मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 15/09/2025Time & Mood -10:19 || अजीब और अनसुलझा..
एक बार खुद को गले लगा लो..
नहीं जानता हूँ, कैसे मैं अपने आप को गले लगा लूँ? सदैव से तो मैं अपनी खामियां ही गिनते आया हूँ..! उन्हें कैसे अपना लूँ? मैं अपनी ही आवाज को नहीं पहचानता। मैं अपने आप को कुरूप मान चूका हूँ। मैं खुद को घमंडी भी मानता हूँ। और मैं बस कल्पनाओं में खोया रहता हूँ, तुम्हारे आलिंगन में प्रियंवदा। लेकिन यही मेरी पहचान है। दूसरा कोई मुझे किस दृष्टिकोण से देख रहा है, या वह मुझे क्या समझता है, इस पर मैं हमेशा अपनी नजर रखता आया हूँ। शायद इसी कारण से, मैं जो हूँ, उससे ज्यादा मुझे तुम्हारे मानदंडों में ठीक बैठना ज्यादा ठीक लगा।
पर आज जब खुद में झांकता हूँ, तो पाता हूँ, मुझ में कईं दोष है। लेकिन उससे अधिक गुण भी है। मैं जैसा भी लिखता होऊं, लेकिन लिख पा रहा हूँ। मैं अपनी गलतियां स्वीकार कर सकता हूँ। मैं अपने भूतकाल को वर्तमान में भी बाँहों में भरकर चलता हूँ। अफ़सोस नहीं है इस बात पर, लेकिन यह भूतकाल का भार उठाकर, वर्तमान में लंगड़ाते हुए चलना, मुझे भविष्य में बहुत पीछे रख देगा। मैं यदि अपने आप को गले लगाना चाहूँ भी तो नहीं कर पा रहा हूँ, मैंने अपनी चारोओर एक बाड़ बाँध रखी है। एकलता की बाड़।
एक सवाल :
सबक :
अपने ही गुणदोष को समझने से अपनी वास्तविकता से पहचान होती है प्रियंवदा। लेकिन वास्तविकताएं भी बदलती रहती है। समय समय पर स्वयं को गले लगा लेना चाहिए।
अंतर्यात्रा :
खुद को गले लगा पाने के लिए साहस भी चाहिए। जैसा भी हूँ मैं, वैसा ही मुझे स्वीकार पाने का साहस।
स्वार्पण :
एकलता की बाड़ जब अच्छी लगने लगती है, तब वह बाड़ अपने आप में भी सिकुड़ती जाती है। धीरे धीरे वह बाड़ सब कुछ निगल जाती है।
खुद को गले लगाने पर, हट गयी थी तमाम बंदिशे,
जिन्हे मैंने स्वीकार लिया था, नियति समझकर..
जिसके भीतर तुम ही तुम हो..
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