आसमान का पीला रंग
प्रियंवदा ! अभी कुछ देर पहले ही आसमान से ऊपर, कोई अप्सरा नहाकर निकली होगी, उसके कपाल से रिसता हुआ हल्दी-चंदन का लेप, जल के साथ घुलमिलकर बहता हुआ, एक बूंद बना, उसकी तीक्ष्ण और गर्वमस्त नासिका के सिरे पर कुछ देर ठहरा। और फिर वहां से गिरा, उसे आसमान ने बांध लिया..! पूरा आसमान पीला पड़ गया। कुछ देर तक आसमान ने पीलेपन को धारण कर रखा था। लेकिन पूर्व की ओर से एक काला घनदल इसी दिशा में आगे बढ़ रहा था। दिनभर से कैद में पड़ा वायु, अचानक ही मुक्त हुआ। और उड़ाने लगा वे तमाम प्लास्टिक की पन्नियां, जिन्हें आदमजात ने नमकीन नामक खाद्य को खाकर, खाली कर फेंक दिया था यूंही, निर्मोही होकर। वे पन्नियां उड़ी, जैसे उन्हें उस घनदल का प्रतिरोध करना था। लेकिन उन्हें उनकी जड़ता ने ही परास्त कर दिया। वे लौट आयी, बस उनका स्थान बदल गया।
घनघोर बारिश और प्रकृति का खेल
प्रकृति ने अपनी पहचान बदली। पीलेपन को छोड़, अब श्यामा हो चुकी। घनदल के पास भी अपना वज्र है, विद्युत ऊर्जा से परिपूर्ण, आसमान में वह चिंघाड़ता है, यहां धरती पर उसका प्रतिसाद सुनाई पड़ता है। उस विद्युतरूपेण वज्र के प्रहार से, कुछ देर आसमान में चमक आती है, पर ठहरती नही। उस वज्र के चिंघाड़ने से, वह आसमान की अप्सरा चौंकी। अपने कानों को इस भीषण गर्जना से ढंकने के लिए उसने अपने हाथ ऊंचे किए। लेकिन उसकी तर्जनी ने कानों तक पहुंचते हुए, गले में शोभित, स्वाति नक्षत्र में जन्मे नौलखे मोतियों की माला तोड़ दी। मोती बिखरने लगे। और बिखरते रहे सतत.. पृथ्वी की उपलि सतह, जो शुष्कता को समर्पित होने लगी थी, वह पुनः भेंट पड़ी, आर्द्रता को। कुछ देर तक घोर गर्जना होती रही, उस सतह के प्रत्येक क्षेत्रफल को भिगोकर प्रकृति रुकी। सांस लेने के लिए शायद.. या फिर उस सतह पर होते संचार को पुनःस्थापित होने तक..!
प्रियंवदा ! जब कवि बिल्कुल ही खाली होता है, तो बैठा बैठा बस ऐसी ही कपोल-कल्पना करता रहता है। बात में कुछ भी नही था, आज शाम को पूरा आसमान पीला हो गया था। सबकुछ ही पीले रंग में रंगा दिख रहा था। साल में एकाध बार तो ऐसी घटनाएं होती ही होती है। थोड़ी देर तो मुझे लगा, कि शायद मैं आज सतत कंप्यूटर स्क्रीन को देखता रहा था, इस कारण आंखों में कुछ तकलीफ हो गयी है। लेकिन फिर ऑफिस से बाहर निकला, सारी शाम ही पीली पड़ी थी। और कुछ ही देर में हवाएं आंधी की तरह मानो सब कुछ ही उड़ा ले जाना चाहती हो, ऐसी चल पड़ी। और साथ ही साथ बरसात होने लगी। कीचड़ सूख गया था, वह सारा ही फिर से लौट आया। और कुछ देर झम के बरसने के बाद बरसात रुकी, तो मैं घर लौट आया। यही बात थी। जिसके पास कोई ढंग का काम न हो वही ऐसी फेकमबाजी कर सकता है।
छत का गार्डन और खिलता गुड़हल
सवेरे से मैं अकेला ही ऑफिस पर था। काम इतना कुछ था भही नही। कल से मिल फिर से चल पड़ेंगी। अरे हाँ, कल सवेरे ग्राउंड में नही गया था, तो सारे पौधे मैं छत पर सेट कर दिए। सोलर प्लेट्स के सेटअप के नीचे एक लाइन बद्ध उन्हें रखा है। धीरे धीरे उनकी संख्या बढ़ती जाएगी। छत पर रखते ही, आज एक गुड़हल का फूल भी खिल उठा। इतने दिनों से मैं प्रतीक्षा में था। उसमे कली तो लगती थी, लेकिन खिलती नहीं थी। कली खुले बिना ही, सूख कर गिर जाती। आज तो सवेरे ग्राउंड में गया था। वही कुछ कदम चलने के, फिर 20 उठक-बैठक, और दस सूर्य नमस्कार। लेकिन आजकल पांच ही कर रहा हूँ। सूर्यनमस्कार के लिए थोड़ी साफ जगह चाहिए। पिच पर तो लड़के क्रिकेट खेलने लगते है, तो घास में सूर्य नमस्कार करते हुए चींटियां चढ़ने का भय बना रहता है। लोगो ने पुण्य की लालच में यहां करोड़ो चींटियां पाल ली है।
