YQ की गलियों में प्रेम और कविता की खोज
आजकल फिर से yq के गलियारों में घुमने लगा हूँ प्रियंवदा ! कारण नहीं जानता। लेकिन कईं बार शायद ऐसा भी होता है, कि हम अपने रोज की दिनचर्या से बोर हो जाते है। और कुछ अलग करना चाहते है। वही हररोज इंस्टा, यूट्यूब, और यही सब एप्प चला-चलाकर मैं भी बोर हो जाता हूँ। तो yq पर चक्कर काटना फायदेमंद लगता है मुझे। कुछ अलग पढ़ने को भी भी मिल जाता है। कुछ अलग विचार भी..! हरकोई अलग सोचता है, सबके अपने मंतव्य होते है। लेकिन मैंने yq पर जितने लोग देखे, उनमे ज्यादातर लोग जो कविताएं लिखते है, वे ज्यादातर बिछड़न, विरह को लिखते थे/है।
प्रेम की व्याख्या : आकर्षण, आवश्यकता और उत्तरदायित्व
समय के साथ साथ लेखनी भी बदलती रहती है। मैं जब अपनी पिछली लेखनी से उतरें शब्दों को पढता, समझता हूँ, तो पाता हूँ, मुझमे काफी बदलाव हुआ है। लेकिन एक बदलाव मैं नहीं कर पाया अपने भीतर, और वह है, प्रेम की व्याख्या..! प्रेम की व्याख्या आज भी मेरे लिए आकर्षण, आवश्यकता और उत्तरदायित्व ही है। आज भी मुझे यही लगता है, बिन मतलब के मनुहार कोई भी नहीं करता। भले ही कोई बिनमतलब के करता भी हो, तो उसे मिला हुआ लाभ कहीं न कहीं जुड़ा हुआ होता ही है। कोई लड़का लड़की है, यदि वे नजदीक आते है। तो उसका कारण यह आकर्षण ही है। विजातीय आकर्षण के कारण ही स्त्री-पुरुष की नजदीकियां बढ़ती है। उसके बाद आवश्यकता बनती है। शरीर की अपनी आवश्यकता होती है। क्षुधा पनपती है, तृप्त भी होती है।
आशिक़ और कवि का खेल : तमगे और उपाधियाँ
और फिर उत्तरदायित्व..! एक दूसरे का भार उठाते हुए जीवनभर एक दूसरे पर निर्भर हो जाना। यही तीन परिबल काम कर गए, तो प्रेम संवार देता है। वरना बर्बाद और घायलों की तो रेल चलवा लो। आशिक की दो गति है, कवि या कंकाल.. देखना प्रियंवदा, ज्यादातर आशिक़ कवि बनते है। आसान है न। कंकाल बनने के लिए जान का दान करना पड़ता है। कवि बनने के लिए बस भावनाओ का, विचारों का..! बहुत आसान है। जो सामने दिख जाए उसे अपनी आशिकी से जोड़ दो.. कुछ तो कविता जैसा बन ही जाएगा.. मैं खुद भी तो यही करता हूँ। यह आशिक़ होना भी एक तरह का कॉन्टेस्ट है। परिणाम में एक तमगा मिलता है। दिलजला आशिक़ है, एकतरफा आशिक़ है, पगला आशिक़ है, और सच्चा आशिक़ है। देखो, सिंपल फंडा है, तुम जितना अपनी प्रेमिका या प्रेमी का नाम जाप कर सकते हो, तुम्हारी आशिक़ी का तमगा उतना बड़ा होता जाएगा।
कविता करने का अनुभव : नकल से सृजन तक
चलो अब आते है, कविता करने पर। मैं तुम्हे अपना अनुभव बताता हूँ। मुझे लगता है, (यकीन नहीं है) कि मैं जो देखता हूँ, मैं उसकी नकल कर सकता हूँ। मुझे बचपन में वानर बड़े प्रिय थे। हनुमान भी। तो वानरों की नकल करने की कला भी मुझे काफी पसंद आई। ( अरे ! मैं उस डार्विन की थियरी को अपने अहम के कारण नहीं स्वीकार पाता, मैं क्यों मानूं कि हमारे पूर्वज बन्दर थे। मैं जानता हूँ कि हमारे पूर्वज शूरवीर थे।) खेर, तो बात हो रही थी कविता करने की। मैंने जो जो देखा, सीखा, वह अच्छे से नकल कर पाया। मैंने दूसरों को देखकर गाडी चलानी सीखी, मैंने दूसरों को देखकर ही चित्रकारी भी सीखी थी। (वह तो अब भूल गया वैसे).. तो उसी तरह मैंने कुछ लोगो को कविता करते देखा..!
