अस्पताल का वह एक दिन
प्रियंवदा ! आज मैंने मुस्कुराने की वजह खोजी। पता है वह वजह क्या है? 'बेवजह'। हर जगह यह फॉर्मूला काम नही करता है, लेकिन कुछ कुछ जगहों पर बेवजह मुस्कुराना बड़ी अच्छी बात है।
कुँवरुभा, ऑपरेशन और मेरा डर
आज दिनभर अस्पताल में था.. सुबह छह बजे जाग गया था। परीक्षा थी मेरी। कुँवरुभा का ऑपरेशन था। मुझे चिंथड़े तक देखने मे घिन्न नही होती, डर नही लगता या हाथ कपकपाते नही। लेकिन आज वह सब हुआ मेरे साथ। सरकारी अस्पताल या फिर अस्पताल में ही मैंने आज पहली बार पूरा दिन बिताया है। प्राइवेट डॉक्टर ने ही मुझे वहां जाने की सलाह दी थी, कुछ तो पहचान काम आ गयी। पिछले बुधवार को इस शुक्रवार यानी आज डॉक्टर ने सुबह सात बजे ऑपरेशन करने को कहा था, और खास सूचना दी थी कि पेशंट को भूखे रखना है, पानी भी नही देना है।
साढ़े चार की उम्र है कुँवरुभा की। सुबह सात बजे हम अस्पताल में हाजिर हो गए थे। और दस बजने को आये लेकिन डॉक्टर का अतापता नही। कांटेक्ट नम्बर तो था नही, इसी कारण इन्तेजार करने के अलावा कोई विकल्प न था। जिस नर्स, कम्पाउण्डर को पूछो, वह इतना ही बोलता कि, 'साहब बस आने को है।' सात से दस के बीच मे कुँवरुभा तो प्यासे हो गए। पानी पानी करने लगे, और मैं खुद पसीने से लथपथ होने लगा था टेंशन के मारे। लगभग दस बजे डॉक्टर ने मुझसे साइन ली, और फिर ऑपरेशन थियेटर में कुँवरुभा को ले गए।
मैं अंदर गया, लेकिन मुझे बाहर निकाल दिया गया। कुँवरुभा लगातार चीख रहे थे, 'पप्पा.. पप्पा..' लेकिन मेरा कलेजा अभी तक नही काँपा था। मुझे विश्वास था एक, अडिग विश्वास, जो होता है, अच्छा होता है। लेकिन साढ़े दस बजे तक में मेरा विश्वास डगमगाने लगा था। बिल्कुल सच कहूं तो मैं मन ही मन 'महामृत्युंजय' का जाप करने लगा था। मैं हमेशा गले मे रुद्राक्ष की माला पहने रहता हूँ। दाएं हाथ से एक रुद्राक्ष पकड़े हुए मन मे सतत जाप चलने लगा।
डॉक्टर ने कहा था कि बेहोश करके ऑपरेशन होगा। ग्यारह बजे कुँवरुभा को डॉक्टर बाहर ले आया, मेरे तो कदम ही नही उठ पाए। माताजी ने त्वरा से कुँवरुभा को अपनी गोद मे ले लिया। एनेस्थेशिया दिया होगा शायद, अभी तक पूरे होश में नही थे लेकिन रोना-चीखना पूरा चालू था। 'पप्पा... मम्मी... बा... दादा..' सबको उसने याद किया, जिह्वा खून भरी थी। मेरा गला रूंध चुका था। उन्हें रूम में शिफ्ट किया तब तक मैं भी बेहोशी में ही जैसे पीछे पीछे चलता गया था। भय से मेरी हालत खराब थी। डॉक्टर ने कुछ जरूरी मेडिसिन्स लाने मुझसे कहा, मैं गया और लाया.. जैसे अनुभवहीन एक पुतले की माफिक। जो केवल आदेश सुनता है।
सिस्टर या सहारा?
