अचानक शुरू हुई बारिश और शहर की मुश्किलें
कहीं जाना होता है, तभी यह बारिश शुरू हो जाती है। घर पर आना था, और दिनभर हुई गर्मी को अचानक से ठंड में परिवर्तित कर आसमान बरस पड़ा। कुछ भी तय नही है इस बारिश का। अपनी मर्जी के मुताबिक चलती है। या फिर यूँ कहूं कि वह भी अपने मौसम का इंतज़ार करती है। एक तो पता नही, इस बारिश को मेरे शहर से क्या समस्या है, धीरे धीरे बरसना होता ही नही उससे। बुलेट ट्रेन की तरह बड़ी जोरो से बरस कर जल्दी से चली भी जाती है। कुछ ही देर में हर जगह पानी भर देती है। फिर भी इस बार बारिश कम है। ज्यादातर बारिश को उत्तर वालों ने अपने यहां रख लिया। हिमाचल में पहाड़ तक गिरा दिए इसने। पंजाब से लेकर दिल्ली तक सब पानी पानी है। और मेरे यहाँ.. आती है, पर ठहरती नही।
ऑफिस, अस्पताल और भागदौड़ भरा दिन
सवेरे वही ऑफिस जाओ, शाम को घर आओ। इसी बीच जो भी काम करो, वही नौकरी। सवेरे तो कुँवरुभा को छुट्टी थी। लेकिन माताजी की तबियत ठीक न थी। सवेरे सवेरे शहर के नामचीन अस्पताल जाना पड़ा। उन्हें छोड़कर मैं ऑफिस आया। कुछ जरूरी मेल्स करने थे। वे निपटाकर वापिस दवाखाने। तब तक उनका चेकअप हो चुका था। तो उन्हें घर छोड़कर वापिस ऑफिस पहुंचा तब बारह बज गए। मशीनें फिर से गरजने लगी है। और काम पुनः एक बार मंदी से निकलकर तेजी को पकड़ने लगा है। इतने दिनों से मिल बन्द थी, तो बारिश भी नही थी। अब मशीने गरजने लगी है तो उन्हें रोकने बारिश भी आ धमकी। कुदरत भी मजे ले रही है प्रियंवदा।
छोले भटूरे, मार्केट और खिलौनों का बचपन
दोपहर को क्षुधा निवारण हेतु शेरे पंजाब के मशहूर छोले भटूरे का स्वाद जिह्वा को समर्पण करने जाना पड़ा। कुछ देर बाजार में यूंही टहलते रहे। आज ईद थी, तो मुसलमान समाज के लोग पानी या सरबत का वितरण कर रहे थे। बड़े बड़े स्पीकरों से कुछ तो संगीत बज रहा था, लेकिन समझ कुछ भी नही आ रहा था। त्यौहार तो त्यौहार होते है। हमे एक काम भी था, वो तो नही हुआ, लेकिन मार्किट में टहलते हुए वो दीवाली वाली बंदूक बेच रहे थे कुछ लोग। उनकी मार्केटिंग टेक्निक इतनी अच्छी थी, कि मैंने भी एक बंदूक खरीद ली। वे लोग चार-पांच जन थे। उनमें से दो बस बंदूक फोड़ ही रहे थे। प्लास्टिक की airgun थी, माचिस की तिल्ली उसमे लगानी होती, और ट्रिगर खींचते ही पटाखा फूटता। माचिस की तिल्ली में लगा हुआ गंधक ही यह धमाका करता है। दो तीन लड़के बस तीलियाँ डाल-डालकर फोड़े ही जा रहे थे। इस पटाखे की आवाज से काफी लोग इकट्ठा हो रहे थे।
मैंने भाव पूछा, तो बोला सौ की एक। मैंने उससे मजाक में ही पूछ लिया, देढ़सौ की दो देगा तो ले लूंगा..! अगला बिना आनाकानी किये ही बोला, "ले लो.." पुरुष कितना ही मजबूर हो, ऐसे मामले में पीछे नही हट सकता। मुझे बड़ा ताज्जुब और परेशानी भी हुई कि वो एक बार मे ही क्यों मान गया। और साथ ही साथ अपने आप पर क्षोभ भी.. क्योंकि ऐसी स्थितियों में मन मे यह विचार आना भी सामान्य है, कि मैंने महंगा खरीद लिया। मुझे भी अब यही लग रहा था कि गलत बोल दिया, सौ में दो मांगनी चाहिए थी। लेकिन हम पुरुषों में एक घमंड होता है, और उस घमंड के कारण ऐसी स्थितियों में हम पीछेहट नही कर सकते। मैंने दो खरीद ली, एक पुष्पा की गुड़िया के लिए, एक मेरे कुँवरुभा के लिए। उससे टेस्टिंग करवाई, बराबर चल रही थी।
