दुनिया में स्थायी कुछ भी नहीं है प्रियंवदा..! सब समय के साथ बदल जाते है। और नहीं बदलना हो तब भी समय और संजोग बदलवाते है। हम अपनी आवश्यकता अनुसार किसी से जुड़ते है। अपनी आवश्यकता का निभाव, उपयोग होने के पश्चात हम दूर हो जाते है। या फिर इसे व्यवहारिकता कही जाती है। अपनी आवश्यकता बदल जाए तब भी आवश्यकता की आपूर्ति का कर्ता भी बदल जाता है। फ़िलहाल ऐसा है, कई दिनों से लिखना बंद कर दिया है मैंने.. न ही दो पंक्तियाँ, न ही कुछ फ़िज़ूल की बाते...!
प्रियंवदा, वो बात बिलकुल सही है कि याद तो आती है। हालाँकि नजरअंदाज की जा सकती है, यादो को भी और उस व्यक्ति को भी, लेकिन फिर भी दिमाग भूलता नहीं है। और यह मनोवृत्ति है। सबके साथ होती है। दो दिन नयापन लगता है, फिर वही सामान्यतः हो पड़ता है। बस वे दो दिन को कुछ लोग गाँठ बांधकर रखलेते है। प्रियंवदा, कभी कोई ऐसा टकराया जो जान न पहचान फिर भी बेताल की तरह कंधे पर आकर बैठ जाए..? अपन कंधे से उतारने की कोशिश करे तो कान में फुसफुसाते है। वहां से भगाने की कोशिश में फिर आखिरकार अपन भी लातो के भूत बातो से नहीं मानते वहां तक पहुँच जाते है।
कभी कभी हम किसी सामान्य बात पर जिद्द पर उतर आते है। जैसे मैं किसी से बात कर रहा था, मैं कभी ट्रैन में ट्रेवल किया नहीं हूँ कभी भी, क्योंकि गुजरात से बाहर जाना हुआ ही नहीं कभी, एक बार हिमाचल गया, वो बाय फ्लाइट था, एक बार राजस्थान गया वो कार से गया, था और एक बार मध्यप्रदेश वो भी कार से गया था। ट्रैन में एक बार बैठा था, किसी के कहने पर। जनरल डब्बे में चढ़ा दिया गया मुझे, और लम्बी दुरी तक सिकुड़कर बैठना कैसा होता है वह जाना, धीरे धीरे समझ आया की इतनी लम्बी ट्रैन में अलग अलग क्लास होते है। फिर दूसरी बार गया तब स्लीपर क्लास में गया, तब भी बड़ी टेंशन रही की नींद आ जाएगी तो सीधे मुंबई पहुँच जाऊंगा..! ऊपर से इसमें स्मोकिंग वगैरह भी एलॉउड नहीं है। बस तो कई जगहों पर स्टॉप लेती है, हिलती-डुलती रहती है, नींद का तो सवाल ही नहीं। तो किसी ने मुझसे कहा, इतना बस बस करता है तो एक बार सोमनाथ से रामेश्वरम बस में चला जा.. बात तो यह भी सही है... नहीं जा सकते इतनी लम्बी दूरी में ट्रैन ही चलती है। यह हाजिरजवाबी हर किसी को आनी चाहिए।
कई सारे मित्र फ़िलहाल प्रयाग कुम्भ में डुबकियां लगा रहे है। और मुझ कोयले को और जला रहे है। कई सारे कारण है मेरे न जा पाने के पीछे। फिर स्वयं को दिलासा देने के लिए मुझे एक पंक्ति बड़ी अच्छी लगती है, 'अठे ही दुवारिका'.. जब कहीं जमकर पड़े रहना हो तो कहा जाता है, 'अठे ही दुवारिका'.. एक ऐतिहासिक प्रसंग है, संक्षेप में कहूं तो राजस्थान से दो भाई द्वारिका की यात्रा पर निकले थे, सौराष्ट्र में एक राजा के यहाँ मेहमाननवाजी में रुक गए। वहां युद्ध का संकट आ गया, तो दोनों भाई ने आगे की यात्रा टाल दी और युद्ध में कूद पड़े यह कह कर की 'म्हारी तो अठे ही दुवारिका है '.. तब से मुहावरा बन गया है, धार्मिक कार्य से बड़ा कर्म है, नैतिकता का कर्म। और हम ठहरे नौकरी के गुलाम, हमारे लिए भी यही अठे द्वारका ही उपयुक्त है। स्वयं को दिलासा देते रहना भी कोई उतना मुश्किल काम नहीं है। आसान है, स्वयं से फरेब कर पाना। अठे द्वारका.. अठे द्वारका..
देखते है, कुछ तो होगा... मैं जो सहता हूँ उसे व्यक्त करना उतना जरुरी नहीं समझता। लेकिन यह तय है की मैं भूलता भी नहीं।