दीवाली, बोनस और टूटा साइड मिरर : ट्रिप की शुरुआत || दिलायरी : 20/10/2025 (Maharashtra Jyotirlinga Yatra Part 1)

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    प्रियम्वदा ! दीपावली की ढेरों शुभकामनाएं तुम्हे..! 


राजस्थानी कार्टून कैरेक्टर जो ‘हैप्पी दीवाली’ कहते हुए कार से रोड ट्रिप के लिए निकल रहा है – दिलावरसिंह की दिलायरी ट्रैवल ब्लॉग का पहला भाग

दीवाली की सुबह और ऑफिस का बोनस

    कहाँ से और कैसे शुरू की जाए यह दिलायरी? दिलायरी लिखनी बाकी चल रही है दीपावली वाले दिन से..! और आज मैं ट्रिप पूरी कर के लौट भी चुका हूँ। हमारे यहां दीवाली थी बीस तारीख की, और आज तारीख है पचीस। चलो फिर शुरू करते है..! दीवाली जैसा दिन भी अब शायद मेरे जीवन मे तो नार्मल दिनों जैसा हो चुका है। एक ऐसा ही त्यौहार, जो हर साल आता है। यूँ तो इसे खुशियों का त्यौहार माना जाता है, लेकिन दरअसल यह खर्चों से भरपूर त्यौहार है। इस त्यौहार में सालभर का खर्च इकट्ठा हो जाता है। नए कपड़े से लेकर नए जूतों तक। नए गहनों से लेकर नए वाशिंग मशीन तक। वो बेचारे ट्रंपुद्दीन के टेरिफस तो धरे के धरे रह गए, इतना आंतरिक व्यापार हुआ है। मार्किट में पैसा ही पैसा घूम रहा है..! 


खर्चों का त्यौहार और उम्मीदों का कवर

    सुबह सुबह ऑफिस जाने की जल्दी इस वजह से भी नही थी, कि पता है, बोनस क्या मिलना है? मैं तो अपने बोनस का कवर भी अपने ही हाथों बनाता हूँ। क्या कर सकते है, गंदा है पर धंधा है। लेबर वगेरह तो संडे ही निपटा दिए थे, आज बस दीवाली बांटनी थी। अपना पूरा साल किसी कंपनी को दिए हुए आदमी के मन मे, कईं आशाएं होती है। लेकिन क्या हो जब वह कवर खोले, और उसमे उतने भी पैसे न हो, कि ढंग के कपड़ों की जोड़ी तक आ जाए..? हाँ, बहुत सी ऐसी कंपनियां है, जहां यह बोनस का सिस्टम भी नही है। वहां तो सोनपापड़ी का डिब्बा तक नही मिलता। खेर, लगभग तीन बजा दिए थे। और सब निपट गए। घर ही जाना था। तो रास्ते मे पड़ती दुकान पर रूक गया। मावा के पूरे दो पैकेट ही ले लिए। दुकानदार का रेगुलर मावा कस्टमर हूँ मैं, तो उसने भी मुझे एक मिठाई का बॉक्स दिया। और हँसते हुए बोला, 'तो आखिरकार आपकी ट्रिप फाइनल हो ही गयी?'


