सुबह का हवन और दिन की शुरुआत
प्रियम्वदा ! आज दिन की शुरुआत यज्ञ के पवित्र मंत्रो से हुई है। जागने का जरा मन नहीं था, लेकिन गजा ने फोन करके उठाया। स्क्रीन पर गजे का नाम देखते ही समझ आ गया था, कि हवन के लिए बुला रहा है। लेकिन मैं फोन उठाता उससे पूर्व कट हो गया। और आलसी फिर सो गया। दूसरा फोन आया, तो मैंने उठा लिया, उसने कहा 'पंद्रह मिनिट लगेगी, आजा..' मैं भी फ़टाफ़ट तैयार होकर निकल पड़ा..!
गजे का बुलावा और मंत्रोच्चार का अनुभव
हवन में आज एक संख्या कम थी, इस कारण मुझे सहभागी होने का मौक़ा मिल गया। मैं पहुंचा तब गजा तैयारियों में लगा था। वैसे तो वे लोग सारी विधियां आराम से कर लेते है, लेकिन मुझे कल रात गजे ने चने के झाड़ पर चढ़ाया था। बोला, 'मुझसे यह संस्कृत के शब्दों का उच्चारण नहीं होता, जीभ मोटी चुकी है। तुम्हे अच्छा उच्चारण करना आता है, तो सवेरे आ जाना।' मैं तो हूँ ही गुब्बार, मेरी तो कोई तारीफ कर दे बस, फिर तो मैं बहुत दूर तक उड़ा चला जाता हूँ।
मुझे हवन विधि तथा मंत्रो की बुक पकड़ा दी गयी। और मैंने भी ब्राह्मणों की नकल करते हुए, मंत्रोच्चारण चालु कर दिया। एक और भाईसाहब थे, वे भी मंत्रोच्चार कर रहे थे मेरे साथ। उन्होंने मुझे घुटना मारा। इशारा था, कि अपने उच्चारण धीरी गति में करूँ। क्योंकि वे पीछे छूट जाते थे। उन्होंने भी पूरा ही ब्राह्मणों वाला मंत्रोच्चार का लय पकड़ लिया था। लगभग बीस मिनिट में हमने शांतिमंत्र भी बोल लिया था।
थकान, ऑफिस और निंद्रा का विरह
ऑफिस पहुँचते हुए मुझे साढ़े नौ हो चुके थे। रात को डेढ़ बजे सोना, सवेरे जल्दी जागना, और दिनभर नौकरी भी करना। मेरा तो काम आसान है, ऑफिस में बैठे रहना। लेकिन गजा हकीकत में धन्य है। नौ दिनों के उपवास, ऊपर से वह तो काम भी फिल्ड के करता है। पूरा दिन पैदल भागदौड़, उपरांत रात में गरबा खेलना, और फिर चौक का महेनत वाला काम भी.. और आखिर में रात के डेढ़ बजे तक मैं बिठा रखता हूँ.. बस बकैती करने के लिए।
ऑफिस पहुँचते ही कईं काम थे। पहले तो बीते कल की दिलायरी अपडेट करनी थी। उसके बाद ऑफिस के अनेकों कामों में लग गया। कब दोपहर हुई, तीन बज गए पता भी न चला। एकाध झपकी लग गयी, सारा ही बॉडी-शिड्यूल बिगड़ गया है। ऊपर से यह अलगाव.. दूरी.. विरह.. मेरी प्रिय निंद्रा से.. नहीं सह पाता..! प्रेम करना हो तो निंद्रा से करना चाहिए। क्योंकि वही एक मात्र है, जो ज्यादा दिन दूर नहीं रहती। मन में कोई भी भाव हो.. उसके आगोश में लेते ही, सारे उफान थम जाते है।
सपने होते हैं साकार
प्रत्येक बड़ी उपलब्धि की शुरुआत एक छोटे से स्वप्न से होती है। वह सपना, जो कभी पूरा होना दुलर्भ लगता था, वही किसी दिन प्रसिद्धि दिलवाता है। नई ऊर्जा, चेतना, और दिशा यह सपने ही तो दिखाते है। मैं सिक्के के दोनों पहलुओं से प्रभावित होता रहा हूँ। मैं सपनों में विश्वास नहीं करता हूँ। लेकिन हाँ, नया विचार, प्रयास और विश्वास हो, तो सपना जरूर से साक्षात होता है।
विश्वास भी बड़ी सही बला है। यह सपने की डोर है। इसी के सहारे सपने मुक्त आसमान में अपनी उड़ान भरने के बाद स्थिर रहते है। बाकी फंडा सिंपल है। जितना दृढ विश्वास, उतना स्पष्ट लक्ष्य। लक्ष्य जितना स्पष्ट, राह उतनी आसान। लेकिन हकीकत में कथनी और करनी - दोनों ही द्विमुखी है। किसी एक लक्ष्य तक पहुँचने में कईं सारे रास्ते कटते रहते है। किसी चौराहे पर गलत टर्न ले लिया, तो बस वापिस उस चौराहे तक पहुँचने में कितने ही असफल प्रयास लग जाते है।
प्रेम और सपनों का रास्ता
सपने, महेनत और अनुभवों से सच होते है। और दूसरों के लिए प्रेरणा का काम करते है। लेकिन फिर मेरे जैसे कमजोर मन वाले भी दूसरों के सपनों में से अपना लाभ निकालने के लिए नौकरी करते है। या फिर मुझसे भी गए गुजरे अँधा अनुकरण करते है। मुँह से कम की खाते भी नहीं। प्रेम पाने का भी लोग सपना देखते है। लोग प्रेम को एक लक्ष्य चुनते है। प्रेम योग्य सुपात्र लक्ष्य चयनित होने के पश्चात, अपने आप में सर्वश्रेष्ठ होने का विश्वास भरते है।
उस विश्वास के आधार पर प्रेम के पथ पर दौड़ लगा देते है। रस्ते में कईं सारी भूलभुलैया आती है, या यूँ कहूं कि प्रेम के प्रतिबिंब आते है। इधर उधर से मोहमाया आती है, मन धोखा खा जाता है, कि यही प्रेम है। सच्चा प्रेम.. जैसा वर्णित है साहित्यों में। जैसे वर्णित है कवियों की महफ़िलों में। जैसा वर्णित है प्रत्येक प्रेम की शपथों में..!
