“रास्तों का धैर्य : जीवन और मुसाफिरी की सीख || दिलायरी : 01/10/2025

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रास्तों का धैर्य : इंसान और सफर का रिश्ता

    प्रियंवदा !
    तुमने कभी सोचा है, यह रास्ते कितने धैर्यवान है..! धूप हो या बरसात, धूल हो या कीचड़, वे फिर भी इंतजार करते है, कि कोई कदम आए, अपना सफर तय करे। उनका धैर्य दिखाता है, कि चाहे देर से ही यात्रा शुरू हो, या कोई यात्रा रुक भी जाए, लेकिन वे रास्ते.. कभी नहीं हटते अपनी जगह से।

"धैर्यवान रास्ते और जीवन यात्रा का प्रतीक – स्थिर मार्ग पर चलता मुसाफिर"

नवरात्रि का अनुभव और पूर्वतैयारियाँ

    प्रियंवदा ! पूर्वतैयारियाँ कितनी जरुरी होती है। मैं तो उन बातों की भी पूर्व तैयारियां कर लेता हूँ कईं बार जिनका अस्तित्व भी अनिश्चित हो। आज नवरात्री का अंतिम दिवस है। कितने जल्दी जल्दी चले गए यह नौ दिन। और कल रात तो ऑफिस पर ही ग्यारह बजा दिए थे मैंने। कल दशहरा है, और हमने उसका आयोजन भी निश्चित कर लिया है। दैनिक हवन और शस्त्रपूजा। 

    वैसे आज का दिन थोड़ा खाली जरूर मिला। व्यस्तता न थी। मैं अपनी रोडट्रिप के प्लान पर कुछ और माहितियाँ इकट्ठी कर रहा था। लेकिन अभी भी वह रोडट्रिप मुश्किल ही है। छुट्टियां तो तय कर ली है, लेकिन फिर भी अनिश्चितता के बादल मंडराए हुए है। आसमान में भी जैसे दो दिनों से ग्रे चादर बिछी हुई है। प्रकृति में सवेरा या शाम हो ही नहीं रहा है। कुपोषित उजियारा ही दिन मान लिया जाता है। 

जीवन की उलझनें और मुसाफिरी की चाह

    सवेरे ऑफिस पहुँचने से पूर्व दैनिक यज्ञ वाले मित्रों के लिए कुछ व्यवस्थाएं कर देनी पड़ी। मैं तो आज भी लेट हो गया था। साढ़े नौ बजे तक ऑफिस पहुंचा। इस बार नवरात्री में मैं माता के मढ़ नहीं जा पाया। क्या करता, अनेकों उलझनों में बंध चूका हूँ मैं। और सारी ही उलझने मुझसे सर्वाधिक प्रेम भी करती है। कोई व्यक्ति मुझे चाहता हो या नहीं, लेकिन समस्याएं और बेमन - यह दोनों तो मेरे पक्के वाले आशिक है। 

ब्लॉग की निरंतरता और शेड्यूलिंग

    दोपहर को भोजनादि से निवृत होकर थोड़ी देर झपकी ले ली। और उसके बाद मेरे कईं सारे ड्राफ्ट्स उन दिनों में शिड्यूल कर दिए, जब मेरे पास कंप्यूटर न होगा। अगर रोडट्रिप तय हो गयी, तो इस ब्लॉग पर डेली एक पोस्ट की मेरी निरंतरता भंग न हो जाए, बस इसी कारण से कईं सारी पोस्ट्स शिड्यूल कर दी है। तक़रीब दो हफ्ते की। वैसे दो दिन की पोस्ट कम पड़ रही है, लेकिन उन्हें भी आजकल में लिखकर शिड्यूल कर दूंगा। 