दिलजली कविताओं का संसार और वाहवाही
वे काफी जानकार लोग थे। जैसा संग वैसा रंग, यही नियमानुसार उनकी ही तरह मैं भी शिष्ट छंदों में लिखने लगा प्रियंवदा। कमाल की बात क्या है, पता है? मैंने हृदय भग्न होने का भी अनुभव नहीं किया है, और न ही हृदय के संलग्न होने का। तब भी मैंने जो दिलजले आशिक वालीं कविताएं लिखी थी, उनपर बहुत सारे लोग सच्ची-झूठी वाहवाही जरूर से कर देते थे। देखो, यह कवि लोग होते है, न वे दाद बहुत देते है। खाली-फोकट में ही थोड़ी सी देर में चने के झाड़ पर चढ़ा देते है। और उससे भी बढ़िया बात देखो, वाह-वाही किसे पसंद नहीं आती? आत्मश्लाघा के तो सारे ही आशिक़ है। तो कविताएं फुट पड़ी मेरी भी। वो काल्पनिक झरना बाह निकला। कुछ नहीं है, एक काल्पनिक स्त्री-पात्र चुनना है। और बस लिखने लगो..
तुम मोमबत्ती सी लगती हो, जो उजियारा देती हो प्रिये,
मैं बना पतंगा कूद पड़ा, तुम सचमे जीव हर लेती हो..!
देखो, था कुछ इसमें..? अरे बहुत सारे लोग ऐसा लिखते है प्रियंवदा। तुम्हे क्या पता, तुमने मुझे पढ़ा जो नहीं है।
वो कवि बने हुए आशिक़ो में एक और साम्यता पायी जाती है। वे प्रत्येक बात में रूपक और दुर्लभ दृष्टिकोण ढूंढने लगते है। मुझे तो वे आशिक़ कवि भी बड़े अजीब लगते है, जो शारीरिक संबंध को भी अपनी कविताओं में उतार लाते है। चुंबन और आलिंगन पर आकर ही इनका प्रेम सफल होता है शायद..! एक बार एक मेरे जैसे ही महान कवि ने लिखा था, "आज भी महकती है इस मिट्टी में तुम्हारे पैरो की मेहंदी".. हालाँकि उस मिट्टी पर से कितने ही कुत्ते गुजर गए हो, भेड़-बकरियां अपना अपाच्य-घास का शेष त्याग कर गयी हो तब भी.. मेहँदी की महक..!
एकतरफा आशिक़ी और कविताओं का जादू
प्रियंवदा ! मैं भी बड़ा कवि बनने की राह में निकला था, तब मेरा राह का रोड़ा भी यही प्रेम ही था। मैं ठहरा अनुभव को आत्मसात करने वाला, और प्रेम है काल्पनिक चीज.. प्रत्यक्ष नहीं है। कहते है उसे हवा की भाँती अनुभव करो..! एक दिन मैं बैठ गया सुबह सुबह, हवा की तरह उसे अनुभव करने... प्रेम का तो पता नहीं लेकिन खुजली जरूर से होने लगी.. तो मैंने यह मान लिया, कि प्रेम में लोग पीड़ा की बात बहुत करते है। यह खुजली भी एक पीड़ा है, शायद मुझे प्रेम हो गया। मैं ठहरा अबुध, अनुभव को आत्मसात करने वाला.. तो मुझे विचार आया, कि यह कुछ और है, क्योंकि प्रेम में तो सामने एक स्त्री पात्र होना अनिवार्य है। फिर खुदने ही खुद को दिलासा दिया, शायद यह एकतरफा प्रेम है।
फिर क्या, मैने एक तरफी आशिक़ी की कविताएं करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
तुम लाख दूरी को अपनाओ, मैं फिर भी तुमको चाहूंगा,
धप्पा करने न जाओ तबतक, छुपम-छुपाई खेलूंगा..!!
देखो प्रियंवदा ! सिम्पल फंडा है, आज मेरा टाइम-पास भी नहीं हो रहा था, और लिखने के लिए कुछ टॉपिक भी नहीं मिल पा रहा था। और तुम्हे तो पता है, मुझे जब भी लिखने को कुछ न सूझे, तब मैं इस प्रेम-खटारे में सवार हो जाता हूँ। एक बात तो मैं भी मानता हूँ प्रियंवदा ! यह प्रेम कुछ तो चीज है, मुझे कभी भी इस विषय पर लिखने में पुनरावर्तन हो जाने का भय नहीं होता। हाँ! लेखनी का बंधारण एक जैसा रहता है, लेकिन पंक्तियाँ, विचार, सब नए होते है। सिवा उस व्याख्या के।
शुभरात्रि।
३०/०८/२०२५
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