अतिशयोक्ति – बातों बातों में अनहद विस्तार
अतिशयोक्ति..! प्रियंवदा ! अतिशयोक्ति..! कुछ लोग कर जाते है, बातो बातों में अनहद अतिशयोक्ति.. वैसे तो अतिशयोक्ति अलंकार है, लेकिन इसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए। क्योंकि यह अतिशयोक्ति बाद में बहुत समस्या करती है। जैसे पीने बैठे हो, और अतिशयोक्ति हो जाए, तो सुधबुध चली जाती है। वैसे ही कभी कभार ज्यादा खाना खा ली जाए, तब भी यह भोजन की अतिशयोक्ति पीड़ादायक बन बैठती है। हाँ ! वैसे आज कुछ ज्यादा ही खा लिया है, इसी लिए अतिशयोक्ति को विषय के तौर पर लिख रहा हूँ।
कवियों की दुनिया और अतिशयोक्ति का जादू
कईं बार हम आमजीवन में बहुत अतिशयोक्ति कर लेते है। कवि लोग को तो इस मामले में छेड़ने जैसा ही नहीं है। एक अनंत नाम के बहुत बड़े होते होते रह गए कवि है, उनकी ही दो गुजराती पंक्तियाँ है,
"हेमाळो गांडीव करी जो, शेष पणछ ताणीने सांध,
ताक ताक रण हांक करी जो, कृतनिश्चयता बांधी कांध"
अर्थात, हेमाळो माने हिमालय, और शेष माने शेषनाग, यहाँ कवि कहते है, कि हे वीर ! तू हिमालय को गांडीव बना, उसमे शेषनाग की डोर बाँध..! आगे कृतनिश्चयता को कंधे पर बाँध कर लड़ लेने की बात है। लेकिन, कहने की बात यह थी, कि क्या हिमालय को कोई उठा सकता है? क्या शेषनाग को कोई छू सकता है, धनुष्य की डोर बनाने की बात तो दूर है। लेकिन कवि ठहरे.. कुछ भी सोच सकते है। (वैसे यह आल्हा छंद की पंक्तियाँ है, और आल्हा छंद का प्राण ही अतिशयोक्ति अलंकार है।) कवि लोग अलग लिख लेने के चक्कर में चंद्र-सूरज को तो कुछ समझते ही नहीं..! चंद्र तो जैसे इनके चाचा का लड़का है, और उन्हें काम पर काम ही सौंपते रहते है। और सूर्य कवि लोग के ससुराल पक्ष का कोई तो है, जो उसकी तारीफें करते रहते है, चाहे वह जलाता हो तब भी..!
इच्छाओं की अतिशयोक्ति और जीवन की दौड़
खेर, एक अतिशयोक्ति हम लोग करते है, और वह है इच्छाओ की आपूर्ति की..! क्योंकि इच्छा भी अनंत है। एक के बाद एक, उठती रहती है। उनकी आपूर्ति में समस्त जीवन बीत जाता है। पता ही नहीं चलता कब बीस के हो गए, कब तीस के, कब चालीस.. और कब शरीर जर्जर हो चूका..!
कुँवरुभा का जन्मदिन और इच्छाओं की मिठास
आज कुँवरुभा का जन्मदिन है। तो सवेरे सबसे पहले चल पड़े, चारे वाले के पास..! उसके पास जितना चारा था, उसमे से आधा गायों को डाल दिया। कुँवरुभा को आखले (सांढ़) काफी पसंद है। शिव से जुड़ा नाम है, शायद नाम से गुण आते है कुछ। खेर, उसके बाद चल पड़े हम दोनों जगन्नाथ। भगवन के दर्शन कर आशीर्वाद लिए। कुँवरुभा के हाथो जगन्नाथ के पंडितजी को कुछ दक्षिणा दी। उसके बाद उनके प्लेस्कूल में बच्चो के लिए चॉकलेट्स..! उनकी इच्छा थी की वो बड़ी वाली चॉकलेट देनी है सबको..! ताकि खुद को भी वही खाने मिले। तो एक पूरा पैकेट वो ले लिया। उन्हें स्कूल छोड़ मैं आ चूका ऑफिस।
हवन, परंपरा और मेरी जिद
ऑफिस पहुँचते ही कुछ सामाजिक योगदान में जुड़ा ही था मैं, कि गजे का फोन आ गया, डोनेशन के लिए। उसका फोन उठाकर, वो कुछ बोले उससे पहले ही मैंने उससे कह दिया कि पांच मिनिट में भेजता हूँ, ग्रुप फॉरवर्ड कर देना। और वही सामाजिक योगदान का मेसेज उसे मिल गया। इस बार हर बार की तरह गायत्री का यज्ञ नहीं करवा पाया। उसका एक कारण भी है। पैसो की फ़िक्र नहीं है इस मामले में, लेकिन यहाँ भी इच्छा असर कर गयी। पिछले चार वर्षो से यही नियम था, कुँवरुभा के प्रत्येक जन्मदिन पर, मैं पेहले से ही गायत्री मंदिर में बुकिंग करवा आता। क्योंकि हुकुम का कड़ा आदेश रहता था।
