बोगनवेलिया: एक प्रतीक, एक पीड़ा
वे कागज़ के फूल आज टूट-टूट कर बिखरे पड़े है, न उसमे सुगंध है, न रस.. सुना है, बोगनवेलिया कहते है उसे। उसकी कंटीली झाडियोने मकरंद को कैद किया। वह लहूलुहान है, फिर भी वह उस मरीचिका रस का त्याग नही कर सकता। उसका जीवनाधार है वह। गंधहीन (या गुण-हीन) वह फूल फिर से वसंत की ऋतु आते ही प्रचुरता से अपनी कलाओ को प्रदर्शित करता है, और मकरंद मरता है, बार-बार मरता है।
प्रेम की बैलेंस शीट: जमा, उधार और एक दीदार
सुनो, मार्चेन्डिंग है। प्रेम की बैलेंस-शीट तुम भी देख लो, यदि जमा-उधार हो कुछ। किसी भेंट-सौगाद या, या एक मुलाकात, या फिर एक दीदार, या सिर्फ एक नजर का टकराना..।
सदियां बीत गई हो ऐसा प्रतीत होता है। मानो तुमने न मिलने की ही ठानी है। तुम्हारे शहरकी पचीसों परिक्रमा कर चुका हूं..! दिखता है वह मकान, जहाँ चहचहाती चिड़ियों की गूंज होती थी वहाँ दरवाजे पर लिपटी है एक लता, उस आँगनमे अब सूखे पत्तोने उस जमीनका एक अंश भी दृश्यमान नही रखा है जहां तुम्हारे कोमल पैरोमे लगी मेहंदीने उस मिट्टी में सुगंध का संचार किया था, वह झरोखा मटमैला हुआ पड़ा है, और वह खिड़की का टूटा हुआ कांच, उस टूटी हुई जगह से दिखते अंदर मकडियोने बुने जाले..!
दरारों वाली वह दीवारे, अपनी भव्यता खो चुकी है, क्योंकि अब उन्हें तुम्हारे मृदु हाथो का स्पर्श नही मिलता, फिर भी मैं कई घड़िया उस खंडहर के सामने बस शुन्यमनस्क होकर तकता रहता हूं, जहाँ से तुम चले गए, बिना कुछ बताये, बेपरवाह होकर।
स्वामित्व, समर्पण और प्रेम का तत्व-तत्त्व
ऐसा क्या है भीतर जो स्वयं का होकर भी किसी और को अपना स्वामित्व सौपने को सहज रहता है। किसी के दिशा-निर्देशनो को सहर्ष स्वीकारता है, तथापि कोई मानहानि या लज्जा का भाव वहां नही उपजता? वह कठोर अभिमान जो किसी के भूलवश स्पर्श पर आहत हो जाता है, वह अपनी हृदय-वल्लभा के चरण को छाती पर भी स्थान दे देता है!
किसी अन्यका वाक्-प्रहार ह्र्दयको भेद जाता है, परन्तु प्रिया के कठोर वचन उतना तेजोवध नही कर पाते है। ऐसा क्या है उस तत्व में जिसे प्रेम का नाम दिया गया है, जिसमे लोग फिसलते है, डूबते है, तैरते है, मरते है, मारते है, भोक्ता भी होते है, भोज्य भी, जहाँ सर्व भाव आकर कदाचित समाहित होते है या प्रत्येक भावोको प्रेम के नाम का आवरण चढ़ाया जाता है।
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"क्या आप भी कभी ऐसे खंडहर के सामने खड़े हुए हैं जहाँ यादें दीवारों में उगती हैं, और प्रेम वियोग बनकर झरोखों से झाँकता है?
Dilawarsinh की इस दिलायरी को पढ़िए — और उस प्रेम को समझिए, जो गंधहीन होकर भी सबसे गहरा है..."
Click Here to Read : मुझे कभी कभी लगता है मैं भी नास्तिक ही हूँ..
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