मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 30/06/2025Time & Mood - 17:48 || रुआंसा..
आंसू जो छिपकर बहे थे..
हाँ ! बह निकली होगी, कभी कोई धारा अनकहे..! अनियंत्रित हो कर। चाँद भी अपनी रौशनी समेटे आसमान छोड़ गया होगा। सितारों ने अपनी चमक धीमी कर ली होगी। मेरी चींखे शायद हवाओं ने अपनी बांहो में भर ली होगी। मुझे नहीं याद, क्या हुआ था। क्यों हुआ था, वह भी नहीं। मैं जानबूझकर अपने शब्दों से उस वाकिये को अलग कर लेना चाहता हूँ, क्योंकि वहां निरि निराशा के सिवा है ही क्या? वहां अस्खलित बहते आंसुओं ने बाकी सारी बातें भी तो बहा दी है।
तुमने मना भी तो नहीं किया था.. फिर भी हमारे रास्ते बदल गए। नियति ही कहूं इसे? किसी जर्जर किताब का वो फटा पन्ना, जो बार बार गिर जाता है, उस आशा में, कि कोई आए उठाए। उसे अपनी जगह वापिस रखे। लेकिन कोई नहीं आता। जिसे आना था, उसकी अलग दुनिया बन चुकी है। उसकी दुनिया से दूर उसे आज भी कोई पुकारता है.. लेकिन आवाज उसे कैसे सुनाई देगी? उसकी दुनिया बहुत दूर है। मेरा तकिया जानता होगा, आंसुओं का भार कितना होता है? गिनती में नहीं बहते आंसू कभी.. न ही उसका भार कोई जान पाया होगा.. खासकर वो.. जिसके लिए बहे हो..
एक सवाल :
उन आंसुओं का भार तुमने अनुभव किया है कभी? तुम्हे कहाँ पता होगा? तुम्हारे सामने तो कभी वे प्रकट हुए ही नहीं। तुम्हारे सामने तो एक आनंद बना रहता था, आंसुओ को अपनी पीठ पर बांधे..!
सबक :
आंसुओ का कोई मोल नहीं, वे अपनी मर्जी से लाख बाँध बना लो तब भी बहते है..!
अंतर्यात्रा :
आंसुओं का कूप अनंत है, उसकी गहराई कोई कहाँ नापता है। जरूरत अनुसार वे निकलते है, रुक जाते है, और वापिस भर जाते है।
स्वार्पण :
आंसुओ का जतन करना चाहिए। यह खुद तो बहते है, और साथ ही बात भी बहा ले जाते है।
मैंने उस खारे पानी से भी मित्रता कर ली, अब वे गर्म नहीं लगते मुझे..
जिसके आँसुओने भी उसका साथ छोड़ दिया..
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