मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 29/06/2025Time & Mood - 16:20 || बस कलम चलना चाहता हूँ..
वो ख़ास जगह..
कुछ जगहें होती ही है यादगिरी सी.. वहां से गुजरते हुए जैसे बीता जमाना, फिर से आँखों के आ खड़ा होता है। कुछ जगहें कल्पनाओ में भी बन जाती है। वास्तविकता से करोड़ो मिल दूर.. जहाँ एकांत होता है। और कोई नहीं, सिर्फ दो लोग। वहां कोई डर नहीं होता, वहां और कोई ख्वाहिशें नहीं होती..! वहां एक ही मौसम रहता है, बारह महीने। वहां धूप खिलती है, पर चुभती नहीं। वहां बादल बरसते है, पर गम की नमी नहीं होती। वहां सर्दियाँ भी आती है, लेकिन उसमे भी एक गर्माहट होती है आलिंगन सी।
जो वास्तविकता में है, वही वहां भी होता है। बस बिछड़न नहीं होती, वियोग नहीं होता। कोई आँखों से ओझल नहीं होता। वहां भी अश्रुधारा तो बहती है, लेकिन वियोग के गर्म आंसू नहीं होते वे.. वे तो आनंद के अतिरेक में आँखों से बहते उछलते जलप्रपात होते है। तुम्हारी छाया है वहां, मेरे साथ। बिलकुल ही वही अंदाज़ में। लेकिन बस वो एक ही लूप में अटकी सी हुई है जैसे। क्योंकि उसमे वास्तविकता नहीं है। तुम्हारी छवि में तुम्हारापन नहीं है। तुम तो तुम हो, तुम सा कोई और कैसे हो सकता है?
एक सवाल :
वहां तुम हो, लेकिन एक मूर्ति स्वरुप.. फिर कभी कभी वह मूर्ति अनुत्तर क्यों हो जाती है? क्या मेरे सवाल उतने कठिन है? या फिर असमय है?
सबक :
उन कल्पनाओं से निकलकर अब आगे बढ़ जाना चाहिए। क्योंकि मूर्तियां एक ही भाव में रहती है। जैसा उस मूर्तिकार ने उसे रूप दिया हो, बिलकुल अनंत तक वही अनन्य भाव..!
अंतर्यात्रा :
उस जगह में एक लालसा है, मेरी। तुम ही वही लालसा हो, जिसके पास मैं बार बार खिंचा चला जाता हूँ।
स्वार्पण :
वो जगह सबकी अपनी होती है, और सब वहां किसी और के साथ होते है।
"तुमने तो मेरा अकेलापन भी अकेला नहीं रखा है।"
जो उस जगह में अटक गया है..
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