सफर की थकान और मुस्कान
धूल भरा रास्ता, सीखों से चमकता मन
प्रियम्वदा !
हम उस समाज मे रहते है, जहां हमें रिश्तेदारियां निभानी होती है। हमें कभी रिश्तेदारों की जरूरत पड़ती है, तो कभी उन्हें हमारी। लेकिन धीरे धीरे यह सोच संकीर्ण होती जा रही है। हम ऐसा चाहने लगें है, कि मैं भला, मेरा काम भला, और मेरा जीवन भला.. न मुझे किसी का साथ सहकार चाहिए। न ही मैं किसी का साथ सहकार करूँ..! मैं अकेला रहना चाहता हूँ.. या मैं अकेला ज्यादा बेहतर हूँ। यह सोच सही नही है।
अपनी यह संस्कृति कभी नही रही है, कि हमें अपने माता-पिता के साथ भोजन लेने के लिए अपॉइंटमेंट लेनी पड़े। या हमें कभी यह विचार किया ही नही था, कि हम उस रिश्तेदार के घर जाने से पहले उन्हें फोन करके बता दें, कि हम आपके घर आ रहे है। हमारी मेहमानों की सभ्यता रही है। हमने महेमान के रूप में भगवान देखा है। लेकिन अब ऐसा नही रह गया है। मुझे खुद अपने पहचान के, तथा रिश्तेदारों के घर जाने में झिझक होती है। वैसे मैं तो थोड़ा हूँ ही अजीब।
जब थकान में भी मुस्कुराहट बाकी रही
सवेरे ऑफिस तो जाना ही था। दस बज गए थे। इतने में सरदार का फोन आ गया, 'मैं नही आ पाऊंगा, आप अपने हिसाब से लेबर देख लेना।' यह भी अपनी मर्जी के मालिक है। अब फिर से जिम्मेदारियों का बोझ ढोना मेरे ही कंधो पर था। पुष्पा तो कल से आराम ही फरमा रहा था, पहले उसे फोन किया कि जल्दी आ और लेबर का रिपोर्ट तैयार कर दे, ताकि मैं जल्दी फ्री हो सकूँ। और मैं ऑफिस पहुंच गया।
काम तो और कुछ था नही, मैंने अपनी दिलायरियों के काम मे लग गया। ब्लॉग पर अब कुछ और भी ट्रैफिक आ रहा है, व्यूज़ तो दिख रहे है, लेकिन कमेंट्स या ऐसा कुछ आता नही है। पहले तो लगा सिर्फ मेरा वह स्नेही है, लेकिन अब तो कोई और भी पाठक है। खेर, ब्लॉग पर अभी भी तीस तारीख की वे शिड्यूल्ड पोस्ट्स है ही, और तब तक मैं दिलायरियाँ लिख लूंगा, तो सारी पोस्ट्स ठीक से पब्लिश हो जाएंगी।
दोपहर के दो बजे निकलने ही वाला था कि चौकीदार आया, उसने बताया कि पोलिस स्टेशन से कोई अफसर आए है। पहले तो लगा कि फिर से कोई साहब दिवाली के लिए पधारे होंगे। लेकिम साहब सिविल ड्रेस में थे, अकेले थे, और आल्टो से आए थे। उन्होंने आते ही हैंडशेक किया। परिचय दिया, और कारण बताते हुए कहा कि बीस तारीख को रोड पर एक्सीडेंट हुआ है। एक आदमी की मृत्यु हो गयी है। और उस एक्सीडेंट का कारण एक डम्पर ट्रक है। निकला वह इसी रोड से है, तो आपके सीसीटीवी देखने है। पहली बार किसी अफसर को इतने मीठे स्वर में बोलते देख बड़ा मजा भी आया। उपड से ताज़ा ताज़ा मेरा वह महाराष्ट्र के उस अफसर से पाला भी पड़ा था।
उन्हें आदर के साथ अपने सीसीटीवी वाले ऑफिस में ले गया। टीवी ऑन किया, मुझे तो पुरानी फुटेज देखने की बहुत कम जरूरत पड़ी है। इस लिए मैं तो भूल चुका था कि पुरानी फुटेज कैसे देखते है, लेकिन इन आगंतुक अफसर को आता था। मैंने उन्हें माउस दे दिया। उन्होंने अपने तरीके से सारी फुटेज देखी। हमें भी माहिती दी, कि यही ट्रक था जिससे एक्सीडेंट हुआ है।
इन ट्रक्स के तो इन्शुरन्स भरे हुए होते है। बेचारे उस हतभागी, जिसकी मृत्यु हुई है, उसके परिवार को कम से कम इन्शुरन्स का पैसा मिल जाएगा। हालांकि मेरे मन मे यही चल रहा था, कि साहब इतना घूम रहे है, जगह जगह से सीसीटीवी फुटेज का बैकअप ले रहे है, तो जरूर से वे ट्रक मालिक को भी दबाएंगे। क्योंकि इन्शुरन्स तो मृत्यु हुआ है उसे मिलेगा। लेकिन साहब लोग को सिर्फ मेहनत थोड़े चलती है? दीवाली है भाई..!
चाय के कप में ठहरती यात्रा की यादें
घर पहुंचते ही पता चला, नए साल के राम राम करने के लिए रिश्तेदारों के घर जाना पड़ेगा। कार उठायी, फेमिली उठायी। और चार बजे निकल पड़े। कुल सात-आठ घर थे, और घर वापिस लौट हुए भी सात बज गए। गुजरात मे यह रिवाज़ है, कि दीवाली के दूसरे दिन नया साल होता है। नववर्ष के दिन लोग सुबह चार बजे से एक दूसरे के घर शुभकामनाएं एवम ख़बरहाल पूछने, तथा बड़ो के आशीर्वाद लेने निकल पड़ते है।
हम जब छोटे थे, तो इस आशा से भी जाते थे, कि बड़ों के पैर छूने पर पैसे मिलेंगे। उन पैसों से पटाखे - खासकर सुतली बम - खरीदेंगे। और शाम को फोड़ेंगे। लेकिन सब की माँ एक सी होती है। जितनों के घर पैर छूने पर पैसे मिले थे, माँ उन सब के नाम पूछ लेती, और पैसे रख लेती। ताकि उनके लड़के जब मेरे घर आए, तो उन्हें पैसे देने की खबर रहे। जिस घर से जितने मिले हो, उस घर के लड़के को उतने ही लौटाए जाते।
लौटकर देखा तो एहसास हुआ — सफर ही सबक था
खेर, अब तो बड़े हो गए है। हम तो मुझे पैसे देने होते है। सबके घर से होकर आने के बाद झुकाम और बढ़ गया। क्योंकि जितनर घर जाते है, वहां चाय तो होती ही है, एकाध घर पर ठंडा, और किसी घर पर निम्बू सरबत.. यह सब एक के बाद एक पेट मे जाते है। एक ही दिन में शायद पचास घर पर गए हो, तो पैतालिश घरों पर चाय पीनी अनिवार्य है।
कोई खास दोस्त हो तो उसे चाय का मना कर सकते है। लेकिन वह भी मानता नही है। चाय के बजाए ठंडा मंगवा लेता है। या आखिर में निम्बू शरबत या फिर सौंफ का ही शर्बत जरूर से पिलाता है। आठ बजे तो मैं खाना खाकर बिस्तर में पड़ ही गया था। फिर याद आया, कम से कम जितनी बन सकें उतनी दिलायरी तो लिख ही लू..!
लेकिन बात ताकत की है प्रियम्वदा। सतत घूमते रहने से शरीर ने थकान के कारण झुकाम पकड़ लिया था। और यह झुकाम बड़ी बुरी बला है। आराम की जरूरत होती है, लेकिन होने नही देता यह झुकाम। अरे हाँ ! दिलबाग वैसा का वैसा ही मिला मुझे लौटने पर। वैसे तो ट्रिप से आते ही नाश्ता करने के बाद सबसे पहला काम दिलबाग को देखने का किया था। मुझे लगा था कि मुरझा जाएगा हरेक पौधा। लेकिन घर वालों ने समय समय उन्हें पानी देकर जिंदा रखा हुआ था।
प्रियम्वदा, अब आ रही है नींद, आज एक ही दिन में कितनी अलग अलग दिलायरी लिखी है, वह मेरा मन केवल जानता है।
शुभरात्रि।
२६/१०/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
थकान अगर मुस्कान में बदल जाए, तो समझिए सफर सार्थक था।
👇 नीचे कमेंट में बताइए — आपका आख़िरी ऐसा कौन सा सफर था जिसने थका भी दिया और सिखाया भी?
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