लेकिन इस बार हुकुम को भी कहीं बाहर जाना पड़ा। और पिछली बार का गायत्री हवन का मेरा अनुभव भी ठीक नहीं रहा था। इन दो कारणों से मैंने इस बार नहीं करवाया। पिछली बार क्या हुआ, कि मैंने हवन के लिए मंदिर पर कह दिया था। हर बार तो हवन के लिए ब्राह्मण आते थे। पिछली बार ब्राह्मण के बजाए तीन-चार स्त्रियां आयी। और उन्होंने हवन करवाया। इस मामले में, मैं बहुत ज्यादा रूढ़िवादी हूँ। जो काम जिनका है, उनके द्वारा ही होना चाहिए। मेरा क्रोध तब सातवे आसमान पर था, जब उनमे से एक स्त्री ने कहा, "अब हमें भी हवन करने का अधिकार है।" यह तो मेरे ही घर प्रसंग था, और घर आए हुए का अपमान, मैं करना नहीं चाहता था। वरना जब उन्होंने कहा, "हमें भी.." तभी मेरा दिमाग हिल चूका था।
मेरी तीव्र इच्छा थी, कि मैं उस मंदिर प्रशाशन वाले को खरी-खोटी सुनाऊँ..! लेकिन हुकुम की अनिच्छा थी। सौ बात की एक बात, सदियों से जो काम जिसने किया है। वह उस क्षेत्र का एक्सपर्ट है। नवोदित कभी भी उसके समकक्ष नहीं आ सकते। और इस मामले में मेरी इच्छा सर्वोपरि होनी चाहिए। मैंने जब चाहा है, कि किसी ब्राह्मण के द्वारा ही हवन हो, तो उसी के हाथो होना चाहिए। कोई मुझे कितना ही जड़ मान ले, लेकिन मैं मानता हूँ, कि अनपढ़ ब्राह्मण को भले ही वेद की एक ऋचा न आती हो। उसने काशी देखा तक न हो.. लेकिन वह मेरे घर आकर, बस गायत्रीमंत्र सुना दे, तो मेरे लिए उतना ही प्रकांड पंडित के बरोबर है। अब भले ही कोई मुझे जन्मधिकार में मानने वाला कहे तो कहे।
यह अतिशयोक्ति ही है, कि लोग अपने पूर्वजो का दिया काम छोड़ कर दूसरा-तीसरा काम करने लगे है। और खासकर वही SC-ST.. नहीं मैं पुर्वनुग्रह से नहीं कह रहा। मैं भी सबकी तरह उस वर्ण का भी विकास चाहता हूँ, उन्हें भी अपने समकक्ष सामाजिक स्थान देना चाहता हूँ। लेकिन, इस यज्ञादि क्षेत्र को छोड़कर। भले ही चारो वर्ण एकाकार हो जाए, तब भी..! कुछ तो बात रही होगी.. वैसे तो हम मानते है, जहाँ चाह वहां राह.. तो क्या कभी भी, उस वर्ण से किसीने ऐसी महत्वाकांक्षा नहीं रखी होगी? यूँ तो वशिष्ठ और विश्वामित्र की टक्कर को हम बहुधा बखानते है। क्योंकि एक ब्राह्मण थे, एक क्षत्रिय.. क्षत्रिय के अलावा वर्णों में से किसी ने ऐसा साहस क्यों न किया होगा? अब यह मत कहना की ALLOW नहीं था। विश्वामित्र कर सकते थे, तो कोई और भी कर सकता होगा।
जिह्वा की अतिशयोक्ति और भोजन की पीड़ा
खेर, अतिश्योक्ति पर वापिस आते है। आज दोपहर को कईं सारे लोगो का शुक्रिया अदा करते करते मार्किट चल पड़ा। कुँवरुभा को एक फोटो-फ्रेम देनी थी मुझे। तो ओफ्फिसिया गजा वहीँ घूम रहा था। बोला, पार्टी तो बनती है.. वैसे मुझे भी भूख तो लगी ही थी.. लगे हाथों चल पड़े डोमिनोज़ में। जिह्वा को जब रसास्वाद में मजा आने लगता है, तो वह पेट के बारे में नहीं सोचती कभी भी.. जिह्वा सबसे बड़ी स्वार्थी है। चबाते दांत है, लेकिन सारा रस का आनंद जिह्वा उठाती है। कुबोल जिह्वा करती है, लेकिन मुक्के से गिरते दांत है, या सूजती पीठ है। बस, तो जिह्वा के आनंद को पोषने में मैंने कुछ ज्यादा ही खा लिया। फिर तो क्या पेट ने पीड़ा दी है। एक तो चीज़ से लबालब मैदे का पिज़्ज़ा.. वैसे ही पचने में कुछ अत्यधिक जोर पड़ने वाला काम..! ऊपर से अतिशयोक्ति..!
विज्ञापन और मीडिया की अतिशयोक्ति
विज्ञापन वाले भी खूब अतिशयोक्ति करते है। "फलाना साबुन या फलानी क्रीम लगाओ, और चाँद का मुखड़ा पाओ.." इस पर तो मैं पहले भी कह चूका हूँ, अगर भैंस उस साबुन या क्रीम से गोरी हो जाए तो मैं मानूं। एक अतिशयोक्ति करता है, विषैला गजा.. बात बात में संघ के अलावा अब उसे कुछ सूझता ही नहीं है। कभी वर्च्युअल शाखा है, तो कभी साप्ताहिक, तो कभी रविवारीय.. कभी उस गाँव की शाखा की बात करेगा, तो कभी उस राज्य की.. कभी बाल शाखा, तो कभी नारीशक्ति शाखा..! उसकी बातें अधूरी है, शाखा के उच्चारण के बिना..! और धीरे धीरे मुझे भी आदत होने लगी है, उसकी प्रत्येक बातों में शाखा, संघ शब्द सुनने की।
राजनेताओं और माता-पिता की अतिशयोक्ति
राजनेता भी काफी अतिशयोक्ति कर लेते है वैसे। आलू से सोने वाली मशीन भी तो एक प्रसिद्द उदाहरण है। एक अतिशयोक्ति करते है, माता-पिता.. उन्हें पता होता है, कि उनके सुपुत्र/सुपुत्री कितने पानी में है, फिर भी कहते है, "तेरे जन्म से तो हमारे जीवन में लाखो दिए जल उठे है.." फिर भले ही गली-मोहल्ले की सेंकडो फरियाद आती हो..! तब भी कहा तो यही जाता रहा है। एक अतिशयोक्ति करते है मिडिया वाले.. "आपकी रूह को हिला देने वाली खबर है यह.." अपनी कहने की इच्छा हो जाए, कि भाई तू खबर सुनाने बैठा है, या रूह को हिलाने? एक और है अतिशयोक्ति का आराधक। बड़ा ही प्रसिद्ध है। जिसका मैं परम आलोचक हूँ प्रियंवदा। वह है प्रेमी.. अँधा प्रेमी.. जो कहता पाया जाता है कि, "मुझे तुम्हारी आँखों में सारी कायनात दिखती है.." ठीक से देख, आँखों के किनारे मैल दिखेगा..!
संध्या का आना और प्रकृति की अतिशयोक्ति
संध्या आसमान के किनारे उग आयी है। सूरज आसमान का मैदान छोड़ गया है। अँधेरा उसका पीछा करता हुआ आसमान को घेरने लगा है। लेकिन अब इस अँधेरे को परास्त करने के छापामार युद्ध में इंसान भी कूद पड़ा है। छोटी छोटी सैंकड़ों विद्युत् ऊर्जा से संचालित रोशनियां जगमगाने लगी है। वायु इधर से उधर टहल रहा है। जैसे उसे किसी सन्देश का इंतजार है। वर्षा ऋतु में अक्सर वह यूँही टहलता है। शायद सर्दियाँ उसे कोई खबर देती है। और वह शर्म से ठंडा पड़ जाता है। कलशोर मचाती चिड़िया भी शांत होकर अपनी अपनी शाख पर कब्ज़ा जमा चुकी है। अगली सुबह के इंतजार में.. पुनः एक बार सूर्य की तीव्र किरणों की अतिशयोक्ति आदी हो चुकी वे अपने नित्यकर्म को अपनाएगी.. सारी दुनिया ही यही करती है।
शुभरात्रि।
०१/०९/२०२५
|| अस्तु ||
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