रिमोट कार और टूटे खिलौनों की दुनिया
ऑफिस पहुंचते ही हमारा भी बचपना जाग उठा। ऑफिस के खालीपन को, हमने किचन के माचिस को खाली होने तक, पटाखों की आवाज से भर दिया। ऐसे खिलौने मुझे इतना बड़ा हो जाने के बाद भी आकर्षित करते है। खासकर वो रिमोट कंट्रोल से चलती कार। मुझे आज भी बड़ी पसंद है। अब तो रिमोट कंट्रोल वाले हेलीकॉप्टर भी आ चुके है। हमारे खिलौने आज से बहुत अलग हुआ करते थे। काफी मजबूत हुआ करते थे। अब तो जैसे use and throw खिलौने आते है। रिमोट वाली कार अगर टूट जाती, तो मेरी तो प्राथमिकता रहती थी, उस टूटी हुई कार में से मोटर निकाल लेने की। फिर उस मोटर के पॉइंट्स पर दो वायर लगाकर, घड़ी वाले बैटरी सेल से वायर लगाते तो मोटर चल पड़ती। उस मोटर की एक्सेल पर एक कागज का टुकड़ा लगाकर पंखा भी बना लेते। वही मध्यमवर्गीय परिवार के इकलौते लड़के की घर घर की कहानी.. लगभग मेरे हम उम्र लड़के यही करते थे।
Walkman, Video Games और अधूरी जिद्द
फिर थोड़े बड़े हुए, मैदानी खेल कम हुए, तो सांप-सीढी, लूडो, और चैस..! चैस के लिए तो भरी दुपहर को मार्किट गया था। लेकिन समस्या बड़ी यह थी, कि अकेले कैसे खेली जाए यह? माताजी को कईं बार समझाने पर भी उनका अश्व ढाई के बदले कभी डेढ़, तो कभी सारा मैदान लांघकर मेरे राजा को मार गिराता। हाथी, ऊंट दोनो बराबर चलते थे। बस घोड़ा थोड़ा मनमौजी था। मुझे याद है, मुझे कभी भी खिलौने के लिए जिद्द न करनी पड़ी थी। मैं एक बार कहता, और वह मुझे मिल जाता। उसका कारण यह भी था, कि मेरी मांगे बहुत कम हुआ करती थी। उस समय पर टीवी में अलग से लगाया जाने वाला वीडियो गेम आता था। और उसमे खेलने के लिए अलग अलग गेम्स की चिप आती, जिसे हम कैसेट कहा करते थे। मारियो और ओलिंपिक यह दो गेम बहुत प्रसिद्ध थी उसमें।
मैंने एक बार जिद्द तो की थी। उस समय वॉकमेन की बड़ी बोलबाला थी। टेपरिकॉर्डर वाले कैसेट्स उसमे डलते थे। और कानों में वायर वाले इयरफोन लगाकर सुन सकते थे। हम घूमने गए थे, और मैंने दोपहरी भोजन का त्याग किया। परिणामस्वरूप शाम होते होते मुझे वॉकमेन में गरबा सुनने को मिल गया। वॉकमेन के साथ समस्या यह थी, कि उसकी कैसेट्स साथ मे रखनी हो तो बड़ी समस्या थी। iphone mini जितनी साइज की कैसेट्स आती थी। आज भी वह कबाड़ हालात में मेरे पास संभलकर रखा हुआ पड़ा था, लेकिन कुँवरुभा ने एक दिन पटक पटक कर तोड़ दिया। उन्हें क्या पता, उनके हुकुम ने एक समय का भोजन नही लिया था..!
अरे प्रियंवदा, मैं भी कहाँ यह सब बातें लेकर बैठ गया.. विदा दो अब, बारिश भी अभी तक बरस रही है। लेकिन अब धीरी हो चुकी है।
शुभरात्रि
०५/०९/२०२५
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