"शारदीय नवरात्रि, दीपक और प्रथमाक्षरी दोहा का अनुभव" || दिलायरी : 22/09/2025

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"सुबह की जल्दी और अधूरी नींद"

    शुरुआत तो आज भी बगैर विषय के ही कर रहा हूँ प्रियम्वदा। क्योंकि आज का दिन अत्यंत व्यस्त भी नहीं था, और एकदम खाली भी। मजेदार यह रहा कि आज भागदौड़ काफी की है। कल रात भी लगभग एक बजे आँख लगी थी। समस्या यह थी, आज सवेरे छह बजे जागना अनिवार्य था। आज सवेरा काफी जल्दी हो गया, अधूरी निंद्रा के साथ ही। सवेरे माताजी, कुँवरुभा और वे सब की बस थी पौने आठ की। साढ़े सात घर से निकला और उन सबको बस में बिठा आया। बसें अपने यहाँ पंद्रह मिनिट तो कम से कम लेट ही चलती है। और इसी आशा में कईं बार टाइम पर चली हुई छूट भी जाने का भय रहता है। 


"नवरात्रि और गरबा-रास का उत्सव"

    शारदीय नवरात्री का शुभारम्भ हो चूका है। आज से नौ रात्रि - गरबा-रास खेलकर माताजी के प्रति नृत्यभक्ति में हरकोई तल्लीन हो जाएगा। मैं उन फ़ालतू बातों में नहीं जाना चाहता, जहाँ गरबा के नाम पर अलग अलग स्टेप्स वाला डांस हो रहा है। हिंदी में गली कहते है, गुजराती में शेरी। शेरी में होती छोटी छोटी गरबी-रास ही सच्चे मायने में नवरात्रि है। बीती रात काफी मेहनत की थी। और सवेरे पौने सात बजे ही नवरात्री के नौ दिनों के हवन का भी आयोजन था। मैं नहीं जा पाया। सबको बस में बिठाकर मैं खाली मकान में वापिस लौटा। बाइक की चाबी उठायी, और ऑफिस की ओर चल दिया। 


"प्रथमाक्षरी दोहा का अनुभव"

    बीते कल की दिलायरी लिखी। पब्लिश की। और फिर ऑफिस के अन्य कामों में लग गया। सवेरे से मन में एक विचार बार बार उठ रहा था, कि इस नवरात्री नौ दिनों के नौ छंद या कुछ तो कवितामय लिखूं ही लिखूं। लेकिन सवेरे से काफी महेनत के बावजूद एक दोहा भी नहीं लिखा जा रहा था। कारण बस इतना ही था कि मुझे 'थोड़ा ज्यादा' का लालच हमेशा से रहा है। दोहा तो आसान है, लेकिन मुझे लिखना था प्रथमाक्षरी। अर्थात, दोहे में चार चरण होते है। प्रथम और तृतीय चरण तरह मात्रा का। और द्वितीय एवं चतुर्थ चरण ग्यारह मात्रा में। प्रथमाक्षरी दोहा मतलब, चारो चरण के प्रथम अक्षर से कोई शब्द बने। 


"नवरात्रि की तैयारी में दीपक जलाते हुए और प्रथमाक्षरी दोहा लिखते हुए"

    इस फोटो में लिखा है, वही हुआ प्रथमाक्षरी दोहा। हाँ ! थोड़ा कठिन अब मुझे भी लगता है। आशापुरा कच्छ की देशदेवी कही जाती है। कच्छ के राजवी जाडेजा वंश की इष्टदेवी है। मैं भी कच्छ में बसा हूँ। इसी कारण से प्रथम दोहा आशापुरा माता को ही समर्पित किया। क्षत्रियों में वैसे भी मातृभक्ति की आराधना का महत्त्व ज्यादा है। 


"दीपक और पौधों की देखभाल"

    प्रियम्वदा ! आज तो यह दोहा बनते बन गया। लेकिन प्रतिदिन कुछ न कुछ रचने का ख्याल काफी  रोचक भी है, और कठिन भी। वैसे इसके लिए समय चाहिए। जो फ़िलहाल तो मेरे पास है नहीं। दोपहर को घर जाना पड़ा। माताजी का सख्त आदेश था। नवरात्री के नौ दिनों तक अखंड दीपज्योत जलती रहनी चाहिए। माताजी को बाहर जाना पड़ा, तो मुझे दोपहर को दीप की सम्हाल लेने जाना पड़ा। तो घर जाते हुए रेस्टोरेंट से पार्सल भी ले लिया। 