ऑफिस की तन्हाई और मार्केट का किस्सा
ऑफिस पर आज अकेला ही था। कल की दिलायरी पूरी की, और पब्लिश कर दी। उसके बाद फिर कुछ ऑफिस के काम, कुछ बिलिंग्स वगेरह.. और फिर चल पड़ा मार्किट। पुष्पा छुट्टी पर था। तो मुझे ही मार्किट जाना पड़ा। बैंक से कुछ डॉक्यूमेंट लेने थे। यह काम पुष्पा का है, पुष्पा के अलावा कोई नही कर सकता, लेकिन मैंने झांसा देकर अपना काम निकलवा लिया। सीधे तरीके से यह काम निपटाओ, तो लम्बी प्रोसेस है, मेल करो, ऑथोरिटी लो, फिर कंफर्मेशन आए, उससे अच्छा है, मैं ही पुष्पा बन जाऊं..! अरे हां! दो-दो गजे ठीक नही थे। बार बार पहचान देनी पड़ती थी, ओफ्फिसिया गजा, और विषैला संघी गजा..! तो बस आज से ओफ्फिसिया गजे का नया नामकरण कर दिया 'पुष्पा'..! खेर, बैंक में काफी देर बैठना पड़ा। तो मैंने उस समय का सदुपयोग करना चाहा। एक दुकान पर पहुंच गया। वहां आर्टिफिशियल ग्रास मिलती थी।
मेरे दिलबाग के लिए वह मुझे जरूरी लगती है। लेकिन जब मैंने भाव जाना तो पता चला, 10x6 का टुकड़ा साढ़े तीन हजार के आसपास बैठता था। सुबह सुबह का समय नहीं था। पौने बारह बज रहे थे। फिर भी वह दुकानदार चिपक गया। बोला, सुबह सुबह आपको ठीक ठीक लगा दूंगा, ले लो। और वह तो कटर लेकर ग्रास का कट पीस निकालने को तैयार हो गया। बड़ी मुश्किल से उस दुकान से मैं भाग पाया। वो तो जैसे किसी ग्राहक के ही इन्तेजार में था। मेरे कुछ बोले बगैर ही वह अपने भाव गिराने लगा। कसम से जेब मे कैश नही था, वरना ऐसी डील छोड़ने लायक न थी। खेर, एक बजे गया। मैने बैंक से डाक्यूमेंट्स उठाये और घर आ गया। खानापीना कर के ऑफिस पहुंच गया। बाकी शाम तक एक ड्राफ्ट पोस्ट को अपडेट करता रहा। वो भी काफी लंबी पोस्ट हो गयी है। शाम होते होते यह वातावरण अचानक से बदल गया। और आंधी के साथ बारिश बरस पड़ी।
नया चश्मा खोजने की जद्दोजहद
कुछ देर के लिए बारिश के रुकते ही, मैं घर के लिए निकल पड़ा। रास्ते मे फिर से बारिश बढ़ने लगी। आज बड़ी भयावह यात्रा रही, ऑफिस से घर आने की। आज घर तक मानो बगैर आंखों के ही पहुंचा हूँ। कईं दिनों से मैं चश्मा की कईं सारी दुकानें घूम चुका हूँ। नए चश्मा चाहिए मुझे। अब इस वाली फ्रेम के साथ भी एक गंभीर समस्या हो गयी है। यह फ्रेम फोल्ड नही होती। अकड़ गयी है। कुँवरुभा के साथ खेलते हुए कईं बार चश्मा ने चोट खाई है, इस कारण से इस चश्मा का बंधारण भी बदल चुका है। बाईं और से दबे दबे रहते है। और इस कारण से बाई ओर आंख से लेकर कान तक दबाव बनाते है। और चश्मा उतारते ही, दबे रहने के कारण विभाजन रेखा छोड़ जाते है। दाईं ओर से ठीक है। वहां गालों से ऊपर नही दबता है। तो लगभग कईं दुकान घूम लेने के बाद भी मुझे एविएटर डिज़ाइन नहीं मिला। सोचता हूँ एक बार यह ऑनलाइन वाला लेंसकार्ट ट्राई करूँ।
एविएटर मुझे पसंद आ गया है। और मैं उसमे डलवाता हूँ, डे-नाईट वाले ग्लासेज। धूप में निकलते ही चश्मा ब्लेक हो जाते है। ऑफिस में या छांव में पुनः कांच से हो जाते है। नही स्टाइल, यही डिज़ाइन मुझे पसंद है। इतनी दुकान घूमने के बाद भी वह फ्रेम अब कहीं नही मिल रही है। तो मैं तो आजकल रोड साइड खड़े रहते, वे गॉगल्स वाले खोज निकालने पड़ेंगे। एक बार बड़ी साइज की फ्रेम मिल जाए, तो अपना काम बन जाए। वैसे तो दुकानदारों के पास, एविएटर, अनब्रेकेबले, प्लास्टिक जैसी कईं सारी डिज़ाइन्स होती है। ग्लासेज में भी अब तो कईं सारे प्रकार आ चुके है। लेकिम बढ़ते शरीर के साथ साथ चहेरा भी तो बढ़ता जाता है। तो अब सारे ही चश्मा मुझे छोटे लगते है।
चलो अब नींद आ रही है। ग्यारह बज गए।
शुभरात्रि
०४/०९/२०२५
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