नीरज मुसाफिर की यात्राएँ, चनों का युद्ध और एक सुस्त दिन || दिलायरी : 02/07/2025

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नीरज मुसाफिर की यात्राएँ और मेरी एक खाली सी संध्या



सुबह का धीमा आरंभ और दफ्तर की कहानियाँ

    पियंवदा..! आज क्या लिखूं? फिर से दिमाग सुन्न पड़ गया है। उपरसे लगता है इंटरनेट भी कुछ स्लो है। क्योंकि फ़ास्ट टाइपिंग कर नहीं पा रहा हूँ। मैं ब्लोग्गर में ही न्यू पोस्ट में यह पोस्ट लिखता हूँ, हिंदी में। लेकिन टाइप फास्ट हो जाता है, शब्द बड़ी देर से प्रकट होते है। वैसे तो आज का दिन कुछ खाली खाली ही रहा है। कुछ ऐसा नहीं हुआ, जिसे यहाँ सम्मिलित कर सकूँ। जैसे दिन चढ़ा, और उतर गया। जैसे पूरी बोत्तल गटकने के बावजूद चढ़ी नहीं। ऐसा अक्सर होता है, जिस दिन मुझे लगता है, कि आज अच्छी पोस्ट लिखी गयी है, उसके दूसरे दिन निःशब्दता छा जाती है। कल 'चनाचरितमानस' लिखते तो लिख दिया, लेकिन आज संताप में हूँ। क्योंकि ऐसा ढंग का कोई विषय या बात आ नहीं रही मन में। 


यात्रा वृतांत पढ़ने का सुख

    सुबह हमेशा की तरह नौ बजे ऑफिस आ चूका था। और वही डेली रूटीन अनुसार पोस्ट शेयरिंग..! स्नेही आज कुछ सुबह सुबह भारी व्यस्त लगा। दोपहर तक ऑफिस के छोटे मोटे काम निपटाए। बिच बिच के खाली समय के गलियारे में नीरज मुसाफिर को पढता रहा। इनका जिक्र मैंने दो-तीन दिन पहले की पोस्ट में किया था, जब मैं पढ़ने के लिए यात्रा वृतांत खोज रहा था। यह वही यूट्यूबर है, जिनको मैंने नियमित रूप से देखा था। फिर दूसरे विषयों में मैं व्यस्त हुआ, और इन्हे भूल गया। छोटा परिचय दूँ, तो वे एक मुसाफिर ही है। पक्के मुसाफिर। अपनी यात्राओं पर लगभग सात पुस्तकें लिखी है। और जिस जगह जाते थे, वहां की भौगोलिक और ऐतिहासिक माहिती जरूर से अपने व्लॉग (यूट्यूब व्लॉग) पर सुनाते थे। कच्छ के छोटे रन का इनका विडिओ मेरे फीड में आया था, और फिर इन्हे रेगुलर देखना शुरू किया था। 


    ज्यादातर यात्रा वृतांत मुझे हिमालय के ही मिलते है। पहाड़ों में पता नहीं कौनसा सुकून पाते है यह सारे यात्रीक। शायद मैदानों में शान्ति नहीं होती है। क्योंकि मैदान प्रगति करते है, पहाड़ सदा जैसे के तैसे रहते है। खेर, उनकी वेबसाइट पर उनकी पढ़ी हुई पुस्तकों में मुझे यात्रा-वृतांतो का खजाना मिल गया। धीरे धीरे समयानुसार उन्हें पढ़ना शुरू करूँगा। फ़िलहाल तो दिनभर इन्ही के यात्रा वृतांत पढ़ रहा हूँ। जबकि गुजरात भ्रमण के जितने पढ़े है, उनमे ज्यादातर व्लॉग स्वरुप में देख चूका था, तो इस कारण से कुछ कुछ यादों के झरोखें खुले मिलने लगे। हाँ ! दिनभर में चार-पांच बार समय मिले तब इन्हे ही पढ़ रहा हूँ। लेकिन २०२२ के बाद नई कोई पोस्ट नहीं लिखी है। 


फेसबुकिया दौर की भूली-बिसरी यादें

    खेर, वो फेसबुकिया दौर था। लोग अनजान मैत्री को प्राधान्य देते हुए सारी दूरियां मिटा रहे थे। हजारों किलोमीटर दूर किसी अनजान फेसबुकिया मित्र के घर ठहर भी सकते थे। विश्वास नाम की चिड़िया चहकती जरूर थी। आज की बात अलग है। पिछले कुछ सालों में किलोमीटरों की दूरियां तो हमने मिटा दी है, लेकिन विश्वास पर सारा मामला फंस जाता है। मेरी भी आगंतुक यात्रा के लिए, मैं भी अति-उत्साही हो चला हूँ। काश यह यात्रा इतनी ज्यादा पूर्वनियोजित न होती, और बस मैं भी कार लेकर, मोटरसायकल लेकर, या बस में ही, रास्ते नापने निकल पाता। लेकिन नहीं, हमे एक ऐसा भविष्य चाहिए होता है, जहाँ आराम ही आराम हो। और उस भविष्य के आराम के लिए, हम आज के आराम को कुर्बान करते है। भविष्य के परदे में ढंकी इच्छाओं को पूरी करने के लिए हम, आज हो रही इच्छाओं को गौण मानते है। 


चनों से मेरी जंग

    कल दोपहर को हुए चनो से युद्ध के पश्चात आज शान्ति स्थापित नहीं हो सकी। कल जल-कोठरी में पड़े चने आज सुबह मोटे हो चुके थे। लेकिन आज भी उद्दंडता करने लगे। लेकिन आज, हमारे शस्त्रागार से प्रेशर कूकर गायब मिला। और हम फिर भी चनों पर टूट पड़े। लेकिन कल भी इन्ही चनो से युद्ध था, और आज भी.. इस कारण से उत्साह थोड़ा ठंडा रहा। और शायद मैं हार गया, चने जीत गए। क्योंकि वे शेष बच पाए थे। प्रतिदिन इन्ही से यदि युद्ध होने लगे तो फिर मजा क्या? तो आज उन्हें मुक्त कर दिया। जलकोठरियाँ खाली कर दी। 


आदतें और अकेलेपन की धुन

    शाम होने को आयी प्रियंवदा। सात बज चुके है। यहाँ तो मीलों से मशीनों की चिंघाडे ही सुनाई पड़ती है। न ही किसी पंछी की प्यारी बोली, न ही कोई सुमधुर आरती-नाद। अब कान पकते नहीं इन लोहे के घर्षणों से। अब बेचैनी होती नहीं दिनभर उड़ती रज से। अब अनुभव नहीं होता दिन, कब निकल गया हाथ से। क्योंकि आदत डल चुकी है। कुछ चीजे या कुछ काम अनजाने में ही आदतानुसार हो जाते है। जैसे इस कीबोर्ड पर कौनसा अक्षर कहाँ है, यह देखना नहीं पड़ता। क्योंकि प्रतिदिन का हो चूका है। जैसे लगातार एक ही ४ डिजिट पिन हो फोन की। तो आँखे बंद हो तब भी वहीं जाकर ऊँगली टच कर जाती है। कुछ बाते दिमाग रट लेता है, जैसे तुम प्रियंवदा। तुम्हारा रटन सदा मैं करता हूँ। 


    आज इन शब्दों की बाड़ यही बाँध लेता हूँ। क्योंकि जबरजस्ती लिख रहा हूँ।

    और हाँ, नीरज मुसाफिर के यात्रा वृतांत पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

    शुभरात्रि।
    (०२/०७/२०२५)

|| अस्तु ||

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– दिलावरसिंह


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