आज की तो क्या ही कहूँ.. सुबह ऑफिस पहुंचा, चायपानी हुआ। उतने में हुकुम का आदेश आ धमका.. 'कल ही निकलना है।' फिर तो दोपहर तक ऑफिस का ज्यादातर काम निपटा लिया। साढ़े ग्यारह को महाकुंभ की कुछ बाते दिमाग मे चल रही थी तो वे लिखकर पोस्ट पब्लिश कर दी। YQ पर भी एक मित्र का बारबार इसी विषय पर कॉलेब निमंत्रण आ रहा था। दोनो काम एक ही साथ हो गए। YQ पर भी पब्लिश करते ही बहुत से प्रतिभाव मिले आज तो..! दोपहर को मैं और गजा फिर से बाजार नापने निकल पड़े।
काम तो एक ATM जाना था, और कुछ दवाइयां लेनी थी। उसके लिए हमने लगभग पचास किलोमीटर का तेल फूंक दिया। लगे हाथ नाश्ता कैसे भूले? भूकंप के दिनों में जहाँ रहते थे, भटकते हुए वहां पहुंच गए..! सारी यादें ताज़ा हो आई। उंगली से दिशानिर्देश करते बाबा के चेलों ने किए हुए दंगे, फिर भूकंप.. सब आंखों के आगे तैरने लगा। ठीक अगली लाइन मर एक बढ़िया नाश्ता वाला था। दो-दो समोसे दबाकर निकले ही थे कि एक फ़ोन आया, 'अपने लिए एकाध कुर्ता खरीद लो..' पहले किसी फंक्शन्स के लिए इतना तामज़ाम नही हुआ करता था। अब अपन बाह्य दिखावे में इतना खर्च नही करते है, मैं स्वीकार चुका हूं अपन बड़े है।
सीधे ऑफिस। शाम तक कुछ YQ नोटिफिकेशन्स चली। सरदार को बताने गया कि 'एक हफ्ते अपन छुट्टी पर है।' तो उसने उल्टा याद दिलाया कि 'वो गाड़ी का बिल तो बना दो।' सात बजने में चंद मिनिट्स बाकी थे, और बड़ी जल्दी जल्दी बिल बनाना पड़ा। और अपना खुद का काम हो और अपन ऑफिस में फंसे न हो ऐसा तो आजतक नही हुआ है। गाड़ी साढ़े आठ तक फाइनल हुई। और अपन को हिसाब के लिए रुके रहना पड़ा। आखिरकार पौने नो को घर के लिए रवाना हुआ।
हिसाब किताब और चाबियां गजे को सम्भलवा दी। घर पहुंचा, गाड़ी की छोटी टंकी फुल करवाई। सुबह बड़ी जल्दी निकलना है इस लिए बस अब सोने की तैयारियां..
बड़े होने की स्वीकारता फिर भी असान है..'बचपन बीत गया' की स्वीकृति से !
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