मुझे आज यह भी अनुभव हुआ कि नर्स को सिस्टर क्यों कहते है। कुँवरुभा का खून से सना मूंह, बेहोशी की दवाई के कारण बार बार खून भरी जिह्वा बाहर निकालते। यह सब देखकर मैं अंदर से हिल गया था। मैंने ट्रक के टायर के बीच फंसा हुआ शरीर तक देखा है, हेलमेट न पहनने की गलती स्वरूप किसी का रोड पर खुला मगझ भी देखा है। मैं कभी काँपा नही, मुझे भय नही उपजा। लेकिन आज कुँवरुभा को देखकर मैं सुनमुन हो चला था। एक नर्स आयी, कुँवरुभा के हाथ पर एक बोतल चढ़ाई, एक ब्लडप्रेशर का मशीन दूसरे हाथ मे लगाया, और मूंह पर वो मास्क चढ़ाया जिससे गर्म हवा स्वासों में आती है।
डॉक्टर ने सबकुछ समझाया, क्या क्या ध्यान रखना है, और जरूरत के समय नर्स हाजिर रहेंगी ऐसी सूचना दी। मैने सिर्फ सुना। क्योंकि पीड़ा मुझे हो गयी थी, चोट मुझे लग गयी थी, गुमसुम था मैं। तभी वह नर्स आयी, मुस्कुराते बोली, 'क्या हुआ भैया, इतना क्यों टेंशन में हो..?' एक बार तो मेरा दिमाग हिल गया था कि यह मजाक कर रही है क्या? लेकिन उसका मुस्कुराता चहेरा मेरे गुस्से को किसी गहराई में धकेल आया।
मुस्कुराहट की अनकही ताकत
कितना सौम्य मुख था उनका, भरपूर धीरज, दवाईओ में खास चौकसी, मेडिकल वाले ने कुछ एक्स्ट्रा दवाइयां पकड़ा दी थी मुझे, तो उन्होंने तुरंत कहा, 'यह एक्स्ट्रा मेडिसिन्स कोई काम नही आनी, आप उसे वापिस कर दो।' उनकी आवाज में एक अलग ही रणक थी, और जैसे मुस्कान उनके होंठो से उतरने का नाम ही नही ले रही थी। बिल्कुल हर एक चीज का ख्याल रखने वाली एक बहन..! वास्तव में नर्सों को सिस्टर कहना एक अनुभव ही है। क्योंकि कुछ वास्तव में बहन जैसा ही व्यवहार करती है। उन्होंने कुँवरुभा की सारी व्यवस्थाएं कर दी, मुझे हौंसला बंधाया, 'मैं यहीं हूँ, कुछ भी जरूरत हो, बुला लेना।' सरकारी अस्पताल में एक नर्स इतना ख्याल कैसे रख रही थी? हालांकि यह उनका काम ही है रोज का। लेकिन उनके लिए यह शायद काम से ज्यादा होगा। वरना इन नर्स को इतने पेशंट देखने होते है कि मुस्कान उनके चेहरे पर देखनी दुर्लभ होती है।
आज लगभग पूरा दिन मैं या तो खड़ा रहा हूँ, या पैदल चला हूँ। कुँवरुभा ने होंश में आते ही सबसे पहले पानी मांगा। इस गर्मियों में पानी को कैसे मना किया जाए? आदमी दुश्मन को भी पानी पिला दे इस ऋतु में तो.. लेकिन सख्त आदेश था, ऑपरेशन के चार घंटे बाद ही पानी दिया जाए। और कुँवरुभा तो लगभग पौने बारह से ही पानी.. पानी.. करने लगे थे। सुबह से खाली पेट, और पानी भी नही पी सकते। मेरा जीव जलने लगा था। मैं उनके समीप नही जा पा रहा था। क्योंकि आंख मिलते ही, उनकी आंखों में स्पष्ट पानी की प्यास मैं अनुभव कर पा रहा था। मैं बाहर बैठा रहा। धन्य हो माताजी, जो उन्हें सतत बहलाते, फुसलाते रहे, हिम्मत बंधाते रहे। हुकुम भी लगातार सुबह सात बजे से बस चक्कर काट रहे थे। यह भी अलग समस्या थी मेरे लिए तो, कि कहीं इनकी तबियत न बिगड़ जाए। मुझे बहाना मारना पड़ा कि, मुझे प्यास लगी है, चलो बाहर गन्ने का रस वाला है।
ढाई बज गए थे। लगातार कुँवरुभा पानी, पानी, और कोई बात नही। मोबाइल दिया कुछ देर तो भूल गए। तीन बजे गए, नर्से बदल गयी थी। ऑपरेशन को चार घंटे हो गए थे, अब पानी पिला सकते है वह भी थोड़ा थोड़ा करके। सिस्टर खड़ी रही, कुँवरुभा ने पानी पिया, फिर किसी का नारियल देख गए, बोले नारियल पीना है। मैं फूला नही समाया, पानी पीकर कुँवरुभा थोड़े जोश में आ गए थे, और उनका जोश देखकर मैं भी, लगभग सात किलोमीटर का चक्कर काट आया, सिर्फ नारियल लेने के लिए.. लगभग छह बजे हमे घर जाने को अनुमति दे दी गयी थी, बहुत सारे सलाह सूचनो के साथ।
प्रियंवदा, एक मुस्कान बहुत कुछ बदल सकती है। अस्पताल में बेवजह भी मुस्कुरा देना चाहिए। सामने वाले कि हिम्मत बंध जाती है। एक कराह रहे पेशंट की और मैने मुस्कुराते हुए देखा तो वह भी पीड़ा के मध्य जरूर मुस्कुराया। मुस्कान पीड़ा हर लेती है, हर तरह की। अस्पताल में बड़ी विचित्र विचित्र कहानियां सुनने को मिलती है। लेकिन सारा अस्पताल एक तरफ और उस एक सिस्टर की मुस्कान एक तरफ। मैंने मुस्कुराने की वजह खोजी है आज प्रियंवदा।
एक नन्ही सी गुड़िया और मेरी खोई चाबी
जब रजा मिल गयी, डिस्चार्ज हो गए, तब एक भारी खेला हो गया। कार की चाबी खो गयी। मुझे इतना याद आ रहा था कि मैने नारियल ले आने के बाद कुँवरुभा के पास आखिर में चाबी देखी थी। उसके बाद तो मैं चाय लेने चला गया था, बहुत से लोगो को चाय पिलाई है मैंने आज शाम की। अब चाबी की खोजबीन, उस एक मुस्कान की ऊर्जा मुझ में थी ही.. वरना सुबह से मैं भी पानी पर ही था, और चाय। बहुत बड़ा अस्पताल है, दिनभर में मैंने पूरा अस्पताल पैदल नापा था टेंशन के मारे। अब चाबी ढूंढने के चक्कर मे एक बार और नापा।
ऑपरेशन थियेटर, वार्डरूम के बेड्स, चाय वाले कि दूकान, मेडीकल स्टोर, डॉक्टर की कैबिन.. कहीं नही मिली। थक-हारकर नक्की किया कि रिक्शा करके घर चले जाए, घर से दूसरी चाबी लेकर वापिस अस्पताल आऊं मैं और कार घर ले जाऊँ। लेकिन नसीब आज साथ था, एक नन्ही सी गुड़िया को खेलते हुए चाबी मिली, मुस्काते हुए वह माताजी के पास आई, और बोली आप चाबी ढूंढ रहे है? ये लो..! मैंने आधा रिक्शा-भाड़ा उसे वहीं दे दिया। मुस्कान प्रियंवदा, फिर से एक बार, उस नन्ही सी गुड़िया, जो शायद किसी कंस्ट्रक्शन वर्कर की गुड़िया रही होगी, उसका भी वह स्मितभरा चहेरा..
क्या तुमने भी बेवजह मुस्कुराया है?
और एक हम है, बेवजह ही मुंह फुलाये घूमते है कई बार.. हमे चाहिए क्या? बस एक बेवजह मुस्कान.. प्रियंवदा, एक मुस्कान..! क्या तुमने भी कभी कोई ऐसी बेवजह मुस्कान देखी है?
(०२/०५/२०२५)
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– दिलावरसिंह
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