पर जिस रस्ते पर चल पड़े है, वहां प्रेम नहीं मिलता। वह तो प्रतिबिंब था, परछाई थी। रास्ता गलत था, भूलभुलैया में वापिस वहां लौटना पड़ता है, जहाँ से शुरू किया था। फिर किसी एक पथ को प्रेम का पथ मानकर, मन निकल पड़ता है। अपने लक्ष्य को साधने को। लेकिन वहां जो प्रेम मिला, वह तो अपनी पीठ दिखाए खड़ा था। किसी और की तरफ मुँह किए हुए। यह शायद वह प्रेम था, जो विश्वासघात के साथ मिला हुआ था।
धीरे धीरे थकान हो जाती है। सपने साकार होने से पहले अपना ही आकार बदलते मालुम होने लगते है। यहाँ से दो विकल्प फिर से दीखते है। एक तो मर मिट जाने तक की दौड़ लगा लेना, एक बस जो मिला है उसे लेकर संतोषी हो जाना। मेरे जैसे संतोष मान लेते है। लेकिन मुझसे गए गुजरे है वे और आगे दौड़ने की योजनाएं बना लेते है। और आखिरकार सपना सच होता है।
उसे वह प्रेम आखिरकार मिलता है। जैसी उसने कल्पना की थी.. जैसी उसने मेहनत की थी, उससे कई अधिक बहेतर। अब उस दौड़ने वाले की फलप्राप्ति पर मुझ जैसे संतोषी जलते है। उनकी बुराई करते है। प्रेम को कोसते है। और लंगूर के हाथ में अंगूर के नारे लगाते है। खेर, थोड़ी सी सच्चाई, थोड़ा सा फ़साना। न तो मैं संतोषी हूँ, न तो द्वेषी। मैं कल्पना के महासागर में हिचकोले लेता हूँ।
कल्पनाओं का महासागर
मैं बस कल्पनाएं करता हूँ। अपनी कपोलकल्पनाओं में राज करता हूँ। कि काश, मेरा भाग्य इससे बेहतर होता। मुझे समझ सकें ऐसा कोई मिलता। मेरी बातों को पंख देने वाला कोई मिलता। मेरे साथ बैठकर कविताएं पढ़ने वाला कोई मिलता। मेरे साथ कोई पुस्तक के पन्ने पलटता। यह भी कल्पना है। एक तुलना है। इसके बदले वह होती तो क्या होता..? यह भी मेरे ही मन की उपज है। काश यह न हुआ होता, वो पहले मिलती, या काश यह उसके जैसी होती..! कल्पनाएं.. हमेशा से अधूरी होती है..
प्रियम्वदा ! कल्पनाएं सदैव से अपूर्ण ही रही है। क्योंकि वह कभी वास्तविकता में उतरी भी है, तो काफी सारे समझौतों के साथ। या तो वह अधूरी रहेगी, या फिर अपग्रेड होगी। कल्पनाओं में कवियों ने अपनी प्रेयसी से बातें की है। कल्पना से प्रेयसी उत्पन्न होती है। अलग अलग प्रेयसियां रख सकते है, वह शक्ति कल्पना ही तो देती है। क्या करें? पुरुष का मन तो सदैव से अनिश्चित रहा है।
फ़िलहाल साढ़े सात बज रहे है। नए चश्मा आ गए है। टूटे हुए थे, उनके लेंस किसी और फ्रेम में भी डलवा लिए। कुलमिलाकर अब फिर से मेरे पास तीन चश्मा हो गए है।
चलो अब विदा दो। मुझे भी अपनी कल्पनाओं में प्रेयसी से मिलने जाना है।
शुभरात्रि
२५/०९/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
“आपके सपनों ने आपको अब तक कहाँ तक पहुँचाया है? कमेंट में ज़रूर बताइए।”🌿
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