    यही मेरी पूर्वतैयारियाँ है। वैसे थोड़ा बहुत बता तो सकता हूँ। मेरी रोडट्रिप के बारे में। असफल रह जाएगी, तब भी प्लान तो मैं बता ही सकता हूँ। क्योंकि प्लानिंग करने में कोई पैसे नहीं लगते। लगभग पांच हजार किलोमीटर का सफर है। कच्छ से मथुरा, आगरा, अयोध्या, प्रयागराज, वाराणसी तथा देवघर, और अंत में घरवापसी। सारा रूट, रोडमैप, नाईटस्टे, और प्रसिद्द स्थल निश्चित कर लिए है। एक पीडीऍफ़ में पूरी ट्रिप बना रखी है। दिनांक तथा समय के साथ। कार के सारे पेपर्स तैयार कर रखे है। यह प्लानिंग तो लगभग पांच महीने से चल रही थी। 

    लेकिन मेरे साथ हमेशा से यह समस्या रही है, कि समस्याएं स्वयं मेरे साथ-साथ चलती है.. मानो वे गाना गाती चलती है, "हम साथ साथ है.." फ़िलहाल इस मुसाफरी के लिए सब कुछ तैयार है, छुट्टियां है, लक्ष्मीजी है, लेकिन इस सफर का तीसरा मुसाफिर अभी तय नहीं है। मुझे तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा पहले से रास आता है। 

जीवन यात्रा की सीख

    खेर बाकी, चलती का नाम गाडी तो सालों से कहा जाता रहा है। और पथ है, तो पथिक है। उन पथों पर कभी कोई बालिका के नन्हे कदम पड़े होंगे.. तो कभी किसी किशोरी ने अपने पैर पटके होंगे। कभी किसी नवयौवनाने सकुचाते डग भरे होंगे, तो किसी प्रौढ़ा ने अपने विश्वासी पैर जमाए होंगे। कभी किसी बूढी अम्मा ने लाठी के सहारे भी उस पथ को नापा होगा। वे सड़कें, जिन्होंने सदैव से थकेहारे को अपनी मंजिल तक पहुँचाया है। सदैव से मूक बनी पड़ी रहती है। जिन्हे कुछ चाहिए होता है, उनके लिए मार्गदर्शन बनती है। 

    यह सड़कें कितनी सराहनीय है प्रियम्वदा ! उन्हें कईं बार पता होता है, कि पथिक यहाँ से लौटकर नहीं आएगा। फिर भी वह प्रतीक्षारत वहीँ रहती है। या फिर वह किसी नए पथिक का साथ देने में व्यस्त हो जाती है। कितने ही मौसम वह अपनी छाती पर सहती है। कभी वर्षा में कीचड़ ओढ़ लेती है। कभी गर्मियों में धूल में रमी रहती है। तो कभी सर्दियों में औंस की बूंदो से सजी रहती है। कभी उसके किनारे खिले फूलों ने उसे महकाया है, तो कभी किसी शव की दुर्गन्ध सही है उसने। पर वह एक शब्द नहीं बोलती। 

    कभी किसी सड़क ने शिकायत की है, "देर से क्यों लौटे?", या कभी किसी राह ने ताना मारा है कि, "तुम तो मुझे भूल ही गए।" वे बस निर्मोही होकर बिछी रहती है, हर लौटने वाले का भी उसी उत्साह से पथदृष्टा बनकर। मुसाफिर बदल जाता है, मौसम बदल जाता है, लेकिन रस्ते अपना धर्म नहीं छोड़ते। धैर्य से इंतजार करते रहते है। अनंत तक.. 

निष्कर्ष 

    कभी कभी सोचता हूँ, मुझमे इतना धैर्य क्यों नहीं है? किसी की प्रतीक्षा करते हुए शिकायत भी न करना। किसी के लौट आने की आस में अपना अस्तित्व बनाए रखना। जैसे पगडंडियां जानती है, लौटने वाला चाहे जब लौटे, लेकिन वह उस धरती पर जरूर से कदम रखेगा, जहाँ से वह गुजरा था। शायद धैर्य का अर्थ यही है, कि अपने होने को इतना थामे रखना, कि लौटने वाले को वही अपनापन मिले। 

    शुभरात्रि।
    ०१/१०/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

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