छोटी दीपावली और बचपन के रॉकेट्स || दिलायरी : 19/10/2025

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छोटी दीपावली की शुभकामनाएं, प्रियंवदा को

    प्रियम्वदा !

    छोटी दीपावली की शुभकामनाएं तुम्हे।


"छोटी दीपावली की रात में रॉकेट्स और दीयों से जगमगाता आसमान – दिलायरी 19 अक्टूबर 2025"

रॉकेट्स और बचपन की दिवाली

    वैसे यह दिलायरी दीवाली के ही दिन पब्लिश हो रही है, इस लिए दीवाली पर्व की भी अनेकों शुभकामनाए। यह रौशनी का त्यौहार सबके जीवन मे नई उम्मीदों तथा उपहारों से सजा-धजा रहे यही अंतर की शुभकामना है। हाँ, आज की एक दिलायरी तुम्हे मिलेगी, उसके बाद कुछ दिनों तक दिलायरी की छुट्टी होने वाली है। समस्या और कुछ नही, लेकिन कंप्यूटर का अभाव ही होगी। आज अभी फोन में यह दिलायरी लिखने बैठा हूँ। आसमान में हर जगह से पटाखों की गूंज उठा रही है। कुँवरुभा अपने बिली-बम फोड़ कर अब सोने जा चुके है। और मैं छत पर दिलबाग में बैठा लिखने में लगा हूँ। मौसम भी मजे ले रहा है, दिनभर झुलसाने वाली धूप रहती है, और रात होते ही मौसम ठंड पकड़ने लगता है। अभी अभी तीन टेढ़े रॉकेट्स निकले है। दीवाली का मजा इन रॉकेट्स में ही है।


    मैं किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश कर रहा था, तब वे स्काई-शॉट्स तो हमारे लिए एक सपने समान थे। रॉकेट्स की ही बोलबाला हुआ करती थी। मुझे याद आता है एक वाकिया, हँसी भी आती है अपने आप पर। एक लड़का लड़कपन में था उन दिनों। इम्प्रेस करने के चक्कर मे हाथ से रॉकेट्स छोड़ता था वह। न बोतल, न ही मिट्ठी की ढेरी, हाथ से ही रॉकेट छोड़ देने का। लगता था जैसे इस बहादुरी से कोई प्रभावित हो जाएगा। लेकिन यह एक हँसी ठिठोली का साधन भर था। यह बालिश हरकत देखकर कोई मुस्कान जरूर से दे देता था। इस पागलपंती के अलावा हाथ से सुतली बम जलाकर आसमान में फेंकना। सुतलिबम हवा में ही फटना चाहिए। आज यह सब सोचकर ही बेवकूफी लगती है, थी तो तब भी। लेकिन वे हालात अलग थे। कोई देखता था, इसी लिए यह सब किया जाता था।


वॉलीबॉल और थकान से भरा रविवार

    प्रियम्वदा, कल रात को एक बजे तक वॉलीबॉल खेलते रहे थे। इसी कारण आज सवेरे उठने का जरा भी मन नही था। फिर भी मन मारकर भी साढ़े सात बजे उठ ही जाना पड़ा। और साढ़े नौ बजे तक ऑफिस भी पहुंच गया था। वही रविवारीय कार्यक्रम निपटाने थे। दिवाली की मिठाई या बोनस तो आज भी नही बांटा गया। सरदार तैयार नही था। दीवाली के ही दिन बांटेगा। मैंने अपनी और से जरूरी सारी तैयारियां कर रखी थी। बस बांटने भर की देर थी। लेकिन सरदार ने आते ही कहा, "यह बोनस वाला कार्यक्रम कल दीवाली के ही दिन करेंगे।" यकीन मानो, फिर भी हमें हिसाब किताब निपटाने में दोपहर के तीन बजे गए। घर पहुंचा, और भोजनादि से निवृत होकर चल पड़ा गरबी चौक।


पड़ोसी की अलमारी और मदद का त्योहार

    सोचा था, आज जल्दी ही वॉलीबॉल शुरू कर देते है। लेकिन कोई आया नही। पत्ते को जबरजस्ती घर से बुलवाया। वो आया, लेकिन बोला मार्किट जाना है। हम चल पड़े। मेरा बिल्कुल ही मन नही था, फिर भी। उसे सोफा कवर लेने थे। वापिस लौटकर मैं घर आया। तो पड़ोसी नई अलमारी ले आया था। और उससे अकेले उतरनी नहीं थी। अपने से तो वैसे ही भारी चीजे उठती नही। फिर भी हाथ लगवाया। नई अलमारी, वो भी लकड़ी की, ऊपर से पोलिश की हुई। मेरे हाथ से गिरते गिरते बची। बेचारे का त्यौहार पर नुकसान हो जाता। मेरा भी हो जाता, क्योंकि हाथ से सरकती तो मेरे ही पैरो पर आनी थी। जैसे तैसे कर हमने अलमारी घर के भीतर पहुंचाई।


ऑफिस का हिसाब-किताब और दिवाली का बोनस

    उतने में ऑफिस से फोन आया। एक बिल बनाना था। कसम से मुझे तो ऑफिस वालों को गाली देने का मन कर गया। दोपहर तीन बजे तक ऑफिस पर ही था मैं, तब तक तो बिल के लिए किसी ने बताया नही। और अब त्यौहार है, घर आ चुका हूँ, और अब बिल मांगते है। मैंने ठान ली, गाड़ी फंसे तो फंसे, बिल तो रात को ही दूंगा। मैंने स्पष्ट फोन में कह दिया, आगे से ध्यान रखना, आज बना देता हूँ, कल से छुट्टी पर हूँ। हाँ, कईं बार कुछ लोगो पर गुस्सा प्रकट न करो, वे किसी बात की गंभीरता समझते ही नही। फिर हम लोग वॉलीबॉल खेलने चल पड़े। लगभग आठ बजे तक वॉलीबॉल कूटा। मुझे तो ज्यादा यह खेल आता नही है। तो मैं नेट का कार्नर पकड़ लेता हूँ, वहां बॉल कम ही आती है। लेकिन आती है, तब पूरा शरीर स्फूर्ति में होना चाहिए।


    बड़ा ही अजीब खेल है यह भी। बॉल जमीन पर गिरनी नही चाहिए। मेरे साथ तो एक और बड़ी समस्या है। अपन पहनते है चश्मा। वो भी स्क्रेचीस वाला। फोकस की लाइट के कारण जजमेंट आ ही नही पाता है। बॉल जब बिल्कुल ही करीब पहुंच जाती है, तब अचानक से निर्णय लेना पड़ता है। अचानक से लिए गए निर्णय में चूक ही होती है। तो हमेशा बड़ी ताकत के साथ बॉल को वापिस प्रतिद्वंद्वीयों के खेमे में धकेलता हूँ। इस चक्कर मे या तो बॉल ग्राउंड के बाहर चली जाती है। या फिर बहुत ऊंचे अपने ही पाले में उठ जाती है। बहुत ज्यादा ऊंचे से आती बॉल को अपना टीममैट भी कवर नही कर पाता है। क्योंकि ऊंचे से आती हुई यह बॉल हाथ पर लगती बड़ी तेज है। इसी कारणवश, मैं शर्मिंदा होकर नेट वाला कार्नर पकड़ लेता हूँ। जहां बॉल आने के चांस बहुत कम रहते है। लेकिन फिर भी इतनी ज्यादा दौडधाम हो जाती है, कि हांफने लगता हूँ।


    आठ बजे वॉलीबॉल बन्द करके, मैं ऑफिस चल पड़ा। बिल बनाने ही तो। अनिवार्य था। क्योंकि उसे टालने का मैं भरसक प्रयास पहले ही कर चुका था। कल सुबह ऑफिस जाना ही है। तो मैं सोच रहा था, बिल कल सुबह बना दू। लेकिन गाड़ी आज ही निकालनी जरूरी थी। इस लिए बिल बनाने चल पड़ा। अकेला था, तो गजे को भी साथ ले लिया। ऑफिस पहुंचा, तो सारी ही ऑफिस दीपकों से जगमगा रही थी। सरदार चक्कर मार गया होगा, यह मेरा अनुमान सही हुआ। बहादुर को पटाखे दे गया होगा। क्योंकि सुतलिबम के धमाके बहादुर लगातार कर रहा था। बड़ा संभालना पड़ता है इस त्यौहार में। क्योंकि मिल में एक चिंगारी काफी है, दीवाली को दिवाला बनाने में। बहादुर हमारा थोड़ा बालकबुद्धि है। वैसे बालक ही है। धमाकों पर धमाके किए जा रहा था। 


काली चौदस और गुजराती परंपरा – ‘कंकास काढवो’

    मैं अपना बिल बनाकर निकल पड़ा। घर आया, और बस अब यह दिलायरी लिख रहा हूँ। अरे हाँ, आज हमारे यहां ढेबरा बनते है। वैसे तो मैं इस बारे में शायद पिछले साल की काली चौदस की दिलायरी में लिख चुका हूँ। फिर भी थोड़ा बहुत लेख की लंबाई बढ़ाने के लिए लिख ही देता हूँ। गुजराती का एक शब्द है, कंकास। कंकास माने हिंदी का कलेश.. क्लेश ही सबसे ज्यादा करीब बनता है कंकास के। काली चतुर्दशी, या नरक चतुर्दशी भी कहते है। गुजरात मे लगभग चार रास्ते पर आज या तो दिए जलते मिलेंगे। या फिर नारियल (श्रीफल) पड़ा मिलेगा। या फिर पानी की धारा से जमीन गोला बना जरूर मिलेगा। लोग बाजरे के आटे का ढेबरा बनाते है। और उसे चार रास्ते पर फेंक आते है। यह हुआ कंकास काढ़ना, मतलब क्लेश को घर से निकालना। उद्देश्य तो होता होगा, शायद घर की अशांति को भुलाकर नई शांति की स्थापना करना। ताकि दीवाली जैसा महापर्व, और उसके बाद आते नूतन पर्व से सारे गीले शिकवे मिटा देना।


स्मशान की रात और मन का अंधकार

    लेकिन धीरे धीरे लोगों ने इसे मंत्र-तंत्र, और काली विद्या से जोड़ दिया। आज की रात स्मशान तो दूर की बात है, कोई स्मशान वाले रास्ते पर भी नही चढ़ेगा। अरे इस स्मशान वाली बात से याद आया। एक बार ऐसी ही एक काली चौदस की रात को हम यार दोस्तों में शर्त लग गयी थी, शर्त तो क्या थी, यूँही बातोंबातों में सबने स्मशान जाने का तय किया। रात का समय था, ऊपर से स्मशान का तो रास्ता भी सुनसान पड़ा। हम शायद तीन चार दोस्त उस रास्ते पर चल पड़े। सच बताऊं तो उन दिनों भय नही लगता था। मन मे यह उत्साह हुआ करता था, कि ऐसा तो क्या है इस रात में, कि लोग स्मशान के नाम से भी कतराते है। यह तो अक्सर सुनने को मिलता था, कि काली चौदस की रात को स्मशान में अघोरी अपनी तंत्र साधना करने आते है। या फिर कोई कहता, कि काली चौदस की रात को स्मशान में सिर्फ आत्माएं भटकती है, और एक रात के लिए मुक्त हो जाती है। 


    न तो कभी आत्मा देखी थी, न ही कोई अघोरी। हम चल तो पड़े थे, लेकिन शायद आधे रास्ते से किसी ने स्मशान में आग देख ली, और वह पीछे हटने लगा। उसे देख बाकी सब भी वापिस लौटने लगे। उसे जरूर से भरम हुआ होगा, क्योंकि मैंने तो स्मशान में सिवा अंधेरे के कुछ न देखा था। हम कुछ भी देखे बिना ही लौट आए। लेकिन हाँ सियारो की टोली ने खूब आवाजें की। सियार रोते है, रात में बड़ी डरावनी आवाजें निकालते है। वह भी सारा ही झुंड एक साथ आवाजें करता है। स्मशान में सियारों के लिए कुछ न कुछ मिल ही जाता है, इस कारण से उनका झुंड रात में जरूर से स्मशान के आसपास भटकता रहता। उस अनुभव के बाद इतना जरूर जानने को मिला कि यह सब भ्रमनाएँ मन की मक्कमता पर निर्भर है। मुझे अंधेरे से नफरत है, इस लिए मैं जब भी अंधेरे में होता हूँ, बिल्कुल ही अंधे जैसा अनुभव करता हूँ। तुरंत स्विचबोर्ड ढूंढता हूँ, या फोन की फ्लैशलाइट चला देता हूँ।


    फिलहाल रात के ग्यारह बजे रहे है, अब सो जाना चाहिए। निंद्रा देवी तो कब से आंखों को घेर रही है, लेकिन मैं बस यह लिख लेने के लिए उन्हें टाल रहा हूँ। सवेरे एक काम से जल्दी जागना भी है मुझे।


    शुभरात्रि।

    १९/१०/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

यह दिलायरी छोटी दीपावली की रात लिखी गयी है।
अगली दिलायरी कुछ दिनों बाद लौटेगी —
जब कंप्यूटर फिर से साथ होगा, और मन में नए उजाले होंगे।

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