कल मेरी फीड में एक रील आयी थी
आठ तो बज गए प्रियंवदा, अब तो दूकान बंद करके घर जाने का समय हो गया, और मैं यहां तुमसे कुछ बतियाने आ गया... बताओ..! मेरा कुछ भी निश्चित है ही नहीं। वैसे इसमें मेरी गलती नहीं है... मैं गुजराती में कुछ लिख रहा था, उसमे काफी समय चला गया। और वैसे भी आज इन सब का समय बहुत कम मिला है मुझे। सुबह ऑफिस आया तब से कुछ न कुछ काम आड़े आता ही रहा है। वरना गुजराती में इच्छाओ वाला तो सुबह से लिखने बैठा था। सुबह जब ऑफिस आया, तो थोड़ी देर तो फ्री समय मिला था, उसमे कुछ पढ़ा था मैंने..!
सीधा ही बता देता हूँ। कल मेरी फीड में एक रील आयी थी। प्रियांशी नाम है उनका.. गुजरात की... सौराष्ट्र की संस्कृति को उजागर करती है वे..! उनका अंदाज मुझे बड़ा पसंद है, खासकर वो ढब, जो सौराष्ट्र की बोलियों में झलकती है। उन्होंने एक कहानी के एक अंश को अपनी रील में जिवंत करने की कोशिश की.. कहानी के एक पात्र के संवाद - शब्दों को जैसे जिवंत किया.. बड़ा ही रोमांचकारी था वह अनुभव।
एक हतु गिर अने एक हती शेलार
कहानी थी दिक्पालसिंह जाडेजा की। 'एक हतु गिर अने एक हती शेलार' सौराष्ट्र के केंद्र में गिर अभ्यारण है। गिर तो गिर है। उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती। वहां गिर में बसी हुई विचरती प्रजा भी अतुल है। नदी के एक किनारे सिंह पानी पी रहा होता है, तो उसके बगल में एक स्त्री पानी भर रही होती है। उसी विचरती प्रजा में से एक पात्र को केंद्र में रखते हुए गिर की बातो पर बनी वह कहानी है। कल रात्रि को वही पढ़ रहा था मैं मैदान में बैठा हुआ। कहानीकार दिक्पालसिंह को मैं पहले भी पढ़ चूका हूँ। उनकी लेखनी का अंदाज मुझे बड़ा ही प्रभावकारी लगा। क्या करूँ, सौराष्ट्र मूल का हूँ, तो वहां की बोली सीधे दिल को जा लगती है।
उनकी कहानियों में खासकर वही बाते पसंद आती है, देशी शब्द.. बिल्कुल सौराष्ट्र के भीतर से निकला हुआ कोई शब्द। वो शब्द एक चित्र को जन्म देता है। और उस शब्द से व्यक्ति की कल्पना होती है। दिकपालसिंह की ही एक कहानी 'घेली माथे घडो' बहुत समय पहले पढ़ी थी। वैसे घेली माथे घडो एक मुहावरा है, घेली मतलब पागल स्त्री, उसे सिर पर घड़ा.. अब कोई पागल स्त्री अपने सर पर घड़ा रखकर पानी ला सकती है? अगर ला भी आए तो कैसे, क्या क्या होगा.. बस इसी बात पर मुहावरा है.. और उसी तरह की कहानी है, कि एक मोटरसायकल पर यहां से वहां जाना, फिर कार लेकर जाना, जानेमाने व्यक्तित्वों से मिलना, ज्ञान का आदानप्रदान.. तो यह सब पढ़कर फिर से एक बार मुझे कुछ गुजराती में लिखने की इच्छा हो आयी.. बस इसी चक्कर मे आज लिखा, 'इच्छाओं नो चंदरवो'..
वैसे मुझे कभी कभी लगता है मैं भी नास्तिक ही हूँ..
मतलब जब मैं कष्ट में पड़ जाता हूँ किसी तरह के.. सबसे पहला विचार यही आता है कि ईश्वर का इस मामले से क्या लेनादेना? और मैं ईश्वर को आड़े लाये बिना एक बार तो संकट से खुद ही निपटने का प्रयास करता हूँ। फिर जैसे जैसे उस संकट से बाहर आने लगता हूँ तो श्रेय सारा ईश्वर को दे देता हूँ.. पता नही क्यो? मुझे नही लगता मैने कभी भी ईश्वरीय चेतना से साक्षात्कार किया है। योगनुयोग अलग है, और मैं मानता हूं कि वे होते है, पर उसका अर्थ यह तो नही होता है कि ईश्वर ने वह किया है। कभी कभी मुझे चार्वाक के सिद्धांत भी बहुत सही और सटीक लगते है।
जो करना है, इसी जीवनकाल के मध्य कर लो, अगले जन्म की कोई गेरंटी नही है। या कोई शत प्रतिशत कह नही पाया है अगले पिछले जन्म के बारे में..! नास्तिक होता है वह अपने जीवन की परिभाषा खुद निश्चित करता है। अपने कर्मो का श्रेय खुद रखता है। ईश्वर पर नही थोपता.. मैं थोप देता हूं, तो शायद मैं पूर्ण नास्तिक भी नही हूँ। ईश्वर को नही मानते, नास्तिक हो। वेदों को नही मानते, नास्तिक हो। सर्वानुमत को नही मानते, नास्तिक हो। आलोचना करते हो, नास्तिक हो। यह समाज, यह व्यवस्था से आप भिन्न हो, आपके विचार अन्यो के अनुकूल नही है, आप नास्तिक हो। लेकिन बात इतने से खत्म कहाँ होती है? मैं तो वास्तव में कभी आस्तिक हूँ, कभी नास्तिक।
मैं शायद आवश्यकस्तिक हूँ। जो समयानुसार स्वांग ले लेता हूँ। मुझे पहाड़ो पर स्थित देवियो के शरण मे जाना पसंद है, लेकिन वास्तव में तो मुझे यात्रा में रस था। मुझे सोमनाथ जैसे समस्त ज्योतिर्लिंग जाने की इच्छा है, शायद उसका कारण भी दैनिक जीवनचर्या से बाहर आना ही है। मुझे काशी विश्वनाथ इस लिए नही जाना है कि वहां मोक्ष के देवता बैठे है। मुझे शायद इस लिए भी जाना है कि मैं वहां जलती चिताएं देखना चाहता हूं। मेरी इच्छाए आस्तिकता के साथ साथ नास्तिक भी तो है। मैं नही जानता हूँ कि मृत्यु के बाद क्या होता है, और किसी की सुनिसुनाई बातों पर उतना विश्वास जल्दी से आता भी नही है।
जो सिर्फ विज्ञान पर विश्वास करते है।
नास्तिक तो वे भी है जो सिर्फ विज्ञान पर विश्वास करते है। लेकिन उन विज्ञान वालो ने आज का जीवनस्तर बढ़ाया ही है। फिर मुझे यह भी याद आता है कि हमारे मूल्य तो यह कहते है कि जीवन मे संतोष होना चाहिए, यह नश्वर उन्नति से अच्छा आत्मकल्याण का मार्ग है। लेकिन मैं ही मान लेता हूँ कि यदि मैंने इस संसार के समस्त सुख भोगे नही, सन्यासी होकर आत्मकल्याण की ओर बढ़ गया, लेकिन उस मार्ग पर असफल रहा तब तो मेरा यह अमूल्य जीवन ही निष्फल गया। दोनो ओर से नुकसान।
जब आज इस फोन के द्वारा मैं घर बैठे अपने तमाम सुखोपभोग के संसाधन प्राप्त कर सकता हूँ, तो क्यों न करूँ? एक तरीके से आत्मकल्याण का मार्ग वह है कि एक फ्रिज में कुछ है उसकी प्राप्ति को मैं प्रयत्नरत हो जाऊं जबकि वह फ्रिज अंदर से खाली भी हो सकता है। हमने एक पत्थर को ईश्वर मान लिया है, यह हमारी आस्था है। लेकिन जब विदेशी आक्रांताओं ने सोमनाथ लिंग को तोड़ा तब भी कुछ पंडे हथियार उठाने के बदले हाथ फैलाये खड़े थे उस खंडित लिंग के सामने की अब शिव प्रकट होंगे..! यह जो आस्तिकता है वह भी वहां तक ही अच्छी है जब तक उसमे शंका का स्थान बना रहे। पूर्वतैयारियाँ होनी चाहिए, आस्तिकता के साथ साथ उस आस्तिकता को अखंड बनाए रखने की। वरना मुझ जैसे दुधारी तलवार का पाना (तलवार की ब्लेड) पकड़ लेते है।
और झूलते रहते है आस्तिकता और नास्तिकता के अनंत झूले पर.. वह दुधारी तलवार से चोट लगती है, लेकिन तब भी बात अनिर्णायक बनी रहती है कि आस्तिकता चाहिए या नास्तिकता.. आस्तिकता परलोक की बात करती है, नास्तिकता इसी लोक की, इसी जीवन की। हम या फिर हमारे जीवन के पड़ाव इन दोनों चुम्बकों के बीच खिंचाव अनुभवते है बारबार। कुछ मक्कम मन के लोग किसी एक चुम्बक की और आकर्षित होकर उस पक्ष में जा बैठते है। और फिर वहां से उस पक्ष में और लोग बढाने के लिए संघर्ष होता है। आस्तिक नास्तिकों को अपने पक्ष में घसीट लाना चाहते है। नास्तिक भी आस्तिकों को अपने पक्ष के लाभ बताते है।
हालांकि इन वाद - विवाद के मध्य झूलते हुए मैं, मैं तो सिर्फ ऊपर कहा उस तरह समय और आवश्यकता अनुसार उस पक्ष का पक्षधर हो जाता हूँ जिसमे मेरा लाभ हो..! शायद आस्तिक या नास्तिक से ज्यादा स्वार्थी हूँ मै।
आंखों में तो जैसे अग्निबाण उतर रहे थे...
वैसे दोपहर को मैं और गजा आज दोपहर को थोड़ा मार्किट में काम थे तो चले गए। अगनज्वाला बरस रही थी। दोपहर को तो 38° के आसपास तापमान चला जाता है, और हम गए भी दोपहर के 1 से 3 के बीच थे। मैने मुंह पर रुमाल लपेट लिया, और सर पर हेलमेट.. तब भी आंखों में तो जैसे अग्निबाण उतर रहे थे। अब तो मार्किट में दोपहर को चहलपहल ना के बराबर हो चुकी है। कुछ हम जैसे ही मजबूरी में निकलते है। कन्याएं तो डाकू का अवतार लगती है, आदमी अल्हड़ जैसे घूमते है। जो भी काम था वो तो बड़ी जल्दी निपटा लिया।
फिर मार्किट से तो भूखे पेट वापिस नही आया जाता। तो एक डेढ़ प्लेट पावभाजी पर ही गर्मी का गुस्सा निकाला। ऑफिस वापिस आने के बाद कुछ काम धाम किया, शाम के साढ़े सात बजे तक मैं वो इच्छाओं वाला गुजराती लेख भी पूरा हो गया था। और दिलायरी लिखने बैठा तो पहले बताया वैसे आठ बजे गए थे। घर जाने का समय। लेकिन फिर घर आकर खाना-वाना निपटाकर दुकान चला गया। वहां यह पूरा किया... तो बस.. इति अस्तु..
शुभरात्रि।
(०३/०४/२०२५)
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इच्छाएं, रामजीलाल सुमन और स्वामीनारायण संप्रदाय
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