मावा के पैकेट और रिश्तेदारों के घर

    मैंने ही उससे कहा था, कि अगर मैं मावा के पूरे पैकेट लेने आऊं तो मानना की ट्रिप पर जाऊंगा। वो दो पैकेट्स ऑफिस पर ही रख दिए। क्योंकि ऑफिस से ही तीसरे सहयात्री को उठाना था, घर पर ले नही जा सकता था। एक मरजाद बांध रखी है, तो निभाता भी हूँ उसे। दीवाली जैसे महापर्व पर रिश्तेदारों के घर जाना अनिवार्य है। खासकर बड़ों के घर। बुज़ुर्गों के आशीर्वाद लेने जरूरी है, दीवाली बड़ा दिन है। मैंने कार उठायी और चल पड़ा। सोचा तो था, कि कार वाशिंग करवा लूंगा। लेकिन दीवाली के दिन कौन खुला मिलता भला? वह भी दोपहर के बाद? मैं अपने रिश्तेदारों के घर चल पड़ा, और एक घर पर पता चला, कि कार का लेफ्ट साइड का साइड मिरर तो टूट चुका है। कुँवरुभा के द्वारा पता चला, कि आसपड़ोस के बच्चे और कुँवरुभा खुद भी इस साइड मिरर पर लटक रहे थे। बच्चों ने खेल खेल में शीशा तोड़ दिया। समस्या और भी बढ़ी, रात को निकलना है, साइड मिरर जरूरी है। और दीवाली के कारण कोई खुला भी नही मिलेगा।


वॉलीबॉल, चोट और लक्ष्मी पूजन की बातें

    खेर, शाम होते होते वॉलीबॉल ग्रुप इकट्ठा होने लगा। मुझे पता था, कि मुझे रात के दो बजे ट्रिप के लिए निकलना है, और लगभग आठसौ किलोमीटर ड्राइव करना है। फिर भी वॉलीबॉल खेलना स्किप नही कर पाया। यह नौजवान लड़के, इन्हें वॉलीबॉल में जरा भी हवा कम नही चलती। एक दम टाइट बॉल, हाथों पर निशान छोड़ जाता है। खेलते खेलते मैं भी थोड़ा जोश में आ गया। और एक बॉल खामखा अपने दाएं हाथ के अंगूठे पर ले ली। बॉल इतनी जोर से आई थी, कि अंगूठे का खून मर गया, हल्का काला हो गया अंगूठा। 


पटाखों का शोर और नींद से जंग

    एक बार को लगा था, कि अंगूठा ही गया। फ्रेक्चर हो गया। लेकिन कुछ देर बार अंगूठा इधर उधर मोड़ा, थोड़ा दर्द था, लेकिन हर दिशा में मूड पा रहा था। कम से कम यह आश्वासन तो जरूर से मिला, कि ट्रिप से पहले तो चोटिल नही हुआ हूँ मैं। लगभग आठ बजे तक खेलते रहे थे हम। हमारे यहां लक्ष्मी पूजन जैसी कोई प्रथा नही है। कम से कम मेरे घर पर तो नही। हम धन तेरस के दिन लक्ष्मी पूजन कर लेते है। पत्ता बार बार पूछ रहा था, 'तेरे घर पर पूजा नही है क्या, जो अभी तक वॉलीबॉल खेल रहा है।' अब उसे कैसे समझाया जाए, कि हमारे यहां ऐसा ही होता है।


    आठ बजे घर पहुंचा, तो कुँवरुभा अपने 'बिली-बम' के साथ धमाके किए जा रहे थे। मैं भी उनके साथ शामिल हो गया। कुछ स्काई शॉट्स लाया था मैं अपने लिए भी। कुँवरुभा को लेकर घर की छत पर गया, और आसमान के सितारों में क्षणिक वृद्धि करते, और शोभा के क्षणभंगुर चमकीले स्काई शॉट्स से आसमान भर गया। कुछ ही देर में वे तो खत्म हो गए। फिर तो कुँवरुभा के ही अनार, चकरी, पॉप-पॉप और बिली बम - मैंने भी उनके साथ फोड़े। आसमान से चारो ओर धमाकों की गूंज उठ रही थी। पास में एक घर उस जाति का भी है, जिनके पास कानून का कंबल होता है। नही सुधर सकते कुछ लोग.. रात के ग्यारह बजे जब सब कुछ शांत हो गया, तब उसने सुतली बम के धमाके शुरू किए। जब हर कोई शांति चाह रहा था, तब उन लोगों ने खलल शुरू की। हर त्यौहार में यह लोग सब शांत हो जाने के बाद ही वापिस शुरू करते है। नही सुधरेंगे।


