपनी खोट को श्रद्धा से पूरी करो, समर्पण करो शिव के आगे। उत्पात मत मचाओ।
सरकार की भूमिका : सहूलियतें या प्रवास?
दूसरी बात, ऐसी धार्मिक यात्राओं के प्रति सरकारों को सजग रहना चाहिए, न की इनका होंसला बढ़ाना। वो सब ठीक है, पुष्प-वर्षा करवाओ, इनके लिए थोड़ी बहुत सहूलियत कर दो। लेकिन मुझे लगता है, यदि यात्रा सहूलियतों से भरपूर है, तो वह यात्रा नहीं, प्रवास हुआ। मैंने देखा कुछ लोग इन कावड़ियों की पानी पिलाते है, कुछ लोग फल वगैरह खिलाते है, कुछ लोग पैसे वगैरह देते है। हमारे यहाँ जब नवरात्रि में माता के मढ़ की लोग पैदल यात्रा करते है, तब तो रस्ते भर में हर पांच किलोमीटर पर सेवा-कैंप लगते है। जहाँ भोजनादि व्यवस्था से लेकर मेडिकल केयर, और फुट मसाज भी लोग करते है। बड़े बड़े मिल-मालिक वहां श्रद्धा से यात्रिकों के पैर दबाते है। यह सब हुई सहूलियतें। यात्रा कष्टपूर्ण होनी चाहिए। क्योंकि तुम्हे कुछ पाना है, या तो भक्ति या तो कुछ और.. उस लक्ष्य के लिए तुम्हे कष्ट सहने होंगे। लेकिन मैं देखता हूँ, कुछ पन्नियां चुगने वाले रिक्शा भर भर के माता के मढ़ जाते है, और रस्ते भर सेवा-कैम्प्स से पेट भर भर के ठूंसते है।
गिरनार परिक्रमा: एक तपस्वी यात्रा का उदाहरण
मुझे बड़ी सही यात्रा लगी, गिरनार परिक्रमा की। जूनागढ़ में स्थित गिरनार पर्वत की आस्थावान लोग परिक्रमा करते है, और 'परकम्मा' कहते है इसे। कार्तिक की पूर्णिमा से शुरू होती है, और एकादशी तक की अवधि होती है। लेकिन ३६ किलोमीटर मात्र लोग दो-तीन दिन में कर लेते है। इस यात्रा का नियम है, खुद भोजन पकाओ, खुद खाओ। इसी कारण से यह यात्रा बहुत कम लोग करते है। क्योंकि यहाँ करनी पड़ती मेहनत के साथ साथ, सिंह का भी सामना होने की सम्भावना है। तेंदुआ तो अक्सर प्रति वर्ष किसी का शिकार कर जाता है।
धार्मिक यात्राओं में पवित्रता और समाज के विभाजन के प्रयास
कावड़यात्रा के दौरान एक कोई बाबा घूम घूम कर हर होटल ढाबे में भगवान वराह की छवि बाँट रहा है। क्यों? ताकि अन्य धर्म के लोगो की पहचान हो सके। उससे क्या होगी? पवित्रता बनी रहेगी। पवित्रता तन की तो बाद में, पहले मन में होनी चाहिए। आपको क्या लगता है, वराह भगवन की छवि से वे दूर रहेंगे? जिनके मन में घृणा ही है, वे क्या उस छवि का कहीं आपत्तिजनक उपयोग नहीं करेंगे? यात्रा होती है अक्सर शांति की स्थापना के लिए। और कोई नहीं तो कम से कम मन की शांति के लिए। स्वयं की क्षमता रत्तीभर नहीं है, और चले है कार फोड़ने। वह भी झुण्ड में। इनका सरघस निकलना चाहिए.. बिफोर एन्ड आफ्टर वाला पोस्टर लगाना चाहिए, जैसे अपराधियों के लगे थे यूपी में ही।
श्रद्धा की परीक्षा और समर्पण का मूल्य
वैसे तो शिव भोले है, और इस यात्रा में शुद्धता और अखंडता का भाव है। अन्यथा भोले को तो अघोरी मांस भी चढ़ाते ही है। वह उनकी आस्था है। और हमे - अर्थात सनातन को तो कितनी छूट मिली है, प्रत्येक नियमों में। हमारे मंदिर तोड़े गए, हमने एक पत्थर उठाया, उसे सिंदूर चढ़ाया, हो गए हमारे हनुमान जी। ऐसा ही गणेश जी का भी तो है। गंडकी नदी के प्रवाहो से घिसकर गोलाकार हो चुके पत्थर में हमने शालिग्राम स्वरूपी भगवन विष्णु को माना है। मूर्तियां तो बहुत बाद में आयी, हमारे आस्था कभी भी किसी मूर्ति मात्र में नहीं रही। अन्यथा आज भी सोमनाथ पुनःस्थापित नहीं हो पाया होता, या फिर उन विधर्मियों द्वारा हो चुकी अशुद्ध भूमि को हम पुनः शुद्ध कर के वहां राम मंदिर स्थापित नहीं कर पाए होते। हमारी श्रद्धा, हमारी आस्था हमारे मनानुसार रही है।
हमने जिसे माना, उसे भगवान माना। तभी तो पीपल इतना पवित्र है। क्योंकि हमारी श्रद्धा है। श्रद्धा अडिग होनी चाहिए। कितने भी संकट आए, कष्ट पड़े, विफलताएं आ खड़ी हो जाए, श्रद्धा अडिग रहनी चाहिए। यदि तुम्हारी कावड़ खंडित होते ही तुम क्रोध से भर जाते हो, तो तुम्हारी श्रद्धा अडिग नहीं है। तुम्हे स्वयं से सोचना होगा, अपनी श्रद्धा को मजबूत करना होगा, और पुनः एक बार श्रद्धा से नई शुरुआत करनी होगी, तुम यूँ समझो की भोले परीक्षा ले रहे थे। लेकिन तुम असफल हुए। तुम्हे फिर से कोशिश करनी होगी। उत्पात मत मचाओ, श्रद्धा और समर्पण से काम लो।
बाकी, आज दिनभर की दिलायरी यही थी, कि सुबह ऑफिस आया, शनिवार के कारण थोड़ा ज्यादा काम रहा। स्वास्थ्य आजकल ठीक है, इस कारन दोपहर को कचौड़ियां खा आए। और शाम तक कामो में और यह लेख में व्यस्त रहा। हररोज की ही तरह शाम ढली है आज भी। स्नेही से अच्छी खासी चर्चा भी हुई बागवानी पर। और मौसम में फिर से एक बार नमी वाली गंध है। लगता तो है कि बारिश होगी, लेकिन लगने से अगर हो जाए, तो वह बारिश कैसी। पूर्वानुमान के बिना बरस पड़े, मजा तो तब है। जैसे तुम्हारी याद.. प्रियंवदा, बगैर पूर्वानुमान..!
शुभरात्रि।
(१२/०७/२०२५)
|| अस्तु ||
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आपकी श्रद्धा की परिभाषा क्या है?"
– दिलावरसिंह
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