    भोजनादि से निवृत होकर दीपक देखने गया। बड़ा दीपक है, सतत पांच दिनों तक प्रज्वलित रह सकता है। बस बाती को धीरे धीरे ऊपर खींचते रहना पड़ता है। उस दौरान एक और दीपक प्रकटाते है। ताकि ज्योत अखंड रहे। इस दीपक में ऊपर ढक्कन भी होता है। ताकि ज्यादा हवा न लगे। मेरे भी दिमाग पर ढक्कन लगा हुआ था। मैंने दीपक के उस ढक्कन को ऐसे ही पकड़ लिया। वह ज्योत की सतत अग्नि के संपर्क में था। तो बहुत ज्यादा गर्म था। पकड़ तो लिया लेकिन गर्म लगे तब भी फेंक थोड़े सकते है। अनादर नहीं कर सकते। 


"तितली और फूलों का दृश्य"

    मैंने धीरे से उसे बाजू में रखकर फिर सतत अपनी जली अँगुलियों पर फूंक मारी। शायद पहले पेटपूजा कर ली थी, तो माताजी क्रोधित हुए होंगे। प्रियम्वदा ! कईं बार हम अपनी गलती का कारण श्रद्धा पर भी थोप देते है। दूसरा दिप प्रकटाया, फिर इसकी बाती खींचकर सही कर दिया। पौने तीन बज चुके थे। ऑफिस जाने का मन नहीं था। याद आया, दिलबाग में पानी तो दिया ही नहीं आज। तो पानी की बाल्टी लेकर छत पर गया। सारे पौधों को सिंचित किया। आज पहली बार मैंने अपनी छत पर तितली भी देखि। वैसे मैं घर पर कम ही रहता हूँ, तो क्या पता तितलियाँ रोज ही आती हो। 


    लगभग सारे ही गमलों में पोर्टुलका तो है ही, और ढेरों फूल आते है उनमे। तितलियों का आना भी बनता है। यह बड़े अजीब फूल है, महक नहीं आती इनसे। वैसे मैंने सुंघा भी तो नहीं है। बिलकुल कागज़ी पत्तो जैसे फूल आते है। बाकी सदाबहार तो अपने नाम को सार्थक करता ही है। मधुमालती भी आजकल विस्तरण में लगी हुई है। नई नई कोंपले आती है। फूल देना भूल चुकी है। खेर, फिर खाली मकान को ताला मारकर ऑफिस की ओर चल पड़ा। वही अनेकों कतारबन्द ट्रैफिक को चीरते हुए। 


"ट्रैफिक में जीवन का तमाशा"

    एकबार को दुनिया में बिगड़ैल जानवर भी सीधा चल सकता है। स्त्रियां भी पैरों के बदले ब्रेक से अपनी स्कूटी रोक सकती है। लेकिन यह रिक्शा वाले कभी भी सीधे नहीं चलते। इन्हे जहाँ खाली जगह दिखे, अपनी ऑटो-रिक्शा घुसा देते है। ट्रैफिक जैम में जहाँ जगह मिले घुस जाते है। एक ट्रक वाले से आगे निकलने के चक्कर में रिक्शा वाले ने पीछे देखे बिना ही, ऑटो-रिक्शा मोड़ दी, और पीछे से आ रही SUV का बम्पर छील दिया। गलती खुद की, फिर भी अड़ियल की तरह SUV वाले पर ही टूट पड़ा। मैं यह तमाशा देखना तो चाहता था, लेकिन ऑफिस के लिए देर हो रही थी। 


     फ़िलहाल सवा सात बज रहे है। और मन में बस गरबा की धून बज रही है। अभी तो यह भी चिंता और है, कि रात के भोजन का भी प्रबंध करना है। हुकुम भी कुछ बताए नहीं अभी तक। 


"श्रद्धा और मान्यताओं पर विचार"

    प्रियम्वदा ! श्रद्धा भी कितनी अजीब चीज है न..? विश्वास से लबालब। कब यह विश्वास - अन्धविश्वास में तब्दील हो जाता है, और प्रथा बन जाता है, पता भी नहीं चलता। कहते है, पीपल के वृक्ष में पितृ बसते है। हमें नवरात्री चौक में लाइट्स लगानी थी, और लड़के पीपल के पास चप्पल उतारकर जाते। पीपल के प्रति श्रद्धा है, अच्छी बात है। लेकिन बिजली के तार से जुड़ा हुआ काम नंगे पैर नहीं करना चाहिए, यह भी एक वास्तविकता है। मैंने कईं लोगो को समझाया, इलेक्ट्रिक काम कर रहे हो, तब श्रद्धा और मान्यताओं को एकतरफ उतार देनी चाहिए। हम है, तो श्रद्धा है। लेकिन फिर वही बात, कुछ भी हो जाए, श्रद्धा के प्रति अनादर नहीं होना चाहिए। 


    चलो फिर, आज इतना ही। गरबा में जाने की भीतर जल्दी मची है।

    शुभरात्रि, और शारदीय नवरात्री की शुभकामना। 

    २२/०९/२०२५

|| अस्तु ||


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