ट्रिप की तैयारी और आधी रात का सफर

    मैं कोशिश करने लगा सोने की। क्योंकि मुझे रात्रि के दो बजे निकलना था। लेकिन नींद चाहिए होती है, तो बिल्कुल नहीं आती। और वैसे भी उन लोगों ने एक के बाद एक इतने सुतली सुलगाए, कि मुझे घर से निकलना पड़ा। और उन्हें समझाना पड़ा, कि थोड़े दूर जाकर पटाखें फोड़े। वैसे भी कानून के अनुसार रात के दस बजे के बाद पटाखे नहीं फोड़े जा सकते। कुछ देर इन्होंने शांति रख ली, लेकिन थोड़ी देर बाद इनके घर की स्त्रियां धमाके करने लगी.. क्या कर सकते है.. इनके कंबल से संभालना पड़ता है। मैं अपने कानों पर अजरख लपेट कर सोने की कोशिश करता रहा। लेकिन नींद है कि आयी ही नही। कईं करवटें बदलने बावजूद नींद न आने पर मैं मनोमन सोच ही रह था, कि क्यों न अभी ही निकल लिया जाए ट्रिप पर? वैसे भी दो बजे निकलना है। दो घण्टे पहले निकल जाए तो क्या गलत है?


‘धोका’ वाला दिन और निकलने की घड़ी

    तभी पुष्पा का फोन आया, पुष्पा मुझसे भी अधिक उत्साही है। खासकर जब किसी रोडट्रिप पर निकलना हो। वह अलग ही लेवल के उत्साह में रहता है। उसका सिस्टम कुछ अलग ही है। उसका भी यही हाल था। उत्साह के चलते उसे नींद नही आ रही थी। उसने फोन किया और बोला, "अभी ही चल पड़े तो?' मैंने घड़ी देखी, ग्यारह बजे रहे थे। चौघड़िया देखकर चलने में मेरे माताजी का ज्यादा विश्वास है। तो उन्होंने कहा बारह बजे के बाद निकलना। मैंने भी तय कर लिया, बारह बजट ही निकल पड़ेंगे। पैकिंग तो मैंने कर ही रखी थी। बस बैग लेकर निकल पड़ने की देर थी। कार भी मैंने थोड़ी साफसुफ़ कर ली थी। बस एक यह अंगूठे में दर्द था, और कार का साइड मिरर टूट चुका था, यही समस्या थी। ठीक रात के बारह बजे, अंग्रेजी रीति अनुसार दिन बदल गया, हमारे लिए (गुजरातियों के लिए) यह फालतू का दिन कहलाता है। दीवाली और नए साल के बीच मे एक्स्ट्रा दिन 'धोका' कहलाता है।


रात का हाइवे और नई कहानी की शुरुआत

    अमासन्त महीने में दीवाली के बाद नया साल शुरू होता है। लेकिन तिथि अनुसार यह दिन खाली था। अमावस्या दो दिन की थी। तो बस, नए वाले जूते चढ़ाए, और एक कभी-कभार पहनता हूँ वो वाली कार्गो पेंट चढ़ाई। जिंदगी में कभी बिना कॉलर की टी शर्ट नही पहनी, आज वो भी पहन ली। कॉलर ढकने के लिए गले मे अजरख को गमछे की तरह लपेट लिया। माताजी के पैर छुए, सोए कुँवरुभा को एकटक निहार लिया, और निकल पड़ा। कार चालू की, रिवर्स लेकर सोसायटी के बाहर हाइवे पर चढ़ लिया।


    (आगे की कहानी अगली दिलायरी में..)


    शुभरात्रि।

    २०/१०/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

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अगली दिलायरी में मिलते हैं, जहाँ शुरू होगी असली ट्रिप की कहानी... 🚗